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राहु, शनि एवं मंगल कृत रोग – वात व्याधि (आमवात, गठिया आदि) (छत्तीस गढ़ की एक लघु यात्रा)

वेद विज्ञान
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राहु, शनि एवं मंगल कृत रोग – वात व्याधि (आमवात, गठिया आदि)
(छत्तीस गढ़ की एक लघु यात्रा)
व्योमष्कूपवन्ध तमसो अहिर्जातः रविजः सवक्रो।
सैरन्ध्रि ध्रिग्निष्पर्युह अपराजितो भवे दशम विलग्ने। (भैषज्य निरूपण-वात प्रकरण अध्याय)
शनि, मंगल एवं राहु यदि जन्मांग तथा दशम कुंडली में दो-एक के क्रम में किसी भाव में षष्ठेश या अष्टमेश से सम्बन्ध बनायें, और त्रिषडायेश में से कोई भी एक लग्नेश से बलवान हो तो जटिल वात रोग होता है। राहु से कफवात, शनि से पित्तवात एवं मंगल से आमवात होता है।
इसे ही आचार्य शुक्रवल्लभ एवं आचार्य रत्नाकर ने भी अपनी टीकाओं में थोड़े अंतर से लिखा है।
किन्तु निगन्ध भट्ट एवं ऋषि उदच्यु पाद ने लिखा है कि यदि किसी भी तरह ये तीनो जन्मांग एवं त्रिशांश में किसी भी भाव में सम्बन्ध बनाते है तो वह वातव्याधि असाध्य होता है। अर्थात उसकी चिकित्सा नहीं है। ईश प्रार्थना ही एकमात्र उपाय है। उदाच्यु पाद का कथन अब तक के अनुभव में सत्य प्रमाणित हुआ है।
आचार्य ऋतुसेन ने इसे इस प्रकार स्पष्ट किया है। यदि लग्न चर राशि हो (मेष, कर्क, तुला एवं मकर) हो तथा मंगल जन्मांग में 1, 2, 3. 12 भावो में या त्रिशांश में 8, 9,10,11 भावो में हो तो संधिवात (जोड़ो का दर्द) होता है। यदि स्थिर (वृष, सिंह, वृश्चिक एवं कुम्भ) राशि का लग्न है तथा उपरोक्त स्थानों में मंगल है तो मॉसपेशियों का दर्द, एवं यदि लग्न द्विस्वभाव राशि (मिथुन, कन्या, धनु एवं मीन) का हो तो रक्त-पित्त वात (कुष्ठ आदि) रोग होता है।
इसी प्रकार यदि शनि उपरोक्त प्रकार से जन्मांग में 4, 5, 6 एवं 7 भाव में तथा त्रिशांश में 12, 1, 2, एवं 3 भावो में हो तो उपर्युक्त रोग होते है। तथा यदि राहु उपरोक्त चर, स्थिर एवं द्विस्वभाव के प्रकार से जन्मांग में 8, 9, 10 एवं 11 भाव में तथा त्रिशांश में 4, 5, 6 एवं 7 भाव में हो तो उपर्युक्त रोग होते है।
किन्तु यदि किसी भी तरह इनकी युति – अर्थात राहु के साथ शनि या मंगल की युति उपर्युक्त स्थानों में हो जाती है तो रोग असाध्य हो जाता है।
पिछले दिनों मैं छुट्टी के दौरान छत्तीसगढ़ प्रांत के रायपुर जिले में रायपुर रेलवे स्टेशन से लगभग 36 किलोमीटर पशिमोत्तर दिशा में तितिरा गाँव में गया हुआ था। साथ में संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी के सेवानिवृत्त रसौषधि विभाग के पूर्व प्रमुख पंडित राजाराम पाण्डेय भी थे। चार लोग और भी थे। साथ में सशस्त्र सुरक्षा बल की एक टुकड़ी थी। वास्तव में यह एक अत्यंत बीहड़ स्थान है। घने एवं अत्यंत घातक कुश (दर्भ), निवारू, बघनख एवं भाँवर के जंगल से होकर गुजरना पड़ता है। उसके बाद टेढ़ी मेढ़ी ऊबड़ खाबड़ पहाडियों का सिलसिला प्रारम्भ होता है। दूर दूर कही पहाडियों में कुछ एक कच्चे घर दिखाई दे जाते है। हिंसक जानवरों की तो भरमार ही है। कोई साधन वहां जाने के लिए नहीं है। या तो आदमी पैदल जाएगा या फिर हेलीकाप्टर से ही जाया जा सकता है।
वास्तव में हमें महर्षि दारभुक के आश्रम पर जाना था। यह आश्रम अब मात्र भग्नावशेष ही रह गया है। कोई निशान नहीं रह गया है। हम केवल आदिवासी स्थानीय निवासियों के चिन्हित स्थान के द्वारा ही जान पाए कि वह स्थान महर्षि दारभुक का तपस्थान था। उस स्थान से नीचे एक बहुत गहरा नाला या झरना बहता है। यह नाला झाड़ियो से ढका है। तत्काल दिखाई नहीं देता कि वहां कोई इतना खतरनाक नाला भी है। उस नाले के किनारे ऋषि दारभुक द्वारा सरपुंखा (Tephrosiapurpurea), रोहितक (Tecomella Undulata), एवं चित्रकमूल (Plumbago Zeylanica) के पौधे कभी लगाए गए थे। जो अब फैलकर दूर तक घनी झाड़ियो का रूप ले चुके थे। हमें यह पता करना था कि ये वनस्पतियाँ क्या मैदानी इलाको में वनस्पति उद्यानों में कृत्रिम रूप से उगाई जाने वाली वनस्पतियो के सदृश प्रभाव-गुण वाली है या इनमें अंतर है। और वास्तव में बहुत अंतर दिखाई दिया। सरपुंखा के रस में मेलोथियाजिन एवं फ्युराक्सोहाइड्रोफास्फाइड डालते ही वह रस सख्त चट्टान बन गया जब कि मैदानी इलाको के सरपुंखा के रस में डालने पर वह रस हरा से मात्र गहरा पीला होकर रह गया। अर्थात मैदानी सर्पुन्खा में एसिटिक सैलिथिलिक एसिड की जगह मेलोफिनाक्सिलिन ज्यादा पाया गया। साथ में गए लोग वहां के स्थानीय निवासियों की सहायता से कुछ वनस्पतियाँ संगृहीत कर के लाये।
जो वहां एक वनस्पति दिखाई दी वह निश्चित रूप से रास्ना (Pluchea Lanceolata) की ही प्रतिरूप थी। किन्तु उसका गुण बहुत ही उग्र था। उसके पत्तो को हाथ में थोड़ा मसलकर उसके रस को घुटनों पर लगाते ही चलने की थकान छू मंतर हो गई। किन्तु हाथ कई घंटो तक निश्चेत सुन्न पडा रहा।
उस स्थान की रखवाली आज दुन्दुभि महतो करते है। उन्हें हनुमान चालीसा याद है तथा उसी का वह पाठ करते है। एक मूर्ती उन्होंने रखी है। पता नहीं वह किस देवी-देवता की मूर्ती है। किन्तु वह बताते है कि वह मूर्ती दर्भायन ऋषि की है। उन्होंने ही अपनी सुरक्षा की दृष्टि से यह उग्र चुभने वाली झाड़ियो का घना जंगल लगाया था। इसीलिए इनका नाम उनके नाम दारभुक के अनुसार दर्भ पड़ गया। और इस पूरे प्रांत का नाम विदर्भ पडा। यह विदर्भ आज महाराष्ट्र का एक हिस्सा है।
कहते हैं कि विवाह के बाद गठिया रोग के कारण अपँग बन कर रह गए थे। और उनकी पत्नी रसनीता ने उन्हें छोड़ दिया। और ऋषि ने क्षुब्ध होकर इस घनघोर जंगल का आश्रय लिया। उन्होंने जिस वनस्पति औषधि का निर्माण कर अपने रोग की चिकित्सा की उसका नाम उनकी पत्नी “रसनीता” के नाम पर रास्ना पडा। उस आश्रम की देख रेख करने वाले दुन्दुभि महतो यह कहानी बताते हैं। उनके पास एक बहुत पुरानी पुस्तक है। जिसके बारे में उन्हें खुद को नहीं पता है वह किस विषय की पुस्तक है। कहते है जो भी इस स्थान का कार्य भार संभालता है उसे इसकी भी देख रेख करनी पड़ती है। उस पुस्तक के आगे एवं पीछे के अनेक पृष्ठ नहीं है। जो हैं वे भी बेतरतीब हैं। ये किसी पेड़ की छाल पर लिखे गए है। भाषा संस्कृत है। बहुत क्लिष्ट है । किन्तु टीका किसी सुदीर्घा नाम के व्यक्ति द्वारा की गई है। शायद पुस्तक का नाम “भैषज्य विलास” है। क्योकि अन्दर के कई पृष्ठों पर इस नाम का कई बार उल्लेख किया गया है। लगता है यह किसी उद्भट विद्वान की कृति है। जिसका त्रिस्कन्ध ज्योतिष एवं आयुर्वेद पर समान एवं उच्च अध्ययन अधिकार था। क्योकि जिस तरह आयुर्वेद एवं ज्योतिष का सम्बन्ध उसमें दर्शाया गया है वह कम से कम आज के आधुनिक ज्योतिषी (जिसमें मैं स्वयं भी शामिल हूँ) एवं वैद्य लोगो के लिए नितांत असंभव है। किन्तु उस पुस्तक के पृष्ठों में कोई क्रम नहीं है। इसलिए यह बेकार सी हो गई है। प्रत्येक अध्याय के अंत में ऋषि दारभुक के प्रति सम्यक देवत्व भाव दर्शाया गया है। जिससे लगता है वह रचनाकार ऋषि दारभुक का शिष्य था।
उस पुस्तक के एक उदाहरण से ही मैं चमत्कृत हो गया।
ऊपर जो प्रथम संस्कृत श्लोक दिया गया है, यह उसी पुस्तक का है। जिसे आचार्य हेमगिरी, रत्नधर शर्मा, पंडित रामविलास झा, आचार्य वीरसेन तथा आचार्य नागेश्वर दत्त ने परिभाषित कर रस चिकित्सा विज्ञान में वात व्याधि चिकित्सा में एक नया आयाम जोड़ा है।
अस्तु, वात, पित्त एवं कफ के क्रम में राहु, शनि एवं मंगल के भेद से आयुर्वेदिक औषधियों में भी गठिया, आमवात, संधिवात, सियाटिका आदि के लिए अलग अलग वनस्पतियो का उल्लेख है। जैसे रास्ना, गोखरू, चित्रकमूल, हरसिंगार, सुरजान (Colchicum Luteum), अशगंध (Withania Somnifera), चव्य, इन्द्रजव, पाठा, वायविडंग, गजपीपल, कुटकी, अतीस, भारंगी मूल, मूर्वा, वच एवं गिलोय। ये सब वनस्पतिया है। किन्तु इनमें से प्रत्येक ग्रह के लिए अलग अलग संयोजन है। केवल प्रतिनिधि वनस्पतियो के ही संयोग से किसी वात विशेष की चिकित्सा हो सकती है। यथा राहु कृत वात दोष में भारंगी मूल, वच एवं मूर्वा नहीं डाल सकते। मंगल कृत दोष में इनके साथ त्रिवंग भष्म, नाग भष्म, रौप्य भष्म एवं अभ्रक भष्म मिलाना ही पडेगा। इस प्रकार पहले निशानदेही कर लें कि व्याधि के कारक तथ्य क्या है। उसके अनुरूप वनस्पति औषधियों का मिश्रण कर उपयोग करें।
वर्त्तमान समय में आयुर्वेदिक औषधि निर्माता इन सबको एक साथ मिला देते हैं ताकि चाहे कोई भी वात रोग क्यों न हो, सब में एक ही औषधि दी जा सके। इस प्रकार उस औषधि का मूल गुण धर्म समाप्त हो जाता है।
पंडित आर के राय
Email- khojiduniya@gmail.com

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