यद्यपि जीवन के अनेक पहलू होते है. तथा किसी पहलू से सम्बंधित किसी प्रयत्न में निरंतर असफलता एवं हानि मिलती है तो लगातार इस होने वाली असफलता से व्यक्ति घन घोर निराशा में डूब जाता है. किन्तु कुंडली का आठवाँ भाव जीवन के प्रत्येक भाव को प्रभावित करता है. सिद्धांत शिरोमणि के भौगोलिक ज्यामितीय अध्याय में यह स्पष्ट किया गया है कि जन्माङ्ग गोल के उभयाश्रित जीवा या वृत्त खण्ड को 210 से 240 अंशो तक निर्धारित किया गया है. किन्तु जिस तरह धरती अपने ध्रुवो पर चिपटी हुई प्राच्य कोण या पूर्व दिशा में हलकी सी झुकी (Tilt) है. जिससे सामान्यतः तो वृत्त की जीवा या व्यास (Radius) 180 अंश से 210 अंश होती है. किन्तु इस झुकाव के कारण अंतरिक्ष के सापेक्ष यह गोलार्द्ध आगे खिसक कर 210 अंशो से 240 अंशो के मध्य सिद्धांत गणित से सिद्ध होता है. यह आठवाँ भाव झुके होने के कारण उभयावलम्बी या पूर्वापर प्रभाव दिखाता है. तात्पर्य यह कि यह आठवाँ भाव सिद्धांत गणित के अनुसार अपने आगे वाले तथा पीछे वाले निर्दिष्ट भावो को प्रभावित करता है. चूंकि यह भाव सीधा नहीं है अतः इससे परावर्तित (Reflected) होने वाली किरणे भी शरीर या धरती पर अनियमित, अव्यवस्थित, असंतुलित एवं व्युत्क्रमित क्षयकारी प्रभाव डालती है.
इस भाव के द्वारा इतना उग्र विपरीत प्रभाव डाला जाता है कि आदमी टूट जाता है. एवं हताशा में डूब जाता है. तथा कभी कभी तो ऐसा भी देखने में आया है कि आदमी आत्महत्या जैसा जघन्य पाप कृत्य भी कर बैठता है.
किन्तु ऐसा नहीं है कि आठवाँ भाव हर हालत में विपरीत प्रभाव उत्सर्जित करे. यदि आठवें भाव में धनु, मीन या तुला राशि हो तथा उसमें शनि 10 अंशो से कम में बैठा है. तो असफलता नहीं मिलाती और व्यक्ति निराश या हताश नहीं हो पाता है. किन्तु यह बहुत कम होता है. वर्तमान जनसंख्या एवं सैद्धांतिक आंकड़ो के अनुरूप इसकी संख्या एक लाख में एक होती है. अर्थात एक लाख व्यक्तियों में कोई एक ऐसा होगा जिसे आठवें भाव की यह अवस्था मिले। अर्थात उसे आठवें भाव का कुप्रभाव न मिले। अन्यथा आठवाँ भाव सदा अनिष्ट प्रभाव देने वाला होता है.
कुंडली में कुछ एक ग्रह ऐसे भी बैठ जाते है जिससे इस आठवें भाव का कुफल समाप्त हो जाता है. जैसे आठवें भाव में वृश्चिक राशि हो तथा लग्नेश मंगल लग्न में सूर्य के साथ 18 से ज्यादा अंशो की दूरी पर हो तो इस आठवें भाव से कुफल के बजाय सुफल मिलते है. यदि धनु लग्न हो, तथा आठवें भाव में गुरु उदित हो तथा चन्द्रमा छठे भाव में निर्बल हो तो आठवें भाव के सभी अच्छे फल मिलते हैं. ऐसे भी अन्य ग्रहो की कुछ विशेष अवस्थाएं होती है जिससे आठवें भाव का अशुभ फल समाप्त हो जाता है.
किन्तु ऐसी अवस्थाएं बहुत कम मिलती हैं.
केन्द्राधिपति के अलावा चाहे ग्रह पांचवें या नवें भाव का ही स्वामी क्यों न हो यदि बाल या मृत अवस्था में आठवें भाव में बैठा है तो सदा ही रोग देगा। यदि आठवें भाव में कोई ग्रह न हो तथा मिथुन राशि का स्वामी दशवें एवं मंगल पांचवें हो तो व्यक्ति जीवन से हताश हो जाता है. यदि वृषभ राशि का सूर्य दूसरे भाव में हो तो चाहे चन्द्रमा उच्च का होकर ही शुक्र के साथ दूसरे भाव में क्यों न बैठा हो, उसे नौकरी-व्यवसाय, परिवार एवं धन संपदा हर तरफ से निराशा एवं हताशा प्राप्त होती है.
अष्टमेश स्वयं लग्नेश ही क्यों न हो यदि आठवें भाव में राहु-शनि के साथ या इनके मध्य में हो तो वह व्यक्ति अष्टमेश की षोडशोत्तरी महादशा में आत्महत्या कर लेता है. यह अनेक उदाहरणों में प्रत्यक्ष देखने को मिला है. नारद आख्यायिका में भगवान शिव ने मुदगल मुनि से यह कहा है कि वसुंधरा के कुब्जार्दित पृष्ठ की दृष्टि या योग-सम्बन्ध से उत्पन्न विक्षोभ मेरे कंठ में अवस्थित हलाहल से भी ज्यादा घातक है. वसुंधरा (धरती) का कुब्ज या कुबडापन या झुका हुआ भाग यदि कोई कुरेदता है या उस पर चढ़ता उतरता या बैठता है तो पृथ्वी को असह्य पीड़ा होती है. पृथ्वी की प्रार्थना पर मैंने उसे यह वरदान दे रखा है कि यदि तुम्हारे कूबड़ वाले रोगी भाग को कोई पीड़ा पहुंचाता है तो उसे जीते जी ही भयंकर नारकीय दुःख भोगना पडेगा। इस प्रकार कुंडली का यह झुका हुआ भाग अर्थात कुबड़ा भाग या आठवाँ भाव सदा ही पीड़ा कारक होता है.
किन्तु यदि माता भुवनेश्वरी मणिद्वीप वासिनी भगवती दुर्गा की त्रिपाद आहुति की जाय तो इससे मुक्ति मिल सकती है. इसका उल्लेख श्रीमद्देवी भागवत महापुराण के पंचम सकन्ध में विस्तार पूर्वक बताया गया है. (देखें चौखम्भा प्रकाशन वाराणसी द्वारा प्रकाशित मूल श्रीमद्देवीभागवत महापुराण)
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