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जान बूझ कर वैवाहिक जीवन को दुखी न बनाएं।—भाग प्रथम

वेद विज्ञान
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जान बूझ कर वैवाहिक जीवन को दुखी न बनाएं।—भाग प्रथम
आज वर्त्तमान समय में जब समाज में शिक्षा के प्रति जागरूकता बढी है, लोग अपना भला बुरा समझने एवं उसे निर्धारित तथा निर्दिष्ट करने का दंभ भरने लगे है, उन्हें पारंपरिक रूप से विवाह के लिए निर्धारित प्रक्रिया एवं व्यवस्था जो कुंडली एवं गणना मिलान के रूप में चली आ रही है, एक बाधा, ढकोसला या अनावश्यक रुकावट एवं संदेह के रूप में नजर आने लगी है। तथा एक आसान तर्क रखते है की गैर हिन्दू मतावलंबियों में तो गणना मिलान नहीं होता है। तो क्या उन धर्मो में शादी नहीं होती है? यह एक बहुत ही बचकाना या मूर्खता पूर्ण प्रश्न या तर्क है। इसका न कोई आधार है न औचित्य। यदि ऐसे ही अटपटे सवाल उनसे किया जाय कि जिनके घर बेटा-बेटी नहीं होते उनके घर विवाह क्यों नहीं होता? तो इसका क्या उत्तर हो सकता है? जिसे जिस विद्या या तकनीक का ज्ञान नहीं है, वह उसका इस्तेमाल कैसे करेगा? यह तो भारतीय शिक्षा एवं तकनीकी ज्ञान की समृद्धि है, जो यहाँ उपलब्ध थी। या आज भी है। और जब से विदेश में इसकी महत्ता लोग धीरे धीरे जानना शुरू किये है, लोग इस पर घोर विशवास करने लगे है। यद्यपि कुछ कुंठित एवं दुर्भावना ग्रस्त हठवादी विचारधारा के पूर्वाग्रह ग्रसित गैर हिन्दू मतावलम्बी इसे “HINDUISM” करार देकर तथा गैर हिन्दुओ के लिए अग्राह्य बताकर इसका भरपूर विरोध कर रहे है। किन्तु जागरूक जनता अब अपने हित-अनहित को पहचानने लगी है। तथा ऐसे कपटी लोगो से भरसक किनारा करने लगी है। आज लोग जानने लगे है कि धर्म वही है जिससे भलाई होता है। जी हाँ, आज मेरे संपर्क में ऐसे लगभग साठ हजार से ऊपर गैर हिन्दू है।
दूसरी बात यह है की बड़ी आसानी से आज यह दार्शनिक भाषा में कह दिया जाता है की विवाह लड़का-लड़की के विचार एवं इच्छा के अनुसार होना चाहिये। तो फिर माता-पिता, अभिभावक, परिवार, रिश्तेदार या अन्य संबंधी के विचार, अनुभव एवं दूरगामी परिणाम के प्रति चैतन्यता का क्या महत्व? क्या विवाह पेड़ का पका आम है जिसे चूस कर फेंक दें और फिर दूसरा चूसना शुरू कर दें? या शरीर का वस्त्र है जिसे रोज बदलते रहे?
विचार एवं इच्छाएं मन से उत्पन्न होती है। मन बहुत चंचल एवं सदा अस्थिर होता है। यह परिस्थितियों के अनुसार बदलता रहता है। किन्तु विवाह एक पवित्र, स्थाई एवं प्रेम, विशवास तथा अद्वैत की न टूटने वाली मज़बूत रस्सी से आबद्ध एक सम्बन्ध है। जिसमें चंचल मन के बदलते विचार एवं इच्छा का कोई स्थान नहीं होता है। बहुत से लोग इस विचार का विरोध करते हुए कहते है की ” कि इस प्रकार माता-पिता, समाज एवं रिश्तेदार लडके एवं लड़की की इच्छाओं को जबरदस्ती कुचल देते है। तथा अपना खूसट विचार उनके ऊपर थोप देते है। क्या लडके-लड़की की अपनी कोई इच्छा नहीं होती?” मैं भी यही पूछना चाहूँगा कि क्या माता-पिता अपनी संतान का कभी बुरा सोच सकते है? इस सम्बन्ध में लोग एकाध उदाहरण देते है कि अमुक आदमी ने पैसे के लोभ में अपनी बेटी को किसी बुड्ढे से ब्याह दिया। तो मैं भी इस स्वच्छंदता का उदाहरण दूंगा कि अपनी मन मर्जी से विवाह करने वाली लड़की तब पछताने लगी जब उसे पता चला की वह लड़का पहले से ही आठ लड़कियों से शादी कर चुका है। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि किसी एक उदाहरण से कोई सिद्धांत नहीं बनता है। जैसे कोई भ्रष्टा, दुराचारिणी एवं पतिता अपने दुष्कर्म को छिपाने के लिए अपने नवजात, निर्दोष एवं मासूम कलेजे के टुकडे को किसी कूड़ेदान में फेंक देती है। तो वह भी तो माँ ही है जिसने एक बच्चे को जन्म दिया है। किन्तु इससे माताओं की महत्ता को आँकते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि समस्त माताएं भ्रष्टा, दुराचारिणी एवं पतिता होती है।
माता-पिता, परिवार, सगे-संबंधी, समाज यदि कोई निर्णय लेता है, तो उसके पीछे अवश्य कोई न कोई कारण होता है। कोई भी माता-पिता अपने संतान का बुरा नहीं चाह सकता। सब चाहते है की उसका बेटा, उसकी बेटी, भतीजी, भांजी या भतीजा सुखी एवं खुश रहें। परिवार सुखी एवं खुशहाल रहे।
आप अपने दिल पर हाथ रख कर निष्पक्ष रूप से न्याय के साथ सोचिये कि जब से माता-पिता एवं अभिभावक के विचार गौड़ हुए और लडके तथा लड़कियों को स्वतन्त्रता एवं स्वच्छंदता पूर्वक अपने लिये वर-कन्या चुनने की छूट मिली, तब से इस सम्बन्ध में तो भूचाल आ गया है या नहीं? कही लड़की ने लडके को छोड़ कर दूसरे लडके के साथ भाग गयी। क्योकि लड़की को लडके के कुल खानदान, व्यवहार, आचरण एवं रहन-सहन के आदर्श का पता नहीं था। उसने तो बस उसे अपने साथ आफिस में काम करते देखा था। कुछ एक दिन प्यार-मुहब्बत की दो-एक चिकनी चुपड़ी बातें हुई। लोभ, वासना या महत्वाकांक्षा की धूल भरी आंधी आयी। और बस, “विवाह” की “हेडिंग” के नीचे सम्बन्ध बना लिये। यही हाल लडके के साथ हुआ। लडके ने लड़की को अपने साथ पढ़ते हुए देखा। क्वारी, चुस्त पोशाक, मटक मटक कर इठलाती हुई चाल, गोरी चमड़ी एवं लुभावने हाव-भाव देखा। कई दिनों तक देखता रहा। और बस एक दिन “प्रोपोज” कर दिया। भाड़ में गये माता-पिता, शादी कर लिया। और बाद में पता चला कि उस लड़की के नखरे उठाना उसके बस की बात नहीं है। तो या तो लड़की की ह्त्या कर दी जायेगी। या लड़की उससे ऊब कर किसी दूसरे लडके से उसकी ह्त्या करवा देगी।
किन्तु आज भी सामाजिक प्रथा के तहत जहां हर पहलू को परखा जाता है। ननिहाल, ससुराल तथा बुआ, मौसी के परिवार से जायजा लिया जाता है। कुल-खानदान की स्थिति का आंकलन किया जाता है। दोनों पक्षों के आर्थिक, सामाजिक, चारित्रिक, व्यावसायिक, शैक्षिक एवं नैतिक स्तर की तुलना-विवेचना कर सामंजस्य स्थापित किया जाता है। बड़े बुजुर्गो के अनुभव का सहारा लिया जाता है। और तब कही सम्बन्ध बनता है। इन सारे अनुभवों को ताक पर रख कर दो दिन की आँख मिचौली को परवान चढाते हुए विवाह करने को किस पहलू से सुखद भविष्य वाला कहा जा सकता है?  जिसने शादी-विवाह एवं अन्य सम्बन्ध एवं परम्परा के निर्वहन में अपनी आयु का दीर्घ हिस्सा व्यतीत कर दिया उस माता-पिता या अभिभावक के इस दीर्घ कालिक अनुभव को एक दिन की आँख मिचौली के अनुभव की धूल भरी आंधी में उड़ा दिया?
लेकिन बहुत पश्चात्ताप का विषय यह है कि आज “मेजोरिटी” ऐसे ही सोच को बढ़ावा देने वालो की है। बहुमत का ज़माना है। सरकार बहुमत वाले की ही बनेगी। चाहे भले अल्पमत वाले दूरदर्शी एवं भुक्त भोगी हो।
लेकिन इस विचार धारा को बढ़ावा मिलने से पंडितो की चाँदी हो चली है। नित्य नये “जजमान” मिल रहे है।
लडकी “पंडित जी एक “जंतर” बना दो। पहले मुझे बहुत मानता था। बहुत प्यार करता था। इसीलिए मैंने घर-परिवार से विद्रोह कर के उससे शादी की। किन्तु अब वह दूसरी के साथ सम्बन्ध बना रहा है। कोई उपाय करो ताकि वह फिर मुझे मानने लगे।”
लड़का- “पंडित जी कोई पूजा कर दो। मेरी पत्नी अब दूसरे के साथ नज़दीकियाँ बना रही है।”
और पण्डित जी जन्तर के नाम पर खूब कमाई कर रहे है।
क्योकि शादी तो स्वयं के निर्णय से हुई है। न तो कोई रिश्तेदार बीच में पडेगा और न ही समाज-परिवार से मध्यस्थता मिलेगी।
पारंपरिक रूप से हुई शादियों में अड़चन आने पर घर-परिवार एवं रिश्तेदार-समाज सभी साथ देते है। दबाव देते है। किसी भी पति-पत्नी की मनमर्जी से होने वाले बिखराव को सब मिल कर रोकते है। पन्चायतें कर के मसला सुलझाते है। किन्तु जो शादी “स्वतन्त्रता” के अधिकार एवं ‘मन मिलन” के आधार पर होती है। उसमें या तो ह्त्या होगी, आत्म ह्त्या होगी या कम से कम तलाक तो होगा ही। जिसके बाद घर-परिवार एवं समाज से दूर बहिष्कृत एकाकी जीवन के स्वरुप के बारे में आप स्वयं कल्पना करें।
और यदि तलाक नहीं भी हुआ तो आजीवन कुढ़ते हुए मृत्यु को गले लगाना पडेगा।
अच्छे अच्छे शब्दों से गुम्फित लच्छेदार वाक्यों वाली दार्शनिक भाषा का प्रयोग न करते हुए इसकी ज़मीनी हकीकत को देखें। सब सामने है।
पंडित आर के राय

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