श्रीमद्देवी भागवत महापुराण के तृतीय स्कन्ध के अध्याय 30 के श्लोक संख्या 39 को देखें-
” नारद उवाच-
“पीठं कृत्वा समे स्थाने संस्थाप्य जगदम्बिकाम।
उपवासान्नैव तवं कुरु राम विधानतः।
आचार्यो अहम् भविष्यामि कर्मण्यस्मिन्महीपते।
देवकार्यविधानार्थमुत्साहम अकरोम्यहम।”
अर्थ-नारद जी कहते है कि हे राम! किसी समतल भूमि पर सिंहासन (या वेदी बनाकर) रखकर उस पर भगवती जगदम्बिका की मूर्ति की स्थापना कर के यथाविधि नौ दिन उपवास कीजिये। हे महाभाग! इस कार्य में मैं आपका आचार्य बनूँगा। क्योकि देवताओं के कार्य में मेरा स्वभावतः उत्साह रहता है.
इसी स्कन्ध के अध्याय 27 के श्लोक संख्या 12 एवं 13 को देखें-
“उपवासे ह्यशक्तानाम नवरात्रे व्रते पुनः।
उपोषण त्रयं प्रोक्तं यथोक्त फलदं नृप.
सप्तम्याम च तथाष्टम्याम नवम्याम भक्ति भावतः।
त्रिरात्रकरणात सर्वं फलं भवति पूजनात।”
अर्थ- हे राजन! यदि पूरे नवरात्र भर उपवास व्रत न कर सकता हो तीन दिन अथवा एक दिन भी उपवास करने पर मनुष्य यथोक्त फल का अधिकारी हो सकता है. इसलिए सप्तमी, अष्टमी और नवमी की रात में उपवास करने से भी देवी प्रसन्न हो जाती है.
अब आप स्वयंम देखें कि देवी दुर्गा के ही महापुराण में पूरे नौ दिनों तक व्रत रखने का विधान बताया गया है. तो फिर अप्रामाणिक ग्रंथो, पुस्तको या पाखण्डी एवं अनपढ़ ठग पंडितो के कथन को क्यों मान्यता दी जाय? और यदि इसका उल्लंघन करते है तो किस फल की आशा करनी चाहिए?
चार दिन, या तीन दिन या अष्टमी को व्रत तोड़ने का प्रतिबन्ध उसी को है जो या तो असमर्थ हो, या जिसने केवल अष्टमी तक ही व्रत का संकल्प लिया हो या कोई और बाधा उत्पन्न हो गई हो. ऊपर के शास्त्रोक्त कथन में यह स्पष्ट निर्देश दिया गया है.
This website uses cookie or similar technologies, to enhance your browsing experience and provide personalised recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy. OK
Read Comments