हमारी पूजा क्यों दिशाहीन हो जाती है तथा निराशा देती है? (सिद्ध तांत्रिक मन्त्र के साथ)
वेद विज्ञान
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हमारी पूजा क्यों दिशाहीन हो जाती है तथा निराशा देती है? (सिद्ध तांत्रिक मन्त्र के साथ)
हम बहु भाँति पूजा पाठ अनुष्ठान्न एवं व्रत उपवास आदि करते है. किन्तु जिस लक्ष्य या या काम पूरा करने के लिये करते है, वह पूरा नहीं होता है. इसके पीछे एक बहुत बड़ा एवम महत्व पूर्ण कारण हमारी पूजा का दिशाहीन एवं देश-काल-पर्यावरण के प्रतिकूल होना है. हम अपनी अंध श्रद्धा एवम पंडितो के द्वारा दिग्भ्रमित कर दिये जाने के कारण उचित अनुष्ठान्न नहीं कर पाते है.
जैसे कोई व्यक्ति आसाम का रहने वाला है. तथा उसका काम केवल कामाख्या देवी के पूजन करने से पूरा हो गया. तो हम राजस्थान में भी उसी अनुष्ठान्न का सहारा उसी काम के लिये लेते है. और कामाख्या देवी की पूजा से ही उस काम के हो जाने की प्रार्थना करते है. यहाँ मैं यह बता देना चाहता हूँ कि पूजा चाहे किसी देवी देवता की हो हमेशा शुभ फल ही प्राप्त होता है. जिस प्रकार मिर्च सीधे खाने पर उसके तीखेपन से मुँह जलने लगता है. किन्तु चटनी में डालकर खाने से उसका स्वाद अलग हो जाता है. सब्जी में उसे आवश्यक रूप से डालना ही पड़ता है. इसी प्रकार यह आवश्यक है कि पूर्ण, इच्छित एवं उचित फल पाने के लिये देश-काल-परिस्थिति के अनुसार उस स्थान के अधिपति देवता की पूजा अराधना करें। इसका विस्तृत विवरण श्रीमद्देवी भागवत महापुराण में दिया गया है.
श्री नारायण उवाच- तेषु वर्षेषु देवेशाः पूर्वोक्तै: स्तवनै: सदा. पूजयन्ति महादेवीं जपध्यान समाधिभिः। (नारायणाख्यो लोकानामनुग्रहरसैकदृक) इलावृते तु भगवान पद्मजाक्षिसमुद्भवः। एव एव भवो देवो नित्यं वसति सा अंगनः।-—-(श्रीमद्देवी भागवत महापुराण अष्टम स्कंध अष्टम अध्याय). तात्पर्य यह कि जम्बू द्वीप के इलावृत वर्ष में भगवान रूद्र स्वयं अयोनिजा भगवती पार्वती के साथ निवास करते हुए पूजित होकर अपने भक्तो को वांछित वर प्रदान करते है.
“तथैव धर्मपुत्रो असौ नाम्ना भद्रश्रवा इति. तत्कुलस्यापि पतयः पुरुषा भद्र सेवकाः। भद्राश्ववर्षे तां मूर्तिं वासुदेवस्य विश्रुताम। हयमूर्तिभिदा तान्तु हयग्रीव पदाङ्किताम। परमेण समाध्यन्यवारकेण नियंत्रिताम। एवमेव च तां मूर्तिं गृणन्त उपयान्ति च. भद्रश्रवस उचु: “ॐ नमो भगवते धर्मायात्मविशोधानाय नम इति”—(श्रीमद्देवी भागवत महापुराण अष्टम स्कन्ध अध्याय 8) अर्थात भद्राश्व वर्ष में धर्म पुत्र भद्रश्रवा तथा उनके वश वाले सभी प्रधान सेवक वासुदेव भगवान “हयग्रीव” की सुप्रसिद्ध मूर्ति को सावधान मन से ह्रदय में धारण कर के उनकी स्तुति पूजा करते है.
श्री नारायण उवाच- हरिवर्षे च भगवाननृहरिः पापनाशनः। वर्तते योगयुक्तात्मा भक्तानुग्रहकारकः। तस्य तद्दयितं रूपं महाभागवतो असुरः। पश्यन्भक्ति समायुक्तः स्तौति तद्गुणतत्त्ववित। प्रह्लादुवाच-“ॐ नमो भगवते नरसिंहाय नमस्तेजस्तेजसे आविराविर्भववज्रदंष्ट्र! कर्माशयान रन्धय तमो ग्रस ग्रस ॐ स्वाहा। अभयं ममात्मनि भूयिष्ठाः। ॐ क्ष्रौ। स्वस्त्यस्तु विश्वस्य खलः प्रसीदताम ध्यायन्तु भूतानि शिवं मिथो धिया। मनश्च भद्रं भजतादधोक्षजे आवेश्यताम नो मतिरप्यहैतुकी। मा अगारदारात्मजवित्तवन्धुषु सँगो यदि स्याद्भगवत्प्रियेषु नः.——(श्रीमद्देवीभागवत महापुराण अष्टम स्कन्ध अध्याय 9)—अर्थात हे देवर्षे! हरिवर्ष खण्ड में भक्तो पर अनुग्रह करने वाले प्रभु, श्रीहरि “नृसिंह” के रूप में विराजते है. जो दर्शको के पाप नाशक है. —–पाठक ध्यान दें, यह नृसिंह भगवान का उपर्युक्त मन्त्र तंत्र सिद्ध महामंत्र है.
केतुमाले च वर्षे हि भगवान स्मररूपधृक। आस्ते तद्वषनाथानां पूजनीयश्च सर्वदा। एतेनोपासते स्तोत्रजालेन च रमा अब्धिजा। तद्वर्षनाथा सततं महतां मानदायिका। रमोवाच- “ॐ ह्राँ ह्रीं ह्रूं ॐ नमो भगवते ऋषिकेशाय सर्वगुणविशेषैर्विलक्षितात्मने आकूतिनाम चित्तीनां चेतसां विशेषाणाम चाधिपतये षोडशकलायछन्दोमयाया अमृतमयाय सर्वमयाय महसे ओजसे वलाय कान्ताय कामाय नमस्ते उभयत्र भूयात।”-—(श्रीमद्देवी भागवत महापुराण अष्टम स्कन्ध अध्याय 9)–—अर्थात केतुमाल वर्ष में श्रीहरि “कामदेव” में रहते है. केतुमाल वर्ष की अधीश्वरी समुद्र सुता श्री लक्ष्मी जी है. वह स्वयं निम्न लिखित मंत्रो द्वारा भगवान श्रीहरि की उपासना किया करती है.
इसी प्रामाणिक महाग्रन्थ में हम आगे भी पढ़ सकते है कि कहाँ किस स्थान पर किस देवता की किस विधि से पूजा मनोवांछित फल देने वाली होती है. चूँकि इस ग्रन्थ में स्थानों के नाम बहुत पुराने है. जो कालान्तर में बदल कर कुछ और हो गये है. किन्तु इनको आचार्य वराह मिहिर ने अपनी कालजयी रचना “वृहत्संहिता” के “कूर्म प्रकरण” में अच्छी तरह स्पष्ट कर दिया है.
अतः किसी स्थान विशेष पर की जाने वाली किसी देवी देवता की पूजा या अनुष्ठान्न के अन्य स्थानों पर भी प्रायोजित कर वांछित फल पाने की इच्छा नहीं करनी चाहिये।
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