“चन्द्रमा मनसो जातश्च—-” (ऋग्वेद) एवं वैज्ञानिक तथ्य
वेद विज्ञान
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“चन्द्रमा मनसो जातश्च—-” (ऋग्वेद) एवं वैज्ञानिक तथ्य
हमारे वेदों में ऋग्वेद सृष्टि के लिए एक ऐसा अनमोल धरोहर है जो समस्त धर्मो से परे सशक्त ज्ञान के वास्तविक तथ्य एवं रूप को अपने अन्दर समेटे हुए है। तथा जिसे विविध ग्रन्थ अनेक तरह से अनेक रूपों में विविध दृष्टांत एवं उदाहरणों से समय समय पर विश्लेषित करने का प्रयत्न किये है। जिन्हें विविध कथाओं के माध्यम से अट्ठारहो पुराण, एक सौ आठ उपनिषद् एवं षड दर्शन के अलावा अनेक संहिता एवं साहित्य ग्रंथो ने निरूपित करने का प्रयत्न किया है। उद्भट विद्वान दयानंद सरस्वती ने भी इसे सत्यार्थ प्रकाश जैसे ग्रन्थ के माध्यम से कुछ सीमा तक विश्लेषित करने का गुरुतर प्रयत्न किया है।
किन्तु ऋग्वेद की प्रत्येक ऋचा अपने आप में अखंड किन्तु परिपूर्ण ज्ञान को समेटे हुए है। सर्वोच्च सत्ता की प्रकृष्ट कृति का कोई भी पहलू इस वेद में अनछुआ नहीं रह गया है।
इसके समस्त ग्यारहो मंडल (Chapters) जीव के पांच ज्ञानेन्द्रिय, पांच कर्मेन्द्रिय एवं एक मन के रूप में सूक्ष्म जीव से लेकर महत्तम कर्त्ता के साङ्गोपाङ्ग प्राकट्य हैं।
इसमें कोई जादू, टोना, भ्रम, मिथ्या या निराधार या प्रक्षिप्त उल्लेख नहीं है। कही कोई प्रसंग विचलन, तथ्य स्खलन या भ्रम मूलक रहस्य नहीं है। यही कारण है कि आज अतिविकसित कहे जाने वाले भारतेतर देश इस अनमोल संग्रह-कृति से चमत्कृत एवं अभिभूत है। पिछले दिनों पंद्रह मई को बरोदा ईएमई स्कूल के प्रांगण में स्थित अति विचित्र दक्षिणा मूर्ती मंदिर घूमने मेड्रिड से आये विश्व विद्यालय के भौतिक विज्ञान के एसोसियेट प्रोफ़ेसर जेनिथान एच ल्यूक्रेच महोदय ने कहा कि —
“वेद वह औषधि है जिससे किसी भी रोग का निदान संभव है। वेद वह ज्ञान है जिससे किसी भी समस्या का समाधान निकाला जा सकता है। वेद वह मार्ग है जिसके अनुसरण से किसी भी वांछित स्थान पर पहुंचा जा सकता है। वेद वह भोजन है जिससे किसी भी प्रकार की भूख शांत हो सकती है। वेद वह जल है जिससे किसी भी प्रकार की तृष्णा शांत हो सकती है। वेद वह प्रकाश है जिससे किसी भी अँधेरे को भेदा जा सकता है। वेद वह समाधान है जिससे किसी की भी कोई भी जिज्ञाशा शांत हो सकती है। वेद वह संसाधन है जिससे प्रत्येक तरह की संपदा प्राप्त की जा सकती है।—–हो सकता है वेद का संग्रह, संरक्षण एवं समादर हिन्दू सम्प्रदाय द्वारा हुआ हो या होता रहा हो, किन्तु इसमें कोई दो राय नहीं कि इसके संग्रह या अस्तित्विकरण का मुख्य उद्देश्य न केवल मानव वरन समस्त जीव समुदाय को लाभान्वित करना है।”
यद्यपि मैं जो यहाँ वर्णन प्रस्तुत करने जा रहा हूँ, वह एक अत्यंत लघुतर प्रयास है। किन्तु वर्त्तमान विज्ञान के तथ्यात्मक कसौटी पर पूर्ण है। एक प्राणी के दो रूप होते हैं- एक सूक्ष्म तथा दूसरा स्थूल। स्थूल शरीर में दो भुजाएं, दो आँख, नाक, पैर, सिर एवं पेट-पीठ आदि होते है। जिससे प्राणी अपनी भौतिक क्रियाओं को करता है। सूक्ष्म शरीर में बुद्धि, विवेक, चेतना, भावना, संवेदना आदि होते है। जिससे वह अपना काम करता है। स्थूल शरीर के समस्त अवयव प्रत्यक्षतः भौतिक आघात-प्रत्याघात के संपर्क में होते हैं। किन्तु सूक्ष्म शरीर के अवयव विविध ग्रंथिगत तरलादि द्रव्यों (Glandular Matters) से घिरे एवं इस प्रकार अत्यंत सुरक्षित एवं संरक्षित (Safe & Preserved) रहते है।
चन्द्रमा की किरणे अतिघाती तन्तु या पेंटाथियलिक टंटेकिल्स के अति विरल लगभग 00.25 तरन (प्रोविटी) या इससे कम की होती हैं। जिससे एपिडेर्मिक सिस्टम बिना किसी प्रतिरोध के इसका संश्लेषण कर लेता है। तथा मेटाबोलिक ड्यूप्लेण्डियासिस के माध्यम से केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र (Central Nerves System) अपने सम्प्रदान निलय (Diversion junction) के कवच के रूप में इसे कोशिकीय भित्ति (Cellular Wall) की तरह चिपका लेता है। कोशिका के फ्रक्टोरल सेल्यूलाइड का विलयन चन्द्रमा के पेंटाथिलिक रिप्रोवल्स के साथ बड़ी आसानी से हो जाता है। और इस प्रकार प्रत्येक ग्रंथि के मूलभूत प्रतिजीवद्रव्य या न्यूक्लिक एसिड तक इसका संवहन आसानी से हो जाता है। यही कारण है कि चन्द्रमा को “औषधिपति” भी कहा गया है। देखें कालिदास को–
इसके विपरीत अंतरिक्ष के अन्यान्य उल्का पिण्ड या धरती के अन्यान्य अवयवो के अतिघाती-प्रतिघाती तंतु (Forcing-Reinforcing Elements) 3.50 तरन (प्रोविटी) से ज्यादा के होते है। जिनके संश्लेषण के पूर्व ही Epidermic System के सतही कारक द्रव्य (मेटाथियासिनिक एल्पोरल्स) संकुचित हो जाते है। और कभी कभी इससे शारीरिक क्षति (Physical Disability) तक की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। जैसे यदि मंगल (Mars) 12 से 62 अंशो के मध्य अंतरिक्ष के सापेक्ष किसी व्यक्ति या प्राणी से अवनयन कोण बनाता हो। तथा धरती पर उस व्यक्ति की स्थिति विषुवत रेखा (Equator) के सापेक्ष मंगल से स्थिति भी वही (same) हो तो वह व्यक्ति तत्काल मृगी या Epilepsy या किसी अन्य Mental Disability का शिकार हो जाएगा। कारण यह है कि मंगल के पेंटाथियालिसिस का संश्लेषण या सिंथोसिज्म कोशिकीय प्रणाली (Cellular System) द्वारा नहीं हो पायेगा। फिर यह नाखून, नाक, कान या मुँह के द्वारा शारीर के अन्दर प्रवेश करेगा। तथा बिना किसी परिवर्तन या रासायनिक समायोजन के सीधे सीधे रक्त बिन्दुओ से घुलेगा। और कोशिकाओं के डायाफ्रामिक रेग्युलेटरी सिस्टम के माध्यम से ऊर्जानिपात ग्रंथि (Mitochondrial) भेद उत्पन्न करके सम्बंधित ज्ञान तंतु को संतुलित सम्वेदना संकेत (Signal) नहीं दे पायेगा। परिणाम स्वरुप प्राणी विक्षिप्तावस्था या पागलपन का शिकार हो जाएगा।
इस प्रकार हम देखते है कि सिवाय चन्द्रमा के और कोई अंतरिक्ष या धरती पर अवयव नहीं है जो सीधे मन को प्रभावित कर सके।
इसके अलावा आँख के रेटिनल रेब्यूक या पुतलियो से उत्सर्जित एन्टीपेंटाथियालिक ब्रोवोन्स का तरन (प्रोविटी) 12.45 से ज्यादा की होती है। बिल्ली की आँखों से यह 66.6 की प्रोविटी से उत्सर्जित होता है। जिससे सिवाय सूर्य के अन्य किसी भी पिंड या कारक के पेंटाथियालिक ब्रोवोन्स इसका प्रतिरोध नहीं कर सकते। सूर्य का पेंटाथियालिक उत्सर्जन तीन सौ से भी अधिक तरन या प्रोविटी का होता है। अतः इसका संश्लेषण आँखों से आसानी से हो जाता है। किन्तु इसमें परा वैगनी कारको (Ultraviolet Factors) की बहुतायत के कारण शरीर का अन्य अवयव इसे स्वीकार नहीं करता है। इसीलिए इसके ब्रोवोन्स का संश्लेषण आँखों से आसानी से होता है। पुतलियो का रेटिनल रिब्युक सूर्य के violation को परावर्तित करने में सर्वथा सक्षम है। यदि आँख रोग ग्रसित नहीं है।
इस अत्यंत सीमित ज्ञान एवं आधुनिक वैज्ञानिक संसाधनों की सीमित खोज से ही उपर्युक्त “वैदिक” सूक्त ““चन्द्रमा मनसो जातश्च–” की सिद्धि हो जाती है। यदि प्रयत्न पूर्वक निष्ठा एवं लगन के साथ इसका गहराई से मनन, चिंतन, विश्लेषण एवं ऊहापोह किया जाय तो और भी आश्चर्यजनक लगने वाली समस्त प्राणी जगत के लिए लाभकर, हितकर एवं सुखकर उपलब्धियां हस्तगत हो सकती हैं।
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