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“नवरात्रि”–अर्थ एवं महत्त्व

वेद विज्ञान
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“नवरात्रि”–अर्थ एवं महत्त्व
“अथोद्वेलितामभाव्यम धरौदार्यम न योषिता।
युग्मार्थमथधातव्यो अवसाने नवरात्रि संज्ञिता।”
कालिदास की यह उक्ति नवरात्रि का अर्थ स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त है. हस्त नक्षत्र के गगन भेदी बादलो के चिघ्घाड से उद्वेलित सकल चराचर एवं चतुर्दिक बहती वर्षा की फुहारों से स्वच्छ गगन मंडल जब युग्म मास (आश्विन मास) में गोलार्द्ध की क्षितिज से नित नवीन तारक तारिकाओं से सुशोभित रात्रि से विभूषित हो जाता है, तब “नवरात्रि” की संज्ञा (नाम) अभिहित होती है.
ध्यान रहे, नक्षत्रो की व्यावहारिक संख्या अश्विनी से रेवती पर्यन्त 27 है. हस्त नक्षत्र 13वाँ नक्षत्र है. और जब सूर्य हस्त नक्षत्र को आधा पार कर लेता है तो वह विपरीत अर्थात दूसरे गोलार्द्ध की तरफ अग्रसर होता जाता है. और इस प्रकार गोलार्द्ध के दूसरे भाग में धीरे धीरे धरती एवं चन्द्रमा की संतुलित गति के अनुरूप नए नए ग्रह एवं नक्षत्र गगन मंडल में उदित होते चले जाते है. और प्रतिदिन नवीन रात्रि का अभ्युदय होता चला जाता है.
यही नवरात्रि है.
अब प्रश्न यह उठता है कि नवरात्रि ही क्यों कहा जाता है? दस, ग्यारह या बारह रात्रि क्यों नहीं कहा जाता है?
ध्यान रहे, यह ज्योतिष के गणित स्कन्ध का विवेचन है कि जब हस्त का सूर्य एवं चन्द्र दोनों हो तो वही नवरात्रि प्रशस्त होती है. (देखें श्रीमद्देवी भागवत महापुराण, तृतीय अंश). और चित्रा जो हस्त नक्षत्र के बाद आती है, उसमें सूर्य के प्रवेश करते ही सूर्य भगवान की किरणे बलहीन होनी शुरू हो जाती है. अर्थात सूर्य अपनी नीच राशि (तुला) में प्रवेश कर जाता है. सूर्य के इस अवस्था में आते ही उसके चारो तरफ परिक्रमा करने वाले नवग्रह अपनी अपनी प्रकाशावस्था में नित क्षीणता प्राप्त करते चले जाते है. अपनी विविध एवं पृथक गति के कारण प्रत्येक दिन एक ग्रह अपनी ऊर्जा में क्षीणता प्राप्त करता है. इसीलिए नवग्रहों के कारण रात्रि को नौ भागो में विभक्त किया गया है. कभी कभी दो दो ग्रह एक ही राशि-अंश पर होने के कारण एक ही दिन क्षयित हो जाते है. तब नवरात्रि का समय आठ दिन का हो जाता है. और कभी किसी दिन कोई ग्रह सूर्य की परिखा में नहीं आता है तो नवरात्रि दस दिन की भी हो जाती है. इसलिए नवरात्रि का तात्पर्य यह कदापि नहीं की 9 रात्रियाँ। बल्कि नित नई रात्रियाँ होता है. सनद रहे, सौर मंडल में कुल प्रकाशित ग्रह 9 ही है. शेष वरुण, प्लूटो, नेपच्यून आदि उपकेतु, भौमकेतु, धूमकेतु और प्रश्रयित क्षुद्र उल्का पिंड है. देखें इनका विवरण आचार्य वराह मिहिर के “वृहज्जाताकम” में.
और इस प्रकार जब सौर मंडल स्थित ग्रहों की स्वाभाविक ऊर्जा का अवसान इनकी मौलिक कक्ष्या (Original Orbit) पर सीमित हो जाता है. उस दिन विजया दशमी के नाम से इसका उपसंहार होता है.
और अंत में एक क्षमा—
“क्व ज्योतिष प्रभवो विषयः क्व चाल्प विषया मतिः
तितिर्दुष्तरममोहादुडुपेनस्मिसागरम।”
अर्थात कहाँ तो ज्योतिष का अथाह सागर और कहाँ मेरी विषय कामना आदि से बनी क्षुद्र नौका। फिर भी मैं मूर्खता वश इसी क्षुद्र नौका से इस महासागर को पार करने की इच्छा पाल बैठा हूँ.
पण्डित आर के राय
Email- khojiduniya@gmail.com

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