ज्योतिष विज्ञान आज एक निरीह एवं उपेक्षणीय विद्या क्यों है? आज इस वेदनेत्र को क्यों उपहास का पात्र बनना पडा है? इसके पीछे यद्यपि अनेक कारक है. जैसे टीका लगाये, गेरुआ वस्त्र धारण किये तथा लम्बी चोटी बढाये ठग, पाखंडी, कुछ एक अनूदित एवम अभिगर्हित पुस्तको के सामान्य नियमो को अपने व्यवसाय का आधार बनाये ज्योतिषाचार्य पहले कारक है। दूसरे गैर हिन्दू धर्मावलम्बियों से इस धर्म के विरुद्ध प्रचार-प्रसार करने के लिये पैसा लेकर जीजान से प्रचार करने वाले तथा तीसरे हिन्दुओं में स्थाई अनेकता एवं विभेद को ध्यान में रखते हुए किन्तु संगठित अन्य धर्मावलम्बियों के वोट को पाने के लिये शासकीय तौर पर इसे हतोत्साहित करने वाले शासक दल. मैं पहले तथाकथित ज्योतिषाचार्यो के बारे में कहना चाहूंगा।
इन्हें कुछ नहीं मालूम कि चरपल, भुज, कोटि, पलभा या अंशावानयन क्या है. बस कम्प्यूटर में पहले से दिये गये विवरण के आधार पर लग्न आदि निकाल कर भविष्य वाणी कर देना। जिन्हें यह नहीं मालूम कि कम्प्युटर स्वयं नहीं सोचता। बल्कि यह अपने अन्दर भरे गये विवरण का उत्तर देता है. जब कि एक विद्वान ज्योतिषाचार्य इसके आगे पीछे सोचता है. इसीलिए ज्योतिष पितामह महर्षि पाराशर ने स्पष्ट शब्दों में चेतावनी दी है-
“गणितेषु प्रवीणों अथ शब्दशास्त्रे कृत श्रमः।
न्यायविद बुद्धिमान होरास्कन्धश्रवणसम्मतः।
ऊहापोह पटुर्देशकालवित संयतेन्द्रियः।
एवंभूतस्तु दैवज्ञो असंशयं सत्यमादिशेत।”
(वृहत पाराशर होराशास्त्र अध्याय 28 श्लोक 39 एवं 40)
अर्थात——-
गणित शास्त्र में प्रवीण, व्याकरण में श्रमशील, न्याय का जानकार, बुद्धिमान, ज्योतिष के होरास्कन्ध के श्रवण-मनन में निष्णात, ऊहापोह (सदनुमान) करने में पटु, देशकालज्ञ और जितेन्द्रिय ज्योतिषी ही सत्य, न्याय एवं धर्म से भविष्य कथन का अधिकारी हो सकता है.कारण यह है कि जैसे कोई कुंडली बनवाने के लिये किसी पंडित जी को जन्म का कोई समय बताया तो आजकल ज्योतिषी लोग चटपट कम्प्युटर पर “कमाण्ड” दे दिये और सेकेंडो में कुंडली बनकर तैयार हो जाती है. जब कि ज्योतिषाचार्य को जिसकी कुंडली बनानी है उसके या उसके माता-पिता के कार्य, रूप-रंग, वंश, अवस्था आदि के आधार पर परिक्षण करना चाहिए कि जो समय बताया गया है उसके आधार पर बनी कुंडली मेल खाती है या नहीं। क्योकि—
“उत्तमं जल श्रावे तु मध्यमं शीर्ष दर्शने।
कनिष्ठे तु पतनम स्यात त्रिविधा जन्म लक्षणंम।”
अर्थात जन्म का वह समय उत्तम होता है जब माता के गर्भाशय या Placenta का मुँह खुल जाय और नाल द्रव्य बह कर बाहर निकलने लगे. क्योकि नाल द्रव्य के भ्रूण पर से हटते ही बालक बाह्य किरणों के प्रभाव में आ जाता है. और तदनुसार सौर मंडल के ग्रह-उपग्रह-तारे एवं नक्षत्र अपने अत्यंत तीक्ष्ण वेधक क्षमता वाले किरण जाल में बच्चे को ले लेते है. अतः जन्म का यही समय सबसे न्यायोचित है. उसके बाद यदि बच्चे का कोई अंग जब बाहर दिखाई देने लगे तो वह समय जन्म का मध्यम समय होता है. और जब बच्चा पूर्णतया गर्भ से बाहर आ जाय और यदि वह समय जन्म का लिया जाता है तो वह सर्वथा गलत है.
अब आप ही सोचिये। क्या कम्प्यूटर यह सब सोच सकता है? क्या वह आप के द्वारा भरे गये विवरण में अपनी मर्जी से आगे पीछे कर सकता है? फिर कम्प्युटर कुंडली कैसे विश्वसनीय होगी? और ज्योतिषाचार्य कितनी सच्ची भविष्यवाणी कर सकता है.
बड़ी हास्यास्पद बात है कि आज कल टीवी पर ऐसे भविष्यवक्ता आ गये है जो आप तुरंत अपना जन्म विवरण बताइये और तत्काल आप के भविष्य का फल सेकेंडो में बता देते है.
दूसरी चीज यह कि इन्हें यह नहीं पता कि दृष्ट फलार्थ (सूर्य ग्रहण, चन्द्र ग्रहण, उल्कापात आदि) ग्रहण किये जाने वाले तथा अदृष्ट फलार्थ (विवाह, संतान एवं लाभ-हानि आदि) लिया जाने वाला लग्न क्या होता है? बस पञ्चांग खोले। उसमें सारणी में दर्शाई गई लग्न सारणी से लग्न निकाले और फिर विविध भावो में ग्रहों को लिख दिये कुंडली तैयार हो गई.
दृष्ट एवं अदृष्ट फल भेद से लग्न (कुंडली) दो तरह की होती है. ग्रहों-नक्षत्रो आदि के विकिरण, आकर्षण, प्रत्याकर्षण, आवर्तन एवं परावर्तन से अंतरिक्ष में होने वाले भौतिक एवं रासायनिक परिवर्तनों के ज्ञान के लिये चरपल, भुज, कोटि आदि से स्वोदय-लंकोदय मान के आधार पर जो लग्न निकालते है वह लग्न अंतरिक्ष में निर्धारित विविध रेखाओं (राशिखंड़ो) के लिये होता है. जिस तरह से धरती पर कर्क-मकर वृत्त आदि की कल्पना की गई है. वैसे ही अंतरिक्ष के प्रत्येक ग्रह पिण्ड पर वृत्त खण्ड (राशीयाँ-रेखाएँ) होती है. और दृष्ट घटना-परिवर्तन आदि उसके प्रभाव से होता है. किन्तु जब धरती वासियों के अदृष्ट (फल) के ज्ञान के लिये लग्न निकाला जाता है तो उसे धरती के (वृत्त खंडो) राशि खंडो के आधार पर होना चाहिये। इसीलिए ब्रह्माण्ड के प्रत्येक गोल-पिण्ड को सामान रूप से बारह -बारह राशियों में बाँट कर उसका अध्ययन किया गया है.किन्तु बड़े पश्चात्ताप का विषय है कि हठ, पूर्वाग्रह या अज्ञानता के कारण आज के “हाई टेक” ज्योतिषी इस श्रमसाध्य गणित आदि जटिल प्रक्रिया से घबराकर अशुद्धि को जान बूझ कर प्रश्रय देते हुए ज्योतिष के समूल उत्खनन में जी जान से जुट गये हैं.
आप ही सोचिये कि अंतरिक्ष के ग्रहों का प्रभाव तो धरती पर होता है. किन्तु अंतरिक्ष के वृत्त खंडो (राशियों) से धरा वासियों को क्या लेना देना? जब कि उनके इसी काम के लिए धरती पर वही वृत्त खंड (राशि खण्ड) उपलब्ध है? उसके बाद भी ये ज्योतिषी अपनी बेशर्मी की हद को पार करते हुए आप्त वाक्यों का भी सम्मान नहीं करते है. यह मुनि प्रोक्त आप्त वाक्य है-
“इष्टं षडघ्नम तु कुर्यात योजयेत स्पष्ट रविः।
षडाधिकम विभावेन भक्तम तदेव लग्नं ग्राह्यते।”
अर्थात जन्म के ईष्ट काल को 6 से गुणा कीजिये। और उसे स्पष्ट सूर्य के अंशो में जोड़ दीजिये। उन अंशो को राशि, अंश, कला, विकला आदि में बदल दीजिये। जन्म लग्न स्पष्ट हो जायेगी। आज भी छत्तीस गढ़ के पुराने ज्योतिषियों में यह कहावत प्रचलित है—
“ईष्ट घटी षड गुन करो रवि के अंश मिलाय।
तीस भाग दे अंश में लग्न भाव बनि जाय.”
बात भी सही प्रामाणिक, एवं तार्किक है.
आप को यदि गणित का थोड़ा भी ज्ञान होगा तो यह आप को अवश्य ज्ञात होगा कि एक गोला (वृत्त) 360 अंशो का होता है. इन 360 अंशो को 12 (राशियों) भागो में बांटने पर एक राशि 30 अंश की ही होगी। यह भी स्पष्ट है कि सूर्योदय से अगले सूर्योदय तक बारहों राशियाँ भुगत जाती है. फिर अगले दिन वही राशि सूर्योदय के समय आ जाती है. चूंकि प्रत्येक राशि 30 अंश की होती है, इसमें कोई संदेह या विचलन नहीं है. तो फिर यदि 12 राशियाँ 24 घंटे में भुगतती है. तो १ राशि कितने में? अर्थात 2 घंटे में एक राशि भुगत जायेगी। तो जब यह स्थिर आंकड़ा है तो स्वोदय-लंकोदय का क्या तात्पर्य? जन्म के ईष्ट काल तक सूर्योदय से दो दो घंटे जोड़ते जाइये। जो राशि आवे वह लग्न हो गई.
किन्तु
“दुनिया ऐसी रंग रंगीली सबको नाच नचाये।
अंधे बहरो की दुनिया में कौन किसे समझाये?”
जब मेड ही खेत को चरने लगे तो उस खेत की कौन रखवाली कर सकता है?
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