त्रिदोष नाशक – पारद शिवलिंग, दक्षिणावर्ती शँख एवं शालिग्राम
वेद विज्ञान
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त्रिदोष नाशक – पारद शिवलिंग, दक्षिणावर्ती शँख एवं शालिग्राम
इस महायोग की समस्त प्रामाणिक मूल ग्रंथो में भूरि भूरि प्रशंसा की गई है. जिस घर में शालिग्राम की बटिया, पारे का बना शिवलिंग एवं दक्षिणावर्ती शँख रहता है वहाँ कोई भी दुःख, कष्ट, बाधा, भय या बंधन नहीं रह पाता है. “वृहद् श्री समुच्चय” में आचार्य भद्रक मार्तंड ने बताया है कि मूल ब्रह्म के अखण्ड स्वरुप का बोधात्मक प्रतिबिंबित मूर्त रूप धराधाम पर कलिकाल के देह धारियों के लिये महान शोक-चिंता-कष्ट एवं असह्य दुःख-पीड़ा के उग्र महासागर से सकुशल पार उतार देने वाला समर्थ नौका है. गर्ग, नारद, ब्रह्मभट्ट, उत्पलादि ऋषियों ने भी इस सम्बन्ध की महत्ता को एकमत से स्वीकार किया है. नारदीय संहिता (कचौड़ी गली वाराणसी से प्रकाशित) में लिखा है-
“न हि किञ्चिदाध्यवद्विभेदो पाषाणोंप्रस्थ त्रिगुणात्मकम च.
अर्थात पारद के विधि निर्मित शिवलिंग, दोषरहित नारायण शँख (दक्षिणावर्ती शँख) एवं पृथ्वी के आकार का निर्दोष शालिग्राम जहाँ रहते है वहाँ से समस्त दुःख, विघ्न, भय, दरिद्रता एवं भय वन्धन आदि उसी तरह नष्ट हो जाते है जैसे गर्म हवा का झोंका ओस (कुहरा) के कणों का नाश कर देता है. नैरुज्य रत्नावली, भैषज्य रत्नावली, आयुर्वेद भाष्यम तथा आयुरोपाख्यानम आदि प्रामाणिक ग्रंथो में इसकी औषधीय महत्ता को भी इसी तरह महिमा मंडित किया है.
पारद शिवलिंग के अद्भुत प्रभाव को आज का आधुनिक चिकत्सा विज्ञान एक चमत्कार मान ही चुका है. दक्षिणावर्ती शँख के निर्माण में भी प्लुतवर्मी (शँख या घोंघे के अन्दर रहने वाला) कीड़ा जब विपरीत क्रम में सुधांशु (Calcium) का संग्रह करते हुए अपने ऊपर लेप चढ़ाता है तो उसके लालाग्रंथि (Saline Gland) से भारुष्ण्य द्रव (प्रोटोलिनिक इक्वीथायरस लैक्टोमिन) उत्सर्जित होता है. इसके अलावा इस वर्मी कीड़ा के व्युत्क्रमानुपाती सञ्चलन से उत्सर्जित होने वाला आतशक द्रव्य (सायनो डीराल्डीहाइड) भी नहीं निकल पाता। जिससे भारुष्ण्य द्रव्य का अपघटन या टूट कर विषैला होना रुक जाता है. यह अमोघ द्रव्य विविध रक्त कणिकाओं के साथ अत्यंत ज़टिल रासायनिक अभिक्रिया से पौरुष्ण्य यौगिक (एक तरह का प्लाज्मा) बनाता है. जो मूल नाभिकीय Nuclear Fluid) द्रव की संवेदनशीलता को चौदह करोड़ गुना बढ़ा देता है.
शालिग्राम की बटिया नर्मदा की सर्वोत्तम या असली मानी जाती है. कहा गया है कि शालिग्राम की बटिया से स्पर्श पाते ही तुलसी का पत्ता आघुर्णक राक्षस का भी तत्क्षण संहार कर डालने में समर्थ हो जाता है. आघूर्णक राक्षस की कथा “वृंदा-शँख उद्भव” में सविस्तार बताई गई है. आघूर्णक प्राणियों का कंठ या गला ही दबा देता था. और प्राणी दम घुटने के कारण मर जाता था. वही गले की बिमारी या खाँसी आदि दोष को दूर करने के लिए तुलसी का पत्ता लोग प्रयोग आज भी बहुत आशा एवं श्रद्धा से करते है.
यद्यपि मैं पौराणिक एवं वैदिक प्रत्येक तथ्यों का वर्तमान वैज्ञानिक विश्लेषण स्वरुप प्रकट करने या व्याख्या देने में असमर्थ हूँ. किन्तु इसमें कोई संदेह नहीं कि आदि कालीन विज्ञान आज के विज्ञान से अरबो-खरबो गुना या उससे भी ज्यादा विकशित था. धीरे धीरे आधुनिक विज्ञान उसकी सच्चाई एवं प्रामाणिकता को परखता एवं चकित होता चला जा रहा है.
यह विज्ञान प्रमाणित है कि नर्मदा के जल में आज भी आंशिक ही सही दृगरन्जक अवलेह (आफ़्थोरिमेट्री लोसन) यत्र तत्र प्राप्य है. यह तुलसी के पत्ते में पाये जाने वाले ज्योतिरार्णव (रेसिफिलिक क्लोरोप्लास्ट) की विलेयता को त्वरित श्रींखलाबद्ध गति प्रदान करता है. और आँखों की पुतली (Pupil) के अक्ष विन्दु (फोकल लेंथ) को “क्रोशम पात निपातितम” अर्थात कई कोस की दूरी तक के अँधेरे में देखने में सक्षम बना देता है.
यह निर्विवाद सत्य है कि इन तीनो का – शालिग्राम, पारद शिवलिंग एवं दक्षिणावर्ती शँख, एकत्र संग्रह अनेक उपद्रवो को शान्त करने में सक्षम है. राज्यक्षमा, रक्तार्बुद, कर्कट, ग्रंथि भंजन, अपष्मार आदि दुःसाध्य या असाध्य व्याधियो का संशमन, कुंडली के विषघात, कालसर्प, देवदोष, केमद्रुम, दुरुधरा, महापातक आदि अनेक दोषों-दुर्योगो का नाश, संतान बाधा, दरिद्रता, हताशा-निराशा आदि अनेक पीडाओं को समाप्त करने में सर्व समर्थ यह त्रिसंग्रह प्रत्येक प्राणी को यत्न पूर्वक अवश्य ही करना चाहिये। विशेषतया कलिकाल में तो इसे अवश्य ही घर में रखना चाहिये।
यद्यपि ग्रह नारायणी, वृद्ध यवन विधान, ग्रहार्णव तथा ग्रह गाङ्गेयम आदि में कुछ एक अवस्थाओं में इसे निष्क्रिय बताया गया है. यथा जिस घर में अपने से श्रेष्ठ कुल या जाति की लड़की को व्याह कर लाया गया हो, श्मशान में निर्मित घर हो, घर में बधिक कार्य होता हो उस घर में इसे कदापि संग्रह न करे. तथा दोषपूर्ण या अशुद्ध पारद शिवलिंग, शालिग्राम एवं दक्षिणावर्ती शंख घर में न रखे.
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