देवदार का दरख़्त- वैज्ञानिक एवं पौराणिक महत्त्व (ज्योतिष एवं चिकित्सा
वेद विज्ञान
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देवदार का दरख़्त- वैज्ञानिक एवं पौराणिक महत्त्व (ज्योतिष एवं चिकित्सा)
कहते हैं, एक बार अपनी पत्नी सत्य भामा के हठ पर भगवान श्री कृष्ण बैकुंठ से कल्पतरु उठा लाये। कल्पतरु से हीन देवलोक श्रीहीन हो गया। अनेक अनियमिततायें फैलने लगीं। तपश्चर्या एवं सत्य की मर्यादा पर विविध कुठाराघात होने लगा। सब देवताओं ने मिलकर भगवान श्रीकृष्ण से प्रार्थना की। देवताओं ने कहा कि हे भगवन! कल्पतरु के अभाव में बैकुण्ठ श्रीहीन हो गया है। यदि आप कल्पतरु को बैकुण्ठ में वापस भेज दें तो बहुत कृपा होगी। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि जहां श्री (लक्ष्मी) नहीं रहेगी वह स्थान तो श्रीहीन होगा ही। इसमें कौन सी नई बात है? तीनो श्री (लक्ष्मी -सरस्वती-काली) तो साक्षात विग्रह (सत्यभामा-रुक्मिणी-जाम्बवन्ती) रूप में धरती पर है। फिर स्वर्ग कैसे श्री युक्त हो सकता है? देवताओं ने विनय पूर्वक कहा कि हे प्रभो! और जो आप तथा इन पूज्या तीनो महादेवियों के पूजा-प्रसाद के रूप में वरदान पाकर श्री के भोग हेतु स्वर्ग आये है, उनका क्या होगा? क्या आप के तथा इन देवियों के वरदान का पराभव नहीं होगा? भगवान श्रीकृष्ण एवं देवताओं ने यह बात तीनो देवियों को बताई। सबने प्रार्थना किया कि हे देवियों! जिसने आप की पूजा अर्चना की उसे आप लोगो ने स्वर्ग का सुख भोगने का वरदान दिया. और अब आप ही स्वर्ग के सुख स्वरुप कल्पतरु को वहाँ से हटवा दी हैं।क्या इस प्रकार आप ने अपने भक्तो को स्वर्ग के सुख से विमुख-पराङ्गमुख-वँचित नहीं किया है? क्या इस प्रकार आप लोगो के वचनों का मर्यादा हनन नहीं हो रहा है? देवियाँ मान तो गईं। किन्तु उन लोगो ने देवताओं के सम्मुख एक शर्त रखा। उन्होंने कहा कि यदि कल्पतरु के समान प्रभाव वाला कोई वृक्ष बना कर धरती पर दें तो कल्पतरु वापस हो सकता है। देवता तैयार हो गये। सबने अपनी शक्ति की विशेषताओं को एक जगह एकत्रित कर जिस वृक्ष का निर्माण किया वह वृक्ष उस कल्पतरु से भी अनेक मामलो में श्रेष्ठ हो गया। स्वर्ग का कल्पतरु प्राणियों के द्वारा किये गये पुण्य को स्वयं लेकर उन्हें स्वर्गीय सुख प्रदान करता था। तथा पुन्य क्षीण हो जाने पर पुनः प्राणी को वापस मृत्यु लोक आना पड़ता था। किन्तु देवताओं का यह वृक्ष ऋद्धि-सिद्धि तो देता ही था, साथ में प्राणियों के पुण्य वर्द्धन का भी काम करता था। धरती पर लोग सहज ही निर्व्याधि होकर सुख चैन से रहने लगे। सात्विक गुणों की अभिवृद्धि से प्राणियों की आयु में भी बेतहासा वृद्धि होने लगी। और इस प्रकार ब्रह्माण्ड का नियमन चक्र असंतुलित होने लगा। सृष्टि चक्र के अन्य पहलू जैसे जन्म, उत्सर्जन, संचलन, संवर्द्धन, पोषण, संश्लेषण तथा विश्लेषण आदि की क्रियाएँ बाधित होने लगी। अब अचानक अस्तित्व के अपर पहलू को जगह बनाने में सफलता मिलने लगी। परिणाम स्वरुप देवता, गन्धर्व, यक्ष, किन्नर, सिद्ध, तपस्वी आदि की चर्या अमर्यादित होने लगी। लोगो में परजीवी होने की आदत बढ़ने लगी। इस वृक्ष के आश्रित होकर प्राणी इसके स्वभाव, प्रभाव एवं शक्ति का दुरुपयोग करते हुए हर आसान या कठिन कार्य के लिए इसी पर आश्रित होने लगे। स्वयं के शारीरिक एवं मानसिक श्रम से दूर भागने लगे। इस अनाचार एवं अव्यवस्था से घबराकर सभी लोग आशुतोष भगवान शिव के पास पहुंचे। भगवान शिव ने उन्हें याद दिलाया कि यह सब तो आप लोगो ने ही उत्पन्न किया है। यदि इसमें मैं हस्तक्षेप करता हूँ तो आप लोगो की दैवी शक्तियाँ सदा के लिए स्तंभित एवं कुंठित हो जायेगीं। देवताओं ने प्रार्थना किया कि हे जगदीश्वर! अब आप ही कोई मार्ग ढूँढिये। तब भगवान शिव ने यह कहा कि-
“यास्यत्यद्य तर्वन्शमभिगर्हितम प्रयुज्यते।
क्षयो जाते प्रभूतस्य खलु वृक्षं पुष्पान्वितम।”
अर्थात जब प्राणियों द्वारा इसके किसी भी अंश का अमर्यादित या अभिगर्हित प्रयोग होना शुरू होगा तभी से इसकी शक्ति क्षीण हो जायेगी। तथा इसमें पुष्प एवं फल लगने बंद हो जायेगें। तथा यह पृथ्वी से अपना वंशज लुप्त कर देगा। फिर भी इसकी सेवा सुश्रूषा से यदि किसी वृक्ष पर फूल लगता है तो वह वृक्ष एवं पुष्प अनेक अधिदैविक, अधिभौतिक एवं अधिदैहिक विपदाओं का सर्वनाश कर देगा।
और तब से इस वृक्ष का नाश होना शुरू हो गया। कारण यह है की लोग इसकी लकड़ी का इंधन के रूप में जलाना शुरू कर दिए। शव जलाना शुरू कर दिये। और इसमें फल-फूल लगना बंद हो गया। किन्तु यदि किसी वृक्ष में फूल लगा हो तो उसके पत्ते को ग्रन्थ के निर्देशानुसार पुष्पों से आवृत्त कर घर में रखने से दरिद्रता, रोग एवं चिंता-भय आदि सब दूर हो जाते है।
गृहम रक्षति पत्रमस्य सर्वं गृहे पुष्प सन्युतम।
तर्वांगम नरं रक्षति यत्तरुवर सविग्रहम।”
इसके जवाकार पुष्पों के पराग कण तथा इसके पत्तो का पर्णहरित (Chlorophyll & Chloroplast) क्रम विशेष से एक निश्चित एवं निर्धारित पद्धति से सजा कर रखने से ग्रह-नक्षत्र कृत विविध कष्टों एवं विपदाओं का शमन हो जाता है। देवताओं के इस वृक्ष का नाम पहले देवतरु पडा। यवनों के शासन काल में इसका नाम देव दरख़्त पडा। उसके बाद देवदार एवं कालान्तर में देवदर या देवदार पडा।
लद्दाख प्रान्त में पाए जाने वाले वन्य चिकित्सको (ज्योतिषियों) को यहाँ पर “आमची” कहा जाता है। ये आमची इस देवदार के फूलो एवं पत्तो के संयोग से एक यंत्र बनाकर देते है। जिससे अनेक कठिन रोगों का सफल एवं स्थाई इलाज़ होता है। यहाँ के मूल ज्योतिषीय मान्यता के अनुसार – जो पश्तो भाषा में लिखित “विल्लाख चासू” नामक ग्रन्थ में बताया गया है, आयसी (रेवती), मंचूक (अश्विनी), खन्श (मूल), दायला (मघा) एवं खिचास्तो (अश्लेषा) में जन्म लेने वाले व्यक्तियों पर इस वृक्ष के पत्तो का कोई प्रभाव नहीं होता। किन्तु यह स्पष्ट नहीं है कि केवल पत्तो का न होकर फूल एवं छाल का प्रभाव होता है क्या? वैसे प्रत्येक नक्षत्र-राशि वाले लोग इसे बनवा कर ले जाते है।
आज कल सरकार ने ऐसे देवदार के वृक्ष जिन पर फूल लगता है, उसे अति सुरक्षित एवं प्रतिबंधित घोषित कर रखा है। ऐसे वृक्षों की संख्या बहुत ही कम गिनी-चुनी रह गई है। आज कल इसका प्रयोग अपने उच्च सरकारी पद एवं गरिमा का लाभ उठाते हुए उच्च प्रशासनिक अधिकारी एवं मंत्री सरकारी प्रतिबंधो को ठेंगा दिखाते हुए धड़ल्ले से कर रहे है। तथा इसके फूलो की काला बाजारी जोरो पर चल रही है।
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