पारद रहस्य- औषधि एवं शिवलिंग के परिप्रेक्ष्य में (द्वितीय भाग)
वेद विज्ञान
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पारद रहस्य- औषधि एवं शिवलिंग के परिप्रेक्ष्य में (द्वितीय भाग)
पिछले लेख में हमने देखा कि पारद का मूल स्वरुप वायु मिश्रित (Gas Form) होता है। जो अन्यान्य आग्नेय भारी धातुओं से रासायनिक संयोग कर छिपा रहता है। और बहुत ताप-दाब से ही अलग हो पाता है। अभी ऐसा ताप-दाब दुनिया के किसी भी प्रयोगशाला में विकशित नहीं किया जा सका है जिससे इसको इसके मिश्रीतो से पूर्णतया अलग किया जा सके। ऐसा ताप-दाब केवल उग्र ज्वालामुखी (Volcano) से ही संभव है। इसीलिए ऐसे ज्वालामुखी के रास्ते पारद वाष्पीकृत होकर इसके मुख के ऊपरी सतह के चट्टानों पर जम जाता है। अमेरिका के प्रसिद्द भूगर्भ शास्त्री “रेन्सम” और “स्पर” नामक विद्वानों का मत है कि पारद सदा ज्वालामुखी आग्नेय पाषाणों के समीप पाया जाता है। “रसेन्द्र जातकम” में लिखा है कि माता सती को जब चेत हुआ। जब उन्हें ज्ञात हुआ कि भगवान शिव ने छल किलोल से अपनी तपश्चर्या साधना की निरंतरता को अखंडित रखने के लिये तथा मेरे सौन्दर्य आमंत्रण को ठुकराने के लिये वीर्य स्खलन कर दिया है। (देखे इस लेख का पूर्व भाग) तब उन्होंने उस पारद को ही अदृष्य हो जाने का शाप दे दिया था। इसीलिये पारद का जो हिस्सा जहाँ था वही भारी धातुओ में समा गया। तथा ऊपरी हिस्सा वायु रूप में परिणित हो गया। हलके धातु या शिला खण्ड उस वीर्य के तेज दहन को सम्हाल न सकने के कारण जल कर भष्म हो गये। तथा श्रेष्ठ कार्बन या हीरक (Diamond) बन गये। किन्तु भारी धातु उसमें समा गये। प्रसिद्द पाश्चात्य रसायनशास्त्री (Chemist) लाडर ब्रान्टन ने अपने “Pharmacology Therapeutics & Materia Medica) में लिखा है कि पारद में नाग (Lead), संखिया (Arsenic), स्रोंतोजन (Antimony) एवं गर्वित (टंगस्टन) विशेष रूप में पाया जाता है।
मूल रूप का पाँच एवं सातो महाद्वीपों में फ़ैल जाने वाला सात “आदि पारद” बारहों ज्योतिर्लिङ्गो में समा गया। क्योकि उस पारद का असह्य तेज धरती की कोई भी धातु सहन नहीं कर पा रही थी। कातर धरती ने माता सती के सहयोग से भगवान शिव की प्रार्थना कर तथा उनको प्रसन्न कर वरदान प्राप्त किया। और भगवान शिव ने पारद के असह्य तेज को अपने लिङ्ग स्वरुप में तिरोहित कर लिया-
त्वदैतानि श्रुत्वेश ज्योतिर्लिङ्गानि द्वादशानि।
अतुलित तेज सम्पन्नो रसेन कृज्जगदिश्वर।
विद्युद्दाम प्रभा तेजो त्रेधा विश्वावसु त्वडित।
त्रिषु लोकेषु जगद्धितायतिष्ठत जगदीश्वर।
(लिङ्ग पुराण- प्रकाश खण्ड)
शिवलिंग को घृणित मानकर उसे तिरस्कृत करने का परिणाम आदिकाल में देवता, गन्धर्व, किन्नर, यक्ष, नाग एवं विद्याधर देख चुके थे। अतः वे लोग इस शिववीर्य स्वरुप पारद को घृणित एवं तिरस्कृत करने का साहस नहीं जुटा सके। और भयभीत होकर सबने उस वीर्य स्वरुप पारद को आशीर्वाद दिया-
“सप्तव्याधि त्रिताप नेत्र शिवार्णवेन क्षयतो खलु।
धारयतो विधानेन भुक्ति मुक्ति फलं लभेत।”
अर्थात सातो व्याधि, तीनो ताप एवं दोनों भय (बारह दोष जो कुंडली में बारहों भावो में हो सकते है), यदि इस शिवार्ण या पारद को निर्धारित विधि (पारद कल्प) के अनुसार धारण किया जाय तो नष्ट हो जाता है।
यदि किसी को कुंडली में भावानुसार देव, पितृ, काल, कुल, मन, चेत एवं अङ्ग (ये सात), तथा दैहिक, दैविक एवं भौतिक (तीनो ताप) और सत्य-असत्य (निर्णय अक्षमता के दोनों दोष) उपस्थित है तो उसी अनुपात में साधार कल्पित (निर्मित) पारद यंत्र धारण करे। तथा उसी अनुपात के पारद शिवलिंग की अराधना करे। निःसंदेह इसके प्रभाव से यमपुरी समेत काल भी स्वयं कालकवलित हो जायेगा। (देखे उपशिवार्णव्)
पारदकल्प, रसेन्द्र कुतूहलम, रस समुच्चय आदि प्रामाणिक ग्रंथो में पारद निर्मित यंत्र एवं शिवलिंग के निर्माण, धारण, पूजन एवं सेवन की विधि विस्तार से बताई गई है।
अनद्यतन एवं पुरातन दोनों ही मान्यताओं से यह निर्विवाद सिद्ध एवं सत्य है कि पारद एक असीम शक्तिशाली पदार्थ है। यह कठिन से कठिन धातु को नष्ट करने की क्षमता रखता है। यहाँ तक कि यह कुलाभिज्ञान (जीवद्रव्य या अभिकेंद्रक द्रव्य या Di-Ribonucleic Acid -DNA) तक को समूल नष्ट कर सकता है। यह कठिन कज्जल को हीरा जैसे बहुमूल्य पदार्थ में परिवर्तित कर सकता है।
इसकी काठिन्य क्षमता 22 एवं अभिलेयता “तत्रान्तार्हितो तरंगो कोटिशत विनिवारयेत” अर्थात सौ करोड़ तरंग होती है।
यही कारण है कि पारद शिवलिंग की पूजा सर्वथा एवं सदा फलदायिनी कही गई है। शर्त यह है कि इसे निश्चित एवं निर्धारित तरीके से निर्मित एवं पूजित किया जाय।
ऋग्वेद के अग्नि सूक्त की प्रथम दोनों ऋचाएं यही कहती हैं-
ॐ अग्निः पूर्वेभि: ऋषिभीरीडयो नूतनै रुत स देवाँ वच्छति।”
‘शिवनिर्माल्यम” में बताया गया है कि घर में रखने के लिए “शताङ्ग प्रस्थ” अर्थात दो छटांक, पूजा के लिये “मक्षिकम षडघ्नम” अर्थात तीन छटांक तथा यंत्र के लिये “रस नेत्र वह्नि चपरे च रुद्रे भक्तिं सिद्धिम रिद्धिम वानुकार्यम।”
अर्थात रस (षड रस या 6), नेत्र अर्थात दो, वह्नि या अग्नि अर्थात तीन (अग्नि तीन होती है-जठराग्नि, बडवाग्नि एवं दावाग्नि), रूद्र (एकादश रूद्र होते है) अर्थात ग्यारह, भक्ति (नवधा भक्ति) अर्थात नौ, सिद्धि ( सिद्धियाँ आठ होती है) अर्थात आठ एवं रिद्धि अर्थात नौ के जन्म नक्षत्र के अनुपात में कुंडली के भाव में पड़े दोष निवारण हेतु धारण करना प्रशस्त होता है।
इसका और भी विवरण मेरे पिछले लेखो में सविस्तार देखा जा सकता है। जो पारद शिवलिंग के सन्दर्भ में लिखा गया है।
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