पिछले लेख में मैंने कुछ असाध्य रोगों के बारे में कारक ग्रहों का उल्लेख किया है। आज मैं इससे आगे लिखने वाला था, तभी एक जिज्ञासु का आग्रह भरा सन्देश मिला कि बाँझपन या संतानहीनता के ऊपर भी प्रकाश डालूँ।
यहाँ मैं कुछ एक महाशय का संदेह दूर करना चाहूंगा कि मैं न तो कोई चिकित्सक हूँ और न ही कोई व्यावसायिक या पंजीकृत ज्योतिषाचार्य। मेरे पास न तो कोई औषधि उपलब्ध है और न कोई यन्त्र-तंत्र। मैं एक सक्रिय सेवारत फौजी हूँ। सम्बंधित विषयों का अध्ययन करने के कारण मैं इससे सम्बंधित ज्ञान जो मैंने संग्रहीत किया है और जो जन समुदाय के लिये लाभकर प्रमाणित हो सकती है, उसे मैं लिख देता हूँ।
अभी पुनः मैं मुख्य विषय की तरफ ध्यान केन्द्रित करना चाहूंगा। यद्यपि बाँझपन कोई रोग नहीं है जिससे कोई शारीरिक कष्ट होवे। किन्तु यह एक आवश्यकता है। जो शारीरिक संरचना में किसी ग्रंथि विशेष या उस विशेष ग्रंथि के रस विशेष के अविकशित होने के कारण उत्पन्न होती है। इसके ज्योतिषीय कारक निम्न प्रकार बताये गए हैं।
यदि कुंडली में मंगल, सूर्य एवं शुक्र तीनो निर्बल हों, तथा नवमांश कुंडली में इन तीनो में कोई दो नीच राशिगत हो, तो संतान हीनता होती है।
यदि ग्यारहवें भाव में शनि एवं राहु मेष राशि में हो तथा सूर्य नीचस्थ हो तो जटिल एवं असाध्य संतान हीनता होती है।
यदि ग्यारहवें भाव में तुला का सूर्य मंगल के साथ हो तथा वक्री शनि मिथुन राशिगत हो तो संतान हीनता होती है।
यदि पांचवें शुक्र एवं उच्च का ही शनि क्यों न हो, लग्न में नीचस्थ मंगल हो तो असाध्य संतानहीनता का योग बनता है।
यदि लग्नेश, पंचमेश एवं सप्तमेश की युति छठे, आठवें या बारहवें भाव में हो तो अवश्य संतानहीनता होती है।
यदि दशमांश कुंडली में दशमेश लग्नेश या पंचमेश के साथ छठे, आठवें या बारहवें भाव में बैठा हो तो संतानहीनता होती है।
यदि पंचमेश-अष्टमेश का स्थान परिवर्तन हो तथा ग्यारहवें भाव में चन्द्र-राहु की युति हो तो असाध्य संतानहीनता होती है।
यदि पंचमेश-व्ययेश का स्थान परिवर्तन हो, तथा नवमांश कुंडली में ग्रहण योग बना हो तो संतानहीनता होती है।
गुरु उच्च का होकर लग्न में ही क्यों न हो, यदि नीच चन्द्रमा के साथ राहु तथा नीच का शनि कुंडली में हो तो संतानहीनता होती है।
अभी मैं इसके निवारण का एक उदाहरण ग्रहों के प्रतिनिधि खनिज एवं वनस्पतियों के आधार पर प्रस्तुत कर रहा हूँ।
सबसे पहले मैं संतानहीनता के उपरोक्त प्रथम उदाहरण को लेता हूँ। इसमें मंगल, सूर्य एवं शुक्र तीन ग्रह हैं। इसमें मंगल का प्रतिनिधि खनिज ताम्बा, अभ्रक एवं स्वर्ण सिन्दूर है। सूर्य का प्रतिनिधि खनिज स्वर्ण, कस्तूरी एवं रस सिन्दूर है। शुक्र का प्रतिनिधि खनिज कान्त लौह, बंग, प्रवाल एवं कपूर है। सूर्य की प्रतिनिधि वनस्पति जावित्री, मंगल की जायफल एवं शुक्र की कपूरबेल है।
अभी हम देखते है कि किस ग्रह की महादशा चल रही है। महादशा निर्धारण के लिए पाराशारोक्त विधि अपनानी चाहिये। अर्थात जिसके लिये विंशोत्तरी लागू हो या अष्टोत्तरी या षोडशोत्तरी , उसके अनुसार दशा निर्धारित कर लें। जिस ग्रह की महादशा होवे, उस ग्रह का जन्म कालिक अंश तथा पंचमेश के जन्मकालिक अंश में कितने अंश का अंतर है। जितना अंतर हो उसका कला बना लें। उदाहरण के लिए जैसे मंगल की महादशा चल रही हो। जन्म के समय मंगल सिंह में 23/12/23 पर है। तथा पंचमेश गुरु जन्म के समय धनु में 13/45/26 पर है। मंगल का अंश लगभग 10 ज्यादा है। अब 10 अंश का 600 कला हुआ। इसमें वर्त्तमान आयु जो पूरी हो चुकी हो जैसे चालीस साल पांच महीने तो चालीस लेगें, इस चालीस से 600 में भाग देगें। तो भागफल डेढ़ (1.5) आयेगा। इस प्रकार ऊपर के बताये पदार्थ प्रत्येक डेढ़-डेढ़ तोला लेकर, भष्म बनाकर एक में मिला लेगें। ध्यान रहे एक गृह के अनेक प्रतिनिधि खनिज एवं वनस्पति हो सकते है। किन्तु लेना प्रत्येक ग्रह का कोई तीन प्रतिनिधि खनिज या वनस्पति ही है। इस प्रकार उपरोक्त उदाहरण में पूरा भष्म साढ़े तेरह तोला होगा।
फिर हम देखते है की उपरोक्त उदाहरण में कौन सा ग्रह नीच का है। हम यहाँ मंगल को मान लेते हैं, मंगल नीच का है। मंगल की नीच राशि कर्क है। इसका स्वामी चन्द्रमा है। चन्द्रमा का पदार्थ (यह प्रतिनिधि द्रव रूप में होना चाहिए) जल है। अतः ऊपर वाले भष्म में से एक-एक रत्ती भष्म को जल के साथ दोनों संध्या अर्थात प्रातः-सायं ग्रहण करें। (देखें आचार्य मांडव्य कृत ग्रहभैषज्य)
हिदू मतावलंबियों को यह औषधि लेने से पूर्व निम्न मंत्र को पढ़ने का विधान है-
यद्यपि उपरोक्त मन्त्र में प्रत्यक्ष कुछ व्याकरण संबंधी अशुद्धियाँ दिखाई दे रही है। किन्तु शास्त्र विधान के अनुसार इन्हें शुद्ध करने का आदेश नहीं है। गैर हिन्दू मतावलंबी के सम्बन्ध में तद्धर्म के अनुसार ईश स्मरण का विधान बताया गया है।
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