Menu
blogid : 6000 postid : 1259

औषधियों का गिरता स्तर : आयुर्वेद की घटती शाख

वेद विज्ञान
वेद विज्ञान
  • 497 Posts
  • 662 Comments
दुर्धर्ष तपसोपस्थे वरेण्यम देवाधिदेवेन अध्युर्पवेदः।
परिसीमितं यद् क्षरणं च देहीरायुररोज्ञं च आधि व्याधिः।
चंडो कलिः नाशं सर्वैतद विद्याहरम पंडित लुञ्ज पुञ्जो।
अस्तित्व हीनं प्रकरोति एतानि खलो खलु पापादोग्रलोभात।(अध्वर्यु शाखा 5/13)
सारांश यह कि अपने भयंकर एवं उग्र पाप पूर्ण लोभ के परम वशीभूत तथा प्रचंड कलिकाल के दुर्धर्ष प्रभाव से पराभूत कविराज (वैद्य) कहलाने वाले जनशोषक ठग लोग ज़रा-व्याधि नाशक (देवाधिदेव द्वारा प्राणियों को प्रदत्त) अनमोल प्राकृतिक औषधियों को भी इतना प्रदूषित (नकली) बना देगें कि लोगो का औषधि तो दूर इस प्राचीन अनमोल धरोहर स्वरुप औषधि विज्ञान (आयुर्वेद) से ही भरोसा उठने लगेगा।
शास्त्र का यह कथन आज अक्षरशः सत्य प्रमाणित हो रहा है।
“रसेन्द्र सार संग्रह” के निर्देश के अनुरूप “कुमुदेश्वर रस” नामक औषधि राज्यक्षमा तथा फेफड़े से सम्बंधित रोग – ज्वर, खांसी, निद्रानाश, पार्श्वशूल, ह्रदय की धड़कन आदि पर अनुपान के साथ देने से तत्काल लाभ होता है। एक लब्ध प्रतिष्ठित आयुर्वेदिक औषधि निर्माण कंपनी के इस उत्पाद का जब मैंने परिक्षण किया तो देखा कि इसके घटक द्रव्यों में से मूल द्रव्य ही इसमें नहीं पडा है।
इसके निर्माण में स्वर्ण भष्म, रससिंदूर, गंधक, मोती भष्म, टंकड़, चांदी भष्म, स्वर्ण माक्षिक भष्म – प्रत्येक एक-एक तोला लेकर मर्दन कर लवण यंत्र में रखकर पाक कर बनाया जाता है। इसमें स्वर्ण भष्म प्रबल विषाणु हन्ता का काम करता है। तथा क्षय के कीटाणुओं को मारता है। किन्तु इसमें स्वर्ण माक्षिक भष्म था ही नहीं। फिर यह किस तरह काम करेगा?
इसी प्रकार “महा वातविध्वंसन रस” नामक औषधि में रस चंद्रिका के निर्देशानुसार निर्माण में पारद, गंधक, नाग भष्म, वंग भष्म, लौह भष्म, ताम्र भष्म, अभ्रक भष्म, पीपल, टंकड़, सोंठ, काली मिर्च, वत्स नाभ, त्रिफला, त्रिकूट, चित्रकमूल, भांगरा, कूठ, निर्गुन्डी, आक का दूध, आमला तथा नीबू डाल कर बनाया जाता है। इससे समस्त वात व्याधि एवं दर्द रास्नादी घटक के साथ लेने पर समाप्त हो जाता है।
किन्तु एक प्रसिद्द औषधि निर्माण कंपनी के इस उत्पाद का परिक्षण करने पर यह देखा गया कि इसमें वंग एवं अभ्रक भष्म पडा ही नहीं है। जब कि ऊपर शीशी पर लिखा है कि उसमें यह सब पडा है।
इसी प्रकार “रसपिपरी” नामक औषधि जो बालरोग की अचूक औषधि है, उसमें सुहागा, जावित्री एवं गंधक नहीं मिला, “प्रभाकर बटी” नामक औषधि जो रक्तचाप एवं ह्रदय रोग की सर्वोत्तम औषधि है उसमें वंशलोचन एवं स्वर्णमाक्षिक भष्म था ही नहीं। जबकि ऊपर सबकी पैकिंग पर लिखा था की इन औषधियों में उपरोक्त घटक द्रव्य पड़े है।
निश्चित रूप से ऐसी औषधि कंपनिया लूटने का तो काम कर ही रही है, आयुर्वेद के मूल पर प्रहार कर उसे अविश्वसनीय बनाती चली जा रही है। या अप्रत्यक्ष रूप से एलोपैथिक औषधि निर्माण कर्ताओं से सांठ गाँठ कर आयुर्वेद को बदनाम कर समस्त विश्व में सिर्फ एलोपैथिक के ही अस्तित्व को जीवित रखना चाहती है। ताकि उन्ही के दवाओं की विक्री हो सके। इसके लिए ये आयुर्वेदिक औषधि निर्माण कम्पनियां उन एलोपैथिक कमपनियो से अच्छा खासा धन भी ले रही है। आयुर्वेद बदनाम होता है तो होवे, उन्हें नकली दवाईयों के निर्माण के पैसे तो भरपूर मिल ही रहे है।
क्या किया जाय? यदि दांत ही जीभ की रक्षा करने के बजाय उसे चोट पहुंचाने लगे।
पंडित आर के राय

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply