Menu
blogid : 6000 postid : 622977

नवरात्रि का महत्त्व- 2

वेद विज्ञान
वेद विज्ञान
  • 497 Posts
  • 662 Comments
नवरात्रि का महत्त्व- 2
(पिछले लेख से आगे)
नवरात्रि पूरे वर्ष में दो बार आती है. जैसा कि मैं पहले लेख में बता चुका हूँ, जब रात्रि समूह का नित नया रूप प्रकट होने लगे उसे नवरात्रि कहा जाता है-
“क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपम रमणीयतायाः।
दिन में चूंकि सूर्य के तीव्र प्रकाश में सारे ग्रह नक्षत्र अपने प्रकाश खो देते है. क्योकि सूर्य पृथ्वी के सबसे नज़दीक वाला स्वप्रकाशित तारा है. रात में ही ग्रह-नक्षत्र आदि का प्रकाश आलोकित होता है. अतः नित नये तारक समूहों का दर्शन होना शुरू हो जाता है.
वैसे तो प्रत्येक रात्रि में कोई न कोई तारा क्षितिज से ऊपर उठता हुआ धरती एवं सूर्य के सापेक्ष गति के अनुसार गगन मंडल में दिखाई देने लगता है. किन्तु जब एक गोलार्द्ध से दूसरे गोलार्द्ध में सूर्य की किरणे पहुँचना शुरू होती है, तो उस भूभाग के लिए क्षितिज से ऊपर उठाने वाले ग्रह-तारक समूह नये होते है. क्योकि वे प्रकाश पिण्ड एक लम्बे अन्तराल के बाद उस गोलार्द्ध में दिखाई देते है. इसके विपरीत कुछ प्रकाश पिण्ड उस गोलार्द्ध में नित्य ही एक निश्चित अवधि तक दिखाई देते है.
ध्यान रहे, एक बार नवरात्रि तब होती है जब सूर्य अपनी नीच राशि तुला में प्रवेश को अग्रसर होता है. अर्थात शारदीय नवरात्र, तथा दूसरा जब सूर्य अपनी उच्च राशि मेष पर पहुँचने वाला होता है. अर्थात चैत्र नवरात्र। पितृपक्ष के समापन के बाद जो 6 महीने का समय होता है वह माताओं के लिये तथा खरमास के बाद जो 6 माह का समय होता है वह पिताओं के लिये होता है. अर्थात जब सूर्य उच्च राशि मेष में हो तो पुरुष पितृगण प्रधान समय होता है. तथा सूर्य यदि नीच राशि में हो तो मातृगण प्रधान समय होता है.
नीच राशि में ग्रहों-उल्का पिण्डो के जाने का तात्पर्य है कि उनकी स्वाभाविक शक्ति-ऊर्जा का क्षय हो जाता है. सिद्धांत ग्रंथो में कहा गया है कि-
“उपस्मान्मो अथ अनूर्जताम ध्यवस्त्यक्षो चिरभिषताम शक्तिः स्त्रियों अभिज्ञेयतीति मन्तव्यम।”
अर्थात प्रेरणा के कारक अनूर्जतावरोधी जीव संज्ञक के बल स्वरुप शक्ति को स्त्री आधिपत्य में जाने।
सीधे शब्दों में ग्रहों के उदयास्त से उनकी स्वाभाविक ऊर्जा-सामर्थ्य की क्षय-वृद्धि होती रहती है जो (गुप्त ऊष्मा के रूप में)छिपी होती है. यही शक्ति –
“प्रत्याकर्ष विकर्ष रज्जु सहय्यम प्रतिदिनं क्षयति वर्द्धति च.”
अर्थात सौर मण्डल के उल्का पिण्डो के परस्पर आकर्षण से अपनी निर्धारित कक्ष्या में इनके संचार से इनकी शक्ति में क्षय-वृद्धि होती रहती है.
“भगवान विष्णु के वक्षस्थल में उनकी शक्ति के रूप में अंतर्भूत, भगवान शिव के आधे भाग में, जब अर्द्ध नारीश्वर के रूप में होते है, उनकी प्रेरणा शक्ति के रूप में विराजमान तथा महर्षि के शाप स्वरुप पितामह ब्रह्मा को “स्वर” रूप देने वाली शक्ति के रूप में अवस्थित यह शक्ति सर्जन, पालन एवं विलयन की एकमात्र एवं नितांत अकेली होने के कारण “जननी” की ही संज्ञा प्राप्त कर सकती है.
इसके व्याकरण स्वरुप (शब्द शास्त्र) को यूँ देखें-
जननी——–
ज- जनयतीति अर्थात जन्म देना
–       नः अर्थात जन्म के बाद अहँकार या प्राणी का स्वरुप -संस्कृत के वैदिक उच्चारण में “हम” के लिये “नः” प्रयुक्त होता है. “मैं” के बहुवचन के लिये              “वयम” शब्द प्रयुक्त होता है. जिसका अर्थ हम सब होता है. मैं के लिये “अहम्” शब्द प्रयुक्त होता है. किन्तु अहँकार की सिद्धि के लिये “नः” है.
नी–     नयतीतर (नयति इतर लोके या) अर्थात अन्यत्र ले जाने वाली
तात्पर्य यह कि यह दोनों नवरात्रि का अवसर शक्ति विवर्द्धन-संवर्द्धन से सम्बंधित है. जिस शक्ति से ब्रह्माण्ड का नियमन, संतुलन एवं सञ्चलन निर्धारित होता है. (देखें श्रीमद्देवीभागवत महापुराण)
इन आठ, नौ या दस दिनों में विविध (ग्रहों, नक्षत्रो या उल्का पिण्डो की शक्तियों जिनसे समस्त चराचर का अस्तित्व है) शक्ति के विविध रूपों की अराधना-अर्चना या सिद्धि की जाती है. प्रकाश पिण्ड अवलम्बित होने के कारण इन्हें नव “रात्रि” का नाम दिया गया है.
इन नवरात्रों के आरम्भ में आकस्मिक रूप से विविध ग्रहों, नक्षत्रो एवं उल्का पिण्डो के प्रकाश का प्रभाव हमारे शरीर एवं चतुर्दिक वातावरण-पर्यावरण, जलवायु आदि को प्रभावित करता है जिससे पूर्व परिचय या Accustomed नहीं होता है. और इस प्रकार अनेक विकृतियों, व्याधियों, प्रतिकूल घटना-दुर्घटना आदि से सामना होता है.
पण्डित आर. के. राय
Email-khojiduniya@gmail.com

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply