हठ वश संकट सब सहे, गालब नहुष नरेश- कर्म काण्ड विमुख मनुष्य का चतुर्दिक पतन अवश्यम्भावी है.
वेद विज्ञान
497 Posts
662 Comments
हठ वश संकट सब सहे, गालब नहुष नरेश- कर्म काण्ड विमुख मनुष्य का चतुर्दिक पतन अवश्यम्भावी है.
“उद्दंडता या उच्छ्रिङ्खलता पूर्वक धार्मिक परम्परा से पराङ्गमुख होना स्वयं के साथ अपनी आने वाली समस्त पीढ़ी का आर्थिक, पारिवारिक, नैतिक, चारित्रिक एवं बौद्धिक विनाश का प्रथम एवं अंतिम लक्षण है.”—ऋषि ऊर्ध्वजित
“साधु अभिगर्हित नीति एवं सिद्धान्तों पर सृजित समाज में प्रतिष्ठा के लोभ के कारण वेद को प्रकाशमय बनाने वाले पौराणिक क्रिया कलापों की निन्दा एवं अवहेलना करने वाले प्राणी निश्चित ही मानव घाती है.”—नारायण तपकीर्ति
“मोह, अज्ञानता या हठ वश धार्मिक नियमो की अनदेखी करने वाले नर से अधिक पापी एवं कष्टी वे मनुष्य है जो दूसरो की भी बुद्धि को भ्रमित कर उन्हें धार्मिक कार्यो से विरत करते है.”—-सिद्धाचार्य
“यदि कोई व्यक्ति धार्मिक कृत्यों का खण्डन, निंदा या विरोध करता है तो निश्चित रूप से वह प्रतिकूल विधाता के भयंकर दण्ड का भागी बन चुका है. तथा प्रमाद या पागलपन में कीट-पतंगों का जीवन जी रहा है.”—-ऋषि अंशुमान
“अपने पितरों के प्रति सांसारिक एवं आध्यात्मिक श्रद्धा के रूप में तर्पण न कर अन्य क्रिया कलापों से सुख एवं शान्ति की इच्छा करना वैसे ही निष्फल है जैसे छिद्र युक्त सोने के कलश में डाला जाने वाला दूध.”—-श्रीमद्भागवत महापुराण
“पितरो का श्राद्ध-तर्पण न करने वाला अपनी सन्तति को यह अप्रत्यक्ष रूप से शिक्षा देता है कि पितरो के प्रति कृतज्ञता या उनसे लगाव, स्नेह एवं सम्मान एक निरर्थक कार्य है. और संतान अपने पिता के जीवित रहते ही उससे या पिता के प्रति अपने उत्तरदायित्व से दूर चली जाती है. अतः पितरो के प्रति श्रद्धा-सम्मान निवेदन न करने वाले मनुष्य को कदापि अपने पुत्र-पुत्रियों से किसी सुख-सहयोग की कामना नहीं करनी चाहिये।”—-पण्डित आर के राय
पितृ तर्पण एवं श्राद्ध आदि क्रिया एक पूर्ण पूजा है. इसे करने से शेष पूजा-अनुष्ठान्न वैसे ही पूर्णता को प्राप्त होते है जैसे किसी मन्त्र के पूर्व ॐ का उच्चारण करना। प्रत्येक पुराण एवं धार्मिक ग्रंथो में यह आवश्यक रूप से बताया गया है कि किसी भी धार्मिक अनुष्ठान्न को आरम्भ करने से पूर्व पितरो को भली भाँति पूजित कर उनसे अनुमति लेना परम आवश्यक है. श्रीमद्देवीभागवत महापुराण में यह स्पष्ट रूप से बताया गया है कि किसी भी व्यक्ति का किसी देवी-देवता के प्रति निवेदित पूजन-अर्चन आदि उनके पितरो के माध्यम से ही विहित देवी-देवताओं तक पहुँचता है.
यद्यपि आत्मा किसी प्राणी के किसी क्रिया कलाप में लिप्त नहीं होती, किन्तु उसके प्रत्येक आचार व्यवहार की मूक साक्षी होती है. और शरीर निर्माण के आवश्यक पञ्चमहाभूत (क्षिति-अर्थात पार्थिव खनिज लवण, जल, पावक-अग्नि (जठराग्नि), गगन-पाषाण (कठोर पत्थर-हड्डी या सुधांशु), समीर (प्राण,अपान, व्यान, सामान एवं उदान वायु) के सम्मिलन एवं बिलगाव अर्थात जन्म एवं मृत्यु के अथेति (आरम्भ एवं समापन) पर उस शरीर के द्वारा हुए भले बुरे कर्मो की सूची प्रस्तुत कर देती है. और ये पञ्चमहाभूत उसी अनुपात में परस्पर संलग्न होकर मूर्त रूप (शरीर) धारण कर अपने जीवन की चर्या पूरी करते है. राज महल प्रकाशन बड़ोदरा से प्रकाशित आचार्य यज्ञदत्त की “विभावरी” टीका वाला गरुण पुराण इस सन्दर्भ में अवश्य पठनीय है. सारे सन्देह दूर हो जाते है.
जिस प्रकार पानी बनने लिये 2 अणु आक्सिज़न एवं एक अणु हाइड्रोज़न का होना अनिवार्य है. इसमें थोड़ा भी अंतर होने पर पानी नहीं बन पायेगा। उसी प्रकार एक निश्चित अनुपात में इन पञ्चमहाभूतो के प्रत्येक के मिलने से ही शरीर का निर्माण होता है. इनमें से यदि किसी भी एक की मात्रा में विचलन या अन्तर आयेगा तो विकृत शरीर का निर्माण (बाह्य एवं आन्तरिक दोनों तरह से) होगा। ये पाँचो महाभूत अदृष्य रूप से अंतरिक्ष में संचरण करते रहते है. तथा उन्ही के अंशो से उनके कुल खानदान की सन्तति – जिसे आज की वर्तमान वैज्ञानिक भाषा में डीएनए (डी राइबोन्यूक्लिक एसिड- जीव द्रव्य) कहा जाता है, सदा आवेशित रहती है. इसी आधार पर किसी प्राणी के किसी निश्चित कुल या व्यक्ति से सम्बन्ध निर्धारित किये जाते है. हम भी अपने पितरो का श्राद्ध तर्पण आदि इसी प्रकार उन्हें चिन्हित कर अर्थात अपने कुल देवताओं को प्रदान करते है.
इस प्रकार हम विविध द्रव्यों (तिल, अक्षत, मधु, दूध, दही, घी, कुश, गुड आदि) के एक निश्चित (शास्त्र निर्धारित विधान) प्रकार (रासायनिक एवं जैविक मात्रा एवं प्रकार) से हम उन पञ्च महाभूतो का अभिसिञ्चन (श्राद्ध-तर्पण आदि) कर उन्हें अपने अनुकूल बनाते है. जिससे हमें विविध रोग, अनिश्चितता, विभ्रम, भय एवं बुद्धि हीनता से मुक्ति मिलती है.
त्रिकालदर्शी महान वैज्ञानिक प्राचीन ऋषि मुनियों ने प्रत्येक धार्मिक कृत्य को निश्चित ठोस एवं प्रामाणिक सुव्यवस्थित एवं संतुलित वैज्ञानिक आधार पर युग युगांतर के अनुभव एवं शोध के उपरांत प्राणि मात्र के बहुमुखी विकाश एवं भलाई के लिए प्रणीत एवं प्रचलित किया। अब यदि हम अपनी कराल कलिकाल के कठोर कुठाराघात से ग्रसित एवं जर्जर क्षुद्र बुद्धि से उसे नहीं जान सकते तो इसमें हमारे दुर्भाग्य के अलावा और कुछ नहीं है. और उससे भी ज्यादा परम पतित साक्षात नरक स्वरुप वह मनुष्य है जो स्वयं तो इससे अनभिग्य रहकर इसका लाभ नहीं ही ले रहा है, इसके विपरीत दूसरो को भी समाज सुधार के नाम पर दिग्भ्रमित कर अन्य भोले भाले श्रद्धालुओं को प्रवंचित कर रहा है. एवं समस्त मानव समाज को गुमराह कर भयंकर नरक में धकेल रहा है.
This website uses cookie or similar technologies, to enhance your browsing experience and provide personalised recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy. OK
Read Comments