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आतंकवादियों, डाकुओं, भष्ट बेइमान कुटिल व्यभिचारियो की संताने अपने ऐसे पूर्वजो के प्रति कैसे श्रद्धा रखें?

वेद विज्ञान
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आतंकवादियों, डाकुओं, भष्ट बेइमान कुटिल व्यभिचारियो की संताने अपने ऐसे पूर्वजो के प्रति कैसे श्रद्धा रखें?
शरीर पर तो दबाव डालकर जबरदस्ती कोई काम कराया जा सकता है. किन्तु मन पर कोई दबाव नहीं डाल सकता। श्रद्धा, विश्वास, प्रेम, स्नेह आदि भावनाएं आतंरिक ग्रंथियों एवं विविध ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा संग्रहित सम्वेदनाओं एवं सूचनाओं के आधार पर मन द्वारा उत्पन्न की जाती हैं.
छोटा बच्चा जब बिलकुल ही अबोध होता है. उसे विद्यालय या शिक्षा के बारे में कुछ भी पता नहीं होता है. तो सबसे पहले वह जब अपने अन्य समवयस्क बच्चो को झोला पटरी आदि लिये देखता है. तो उसके भी मन में कंधे पर झोला पटरी लटकाने की उत्सुकता, जिज्ञासा एवं बलवती इच्छा उत्पन्न होती है. उसके बाद वह अन्य बालको की तरह विद्यालय जाने की जिद करता है. फिर वह धीरे धीरे विद्यालय जाना प्रारम्भ करता है. विद्यालय में शिक्षक उस छोटे बच्चे को विविध लुभावनी एवं रंग विरंगी तस्वीरो के सहारे अनेक जीव-जंतुओं तथा फल-वनस्पतियों का उसे परिचय कराता है. और धीरे धीरे बच्चा उन सब चीजो में रूचि लेने लगता है.
अपि च-
नवजात या सद्योजात बच्चे को जबरदस्ती मा के स्तन को उसके मुँह में डालना पड़ता है. और जब वह बालक माँ के उस अमृत से भी अधिक मीठे जीवनदाई दूध का एक बार पान कर लेता है. तो दुबारा वह हठ पूर्वक माँ के दूध को पीने की जिद करता एवं रोता-चिल्लाता है.
अन्य भी-
रेखा गणित में जब किसी प्रमेय को सिद्ध करना होता है. तो सबसे पहले हम कल्पना करते है कि
“अ, ब, एवं स एक त्रिभुज है. जिसकी तीनो भुजाएं परस्पर समान है. तो सिद्ध करो की उसके अन्दर के तीनो कोण भी बराबर होगें।”
तो सबसे पहले उस त्रिभुज की मात्र कल्पना की जाती है. जब कि वह वास्तव में होता नहीं है. और अंत में सिद्ध करते है –
“इति सिद्धम”
किसी भी व्यंजन का स्वाद जानने के लिये सबसे पहले उसे जिह्वा पर रखना ही पडेगा। स्वाद का पता पहले नहीं चलता है. इसके लिये मज़बूरी में उस व्यंजन को जीभ पर रखना ही पडेगा।
इसलिए श्रद्धा उत्पन्न करने के लिए सर्वप्रथम न श्रद्धा होते हुए भी जबरदस्ती तत्संबंधी प्रक्रिया पूरी करनी ही पड़ेगी। कारण यह है कि कर्म की प्रणाली दो तरह की होती है – प्रथम आगमनात्मक (Deductive Method) दूसरा निगमनात्मक (Inductive Method). श्राद्ध कर्म एक और्ध्वदैहिक क्रिया है. अतः यह निगमनात्मक पद्धति से पूर्ण किया जाता है. जैसे श्राद्ध, अनुष्ठान्न, तपश्चर्या, रिश्ता-सम्बन्ध आदि. आगमनात्मक प्रणाली से केवल आधिभौतिक क्रियाएं जैसे – कृषि, गृह निर्माण आदि.
अब रही बात पितरो के चोर, डाकू या अत्याचारी होने की बात. कोई भी व्यक्ति न तो जन्म से चोर डकैत होता है. और न ही मरने के बाद चोर डकैत रहता है. हम अपने पितरो के स्वभाव या गुण को श्राद्ध नहीं देते है. बल्कि हम उसे श्राद्ध देते है जो माँ स्वयं कुलटा, व्यभिचारिणी, पापिनी होते हुए भी हमें अपने खून को छाती के दूध बनाकर पिलाकर हमें बड़ा किया और ऊंचे विचार ग्रहण करने के लिये स्वतंत्र कर दिया। यहाँ मैं आज की तथाकथित उच्च शिक्षा प्राप्त एवं तथाकथित उच्च समाज से ताल्लुक रखने वाली उन माताओं की बात नहीं कर रहा हूँ जो अपनी काम वासना एवं यौवन की हबस मिटाने के लिये अपने नवजात शिशु को झाड़ियो-नालो एवं कूडादानो के हवाले कर देती है. या गर्भ में ही ह्त्या कर देती है. क्योकि उसे तो संतान चाहिए ही नहीं। अब तो इसी दुष्कर्म को छद्म रूप में परवान चढाने के लिये ऐसी बड़े घरो की बालाएँ-महिलायें कुत्ते आदि पाल रही हैं. उन्हें अब पुरुषो पर विश्वास नहीं रह गया है.
अस्तु प्रसंग विचलन हो रहा है.
इसे आज के आधुनिक विज्ञान की भाषा में इस प्रकार देखिये-
हम जो नमक खाते है. उसे चिकित्सा रसायन की भाषा में सोडियम क्लोराइड (NaCl2) कहते है. इसमें क्लोरिन की मात्रा बहुत ज्यादा होती है. सोडियम की दूनी मात्रा होती है. क्लोरिन एक अति बदबूदार एवं ज़हरीली गैस है. कोई भी इसे सूँघ कर मर सकता है. किन्तु फिर भी हम इसका सेवन आवश्यक रूप से अपने विविध व्यंजनों को स्वादिष्ट बनाने के लिये उसमें डालते है. और चटखारे लेकर खाते भी है. तो क्या हम क्लोरिन खाते है?
हम श्राद्ध अपने पितरो की कृतज्ञता एवं उनके ऋण से उऋण होने के लिये करते है.
इसे हम यदि भेदयाजयी के पिन्डायन (यजुर्वेद के पिण्डात्मक आख्यान) स्वरुप को विश्लेषित करेगें तो सब कुछ स्पष्ट हो जाएगा।अनायास शरीर निर्माण के मूल पञ्चभूतो के विखंडन (मृत्यु) के परिणाम स्वरुप जीव द्रव्य (DNA -डी राइबो न्यूक्लिक एसिड) के प्रभाव से परावेशित अपने गहन प्रत्याकर्षण के कारण अपने मूल भूतपूर्व स्थान (परिवार, ग्राम एवं समाज आदि) के चतुर्दिक निरंतर संचरित रहते है. कारण यह है कि जीव द्रव्य एक परम जटिल यौगिक (Critical Complicated Compound) होता है. जिसकी प्रत्याकर्षण क्षमता इतनी सुदृढ़ होती है कि आधुनिक विज्ञान भी इससे चमत्कृत होकर किसी भी वंश के मूल आधार स्वरुप इसे मानता है. और इस जटिल यौगिक के प्रभाव में आवेष्टित पांचो तत्त्व (क्षिति, जल, पावक, गगन एवं समीर-कृपया इसका विशेष विवरण मेरे पिछले लेख में देखें) को एक निश्चित दिशा प्रदान कर उन्हें अपने अनुकूल बनाए रखना सदा हितकारी एवं उन्हें प्रदूषित या घृणित रूप से छेड़ छाड़ करना घातक होता है. कुष्ठ, राज्यक्षमा, रक्तार्बुद, अपष्मार, श्वासावरोध, निःसंतानपन आदि विभत्स व्याधियां इन्ही तत्वों में से किसी एक या एकाधिक के दूषित होने से होती है.
याजयी शरीर संरचना विभाग में थोड़े प्रयत्न से इसे समझा जा सकता है.
पौराणिक मान्यता का श्राद्ध इसी वैज्ञानिक प्रक्रिया का एक अति उन्नत स्वरुप है. आवश्यकता केवल उसके गहन अध्ययन, विश्लेषण एवं मनन की है.
जैसे श्राद्ध में एकादशाह किया जाता है. तथा बारहवें दिन समापन उत्सव किया जाता है. इस एकादशाह का क्या तात्पर्य है?
हमारे शरीर में पांचो महाभूतो को आतंरिक एवं बाह्य संवेदना एवं सूचना ग्रहण करने के लिये दो दो साधन प्रकृति ने दिये है. जिन्हें पाँच कर्मेन्द्रिय-हाथ-पाँव आदि तथा पांच ज्ञानेन्द्रिय-आँख-जीभ आदि, कहते है. प्रथम दश दिनों में विविध सामग्रियों द्वारा इन दशो इन्द्रियों का यजन-समाधान किया जाता है. ग्यारहवे दिन मन का श्राद्ध होता है. जीव द्रव्य पराभूत पाँचो महत्तत्व (आत्मा) तो परलोक (अंतरिक्ष) की निकटतम कक्ष्या (परिवार एवं कुल खानदान की विस्तृत सीमा) में विलयित हो जाता है. अतः उसके यजन-समापन का कोई मतलब नहीं होता। यही एकादशाह की प्रक्रिया है.
अब रही बात हिदू एवं मुसलमान की.
“धीयते धार्यते इति धर्मः।”
जो इस्लाम के सिद्धांत का अनुकरण करता है. वह श्राद्ध आदि नहीं करेगा। किन्तु इसके बदले में वह इसका दूसरा तरीका अपनाता है. या इसे वह दूसरे नाम से करता है.
ध्यान दीजिएगा। इस्लाम धर्म में भी “पञ्चकर्म” ही अनुकरणीय है.
“कलमा, नमाज़, रोजा, ज़कात एवं हज़.”
इसमें जो चौथा कर्म “ज़कात” है वह “कब्र” में सो रहे उन व्यक्तियों की सुख शान्ति के लिए है जो क़यामत के दिन अपने लेखा-जोखा के लिये उठ खड़े होगें। इस ज़कात में यह नियम है कि अपनी समस्त कमाई का दशवाँ हिस्सा आवश्यक रूप से दान करना ही है. धर्म चाहे कोई भी हो, सब धर्मो में इस कार्य को किया जाता है. नाम चाहे जो दे दिया जाय. इसी दशवें हिस्से को सामवेद की ऋचा में अप्रत्यक्ष रूप में परिलिखित किया गया है.
“ॐ सहस्र शीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्र पात.
स भूमिग्वं पृत्वा त्यतिष्ठ द्दशाङ्गुलम।”
अब रही बात श्राद्ध में मांस मदिरा आदि की. तो इसके लिये जजमान दोषी है. जो कोई भी पंडित या पुरोहित ऐसे शुचिता भरे कर्म में ऐसे निन्दित एवं अभिगर्हित वस्तुओं का प्रयोग करता है, शास्त्रों में बताया गया है कि ऐसे पुरोहित को सर मुंडा कर देश निकाला दे देना चाहिये. श्रीमद्भागवत महापुराण के सप्तम स्कन्ध के पन्द्रहवें अध्याय के निम्न श्लोको को देखें-
“न दद्यादामिषम श्राद्धे न चाद्याद्धर्म तत्ववित। मुन्यन्नै: स्यात्परा प्रितिर्यथा न पशु हिंसया।।7
नैतादृशः परो धर्मो नृणाम सद्धर्ममिच्छताम। न्यासों दण्डस्य भूतेषु मनोवाक्कायजस्य यः II 8 II
द्रव्ययज्ञैर्यक्ष्यमाणम दृष्टवा भूतानि विभ्यति। एषा मा अकरुणों हन्यादतज्ज्ञो ह्यसुतृब ध्रुवम।।9II
अर्थ- धर्म के मर्म को समझने वाला पुरुष श्राद्ध में (खाने के लिये) मांस न दे. और न स्वयं ही खाय. क्योकि पितृगण की तृप्ति जैसी मुनिजनोचित आहार से होती है वैसी पशु हिंसा से नहीं होती। सद्धर्म की इच्छा वाले पुरुषो के लिये “सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति मन, वाणी और शरीर से दंड का त्याग कर देना-” इसके समान और कोई श्रेष्ठ धर्म नहीं है. पुरुष को द्रव्य यज्ञ से यजन करते देख कर जीव डरते है कि यह अपने ही प्राणों का पोषण करने वाला निर्दय अज्ञानी मुझे अवश्य मार डालेगा।”
मैं इस सम्बन्ध में आप को एक और रहस्य की बात बताना चाहता हूँ. लम्पट, आलसी, ठग, पाखंडी, सद्धर्म विरोधी एवं भोले भाले श्रद्धालुओं को दिग्भ्रमित कर उन्हें अधर्म एवं पाप के मार्ग पर डालकर उनके समूचे कुल को विध्वंश करने वाले “रामचरित मानस के कपटी मुनि” के समान आततायी पंडितो एवं पुरोहितो की कमी नहीं है. और “अश्वत्थामा मरो” पढ़ कर शेष नहीं पढ़ते है. कि इसमें आगे भी है कि “नरो वा कुञ्जरो।”
देखें विष्णु पुराण के तृतीय अंश के सोलहवें अध्याय के प्रथम तीन श्लोक-
“हविष्यमत्स्यमांसैस्तु शशस्य नकुलस्य च. सौकरच्छागलैणेयरौरवैर्गवयेन च.
औरभ्रगव्यैश्च तथा मॉसवृद्धया पितामहाः। प्रयान्ति त्रिप्तिम मांसैस्तु नित्यम वार्ध्रीणसामीषै:
खड्गमांसमतीवात्र कालशाकम तथा मधु. शस्तानि कर्मण्यत्यन्त तृप्तिदानि नरेश्वर।।”
अर्थ- हवि, मत्स्य, शशक (खरगोश), नकुल, शूकर, छाग, कस्तूरिया मृग, कृष्ण मृग, गवय (नीलगाय), और मेष के मांसो से तथा गव्य (गाय के दूध, घी आदि) से पितृगण क्रमशः एक एक मॉस अधिक तृप्ति लाभ करते है. और वार्ध्रीणस पक्षी के मॉस से सदा तृप्त रहते है. हे नरेश्वर! श्राद्ध कर्म में गेंडे का मांस, कालशाक और मधु अत्यंत प्रशस्त और अत्यंत तृप्ति दायक है.”
हाय रे नराधम पंडित! जिसे यह नहीं मालूम कि उपरोक्त वचन किस परिप्रेक्ष्य में कहा गया है वह यही कहता है कि विष्णु पुराण में श्राद्ध कर्म में मांस खाने को लिखा है. जब की उपरोक्त वचन “और्व” ऋषि का है जिन्होंने “नग्न” पन्थावलम्बियो के द्वारा सनातन शाश्वत धर्म से लोगो को भ्रष्ट कर धर्मच्युत, न्यायच्युत एवं सत्यच्युत करने के लिये उपरोक्त नियम बना कर उन्हें धर्मभ्रष्ट कर रहे थे.
देखें विष्णु पुराण तृतीय अंश अध्याय 18 के श्लोक 1 से 15 तक.
पण्डित आर के राय
Email- khojiduniya@gmail.com


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