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शँख- व्युत्पत्ति, प्रकार-भेद एवम वैज्ञानिक-पौराणिक महत्त्व

वेद विज्ञान
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पौराणिक गाथाओं के अनुसार शँख की कहानी बहुत पुरानी है. जैसा कि मैंने संलग्न चित्र में वायु पुराण एवं वराह पुराण के श्लोको का उल्लेख किया है, इसकी व्युत्पत्ति समुद्र से ब्रह्मा के दिन के प्रथम प्रहरार्द्ध में श्वेत वाराह कल्प के चाक्षुष मन्वन्तर में समुद्र मंथन से हुई थी. जिसमें 14 रत्न निकले थे. जिनका विवरण चित्र में मैंने दिया है. ये १४ रत्न चौदहों भुवनो की  प्रकृति, स्वभाव, आकृति, आवरण एवं विविध भौतिक तथा रासायनिक पदार्थो एवं तत्संबंधी परिवर्तन एवं चर्या को ध्यान में रखते हुए उन लोको को विस्थापित कर दिये गये. सुविधा के लिये इन चौदहों लोको का नाम दे रहा हूँ-
अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल एवं पाताल। ये सातो धरती के नीचे (दक्षिण तरफ) स्थित भुवन है. जिन्हें वर्त्तमान में सात महाद्वीपों (Continents) के नाम से जाना जाता है. भू:, भुवः, स्वः, मह, तप, जन एवं सत्य। ये सातो धरती समेत धरती के ऊपर के लोक (सतह) है जिन्हें प्रत्युष (Lighting Elements of the Solar System) कहा गया है. सूर्य समेत शनि तक सातो ग्रह इनके प्रतिनिधि है. यह एक अति विस्तृत एवं विचित्र प्रसंग है. जिनका वर्णन पुराणों एवं शास्त्रों में विविध शीर्षकों के अधीन किया गया है. मैं यहाँ शँख के बारे में कहना चाहूँगा। पौराणिक कथाओं के अनुसार प्रथम देव-दानव युद्ध में जब देवताओं की पराजय हो गई. तब देवता भागकर कोटरों, खोह एवम धरती के नीचे सुरक्षित स्थानों पर छिप गये. और वही पर कालक्षेप करते हुए शक्ति संचय का प्रयत्न करते रहे. अंत में इनके विविध प्रयत्न- अनुष्ठान्न एवं तपश्चर्या से प्रसन्न होकर शक्तिपुञ्जा मणिद्वीप वासिनी माता भुवनेश्वरी ने उन्हें समयानुरूप तात्कालिक आवश्यक शस्त्र “तूर्यन्दक” निर्माण का तकनीकी ज्ञान प्रदान किया। इस तूर्यन्दक के विप्लवकारी एवं उग्र तरंगित (Terribly Waved) निनाद (Sound) से दानवो के कर्णपटह (श्रवण ग्रन्थि) अवरुद्ध हो गये. जिसका लाभ उठाते हुए देवताओं ने दानवो का वध करना शुरू कर दिया। और देवता फिर अपनी सत्ता वापस किये। बहुत वर्षो बाद में जब दानवो को देवताओं के इस शस्त्र का पता चला तो फिर अगले युगों में उन्होंने देवताओं को परास्त कर उनसे “तूर्यन्दक” छीन लिये। तत्कालीन दानवो का अधिपति “विभ्रान्डक” ने उस तूर्यन्दक से “ख” अर्थात आकाश या अंतरिक्ष लोक के वासियों (देवताओं) का शमन करना शुरू किया। ध्यान रहे उसने दमन नहीं बल्कि शमन करना शुरू किया। और उसके शमन “ख” के कारण उस तूर्यन्दक का नाम कालान्तर में “शँख” पड़ गया. और उस राक्षस का नाम “शंखचूड़” पड़ा. उसके शमन नीति के कारण ही उसका विवाह देवपुत्री “वृन्दा” से हुआ था. देवताओं ने उस शँखचूड़ से वृन्दा के बदले शँख माँग लिया था.
प्रसंग बहुत बड़ा हो जाएगा। मुख्य विषय पर आता हूँ. कल्प, युग, मन्वन्तर आदि बदलते चले गये. इस शस्त्र का रूप, स्वभाव एवं उपयोगिता में भी समयानुसार परिवर्तन होता चला गया. और यह शँख अपने रूप एवं निर्माण भेद के कारण विविध प्रभाव वाला हो गया. महर्षि अर्चिश्रुत (याज्ञवल्क्य प्रथम) के अनुसार शँख मात्र पाँच ही प्रकार का होता है. वारुण, पर्जन्य, माहेश्वर, नारायण एवं पाञ्चजन्य। इसमें नारायण शँख को ही दक्षिणावर्ती शँख कहा जाता है. तत्वार्थ संहिता में इसका रहस्यमय भेद बताया गया है. ये पाँचो शरीर निर्माण में सन्निहित पञ्च तत्वों के मूल भूत पदार्थ है. जिनके कारण इसे धारण करने वाले को त्रिविध ताप – अधिदैहिक, अधिदैविक एवं अधिभौतिक, नहीं सताते है.
इन पाँचो शंखो से वृद्धि क्रम में पाँचो स्वर निकलते है. ध्यान रहे स्वर मात्र पाँच ही होते है. अ, इ, उ, ए और ओ. शेष “आ” एवं “ऐ” आदि इनके ही दीर्घ (अ + अ = आ) रूप है. इसके अलावा “अँ” और “अ:” मिश्रित है- यथा अ + न या म = अँ आदि.
इस प्रकार वारुण से एक स्वर, पर्जन्य से दो, माहेश्वर से तीन, नारायण से चार एवं पाञ्चजन्य से पाँच स्वर निकलते है.
क्षमा कीजिएगा। विषय विचलन हो जा रहा है.                                           काल परिवर्तन एवं समय की माँग के अनुरूप इस शँख की निर्माण प्रक्रिया उसकी उपयोगिता को ध्यान में रखकर बदलती चली गयी. युद्ध-प्रतियोगिता एवं संघर्ष आदि में विजय के लिये वारुण, शत्रु, रोग एवं दैविक या भूत प्रेतादि प्रपंचात्मक विनाश के लिये पर्जन्य, विवाह, संतान प्राप्ति के लिये माहेश्वर, धन, भूमि-भवन-वाहन आदि के सुख के लिये नारायण (दक्षिणावर्ती) तथा यश, सम्मान एवं पारलौकिक सुख के लिये पाञ्चजन्य शँख प्रशस्त बताया गया है.
वास्तव में यह शँख चन्द्रमा, लक्ष्मी, अमृत, कल्पवृक्ष, वैद्यराज धनवंतरी एवम मनोवाञ्च्छा वस्तु प्रदान करने वाली कामधेनु के साथ उत्पन्न हुआ. इसलिये इसमें इन सबका प्रभूत अंश विद्यमान रहता है. वैसे तो इसके साथ विष भी समुद्र से निकला जो अपने को छिपाने के लिये इन सब अमृत तुल्य औषधियों का कठोर आवरण बनाकर अपने ऊपर डाल लेता है. और सजीव होकर इनका उपभोग करता रहता है. इसीलिये सजीव शँख को नहीं धारण किया जाता। उसमें से जीव (कीड़े) को निकाल दिया जाता है.
वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य————————–
शँख वास्तव में सुधांशु (Calcium) का प्रभूत एवं समृद्ध संग्रह है. यही कारण है कि चन्द्रमा को सुधांशु एवं औषधिपति कहा गया है. इस शँख के अन्दर रहने वाला जीव या कीड़ा अपने सम्वेदना तंतु (Tentacles) के सहारे इन विविध पदार्थो का पता लगा लेता है. इसके पृष्ठ भाग में आठ ग्राही अंग अर्थात इकट्ठा करने वाले अंग होते है. इनकी सहायता से यह उन पदार्थो को अपने ऊपर चिपकाने के लिये प्लूटोथैमिया (एक फेविकोल की तरह का पदार्थ) उत्पन्न करता है. जिससे रासायनिक अभिक्रिया (Chemical Reaction) कर के उन पदार्थो को अपने ऊपर चिपकाता चला जाता है. इसमें कैल्सियम, आयरन, सोडियम, गंधक, अमोनिया, फास्फोरस, रिबोफ्लेविन, फ्रक्टोज, माल्टोज, मेगनीसियम आदि प्रमुख है. कुछ एक घोघे (Moles) टिटेनियम एवं थोरियम भी चिपका लेते है. किन्तु इनकी संख्या बहुत कम होती है. ये घोंघे मक्सिको की खाड़ी में ज्यादा पाये जाते है.
जब इन कीड़ो के प्रचलन तंतु विपरीत क्रम (Anti Clock wise) चलते है तो इनका मुँह सीधा खुलता है. अर्थात इनका मुँह बाईं तरफ खुलता है. और जब सीधा चलता है तो इनका मुँह दाहिनी तरफ खुलता है. सीधा चलने में ग्राही (Adopter) अंगो को कठिनाई से पीछे हरक़त करना पड़ता है. जिससे सान्द्र अवलेहो की परत इनके ऊपर जमा हो जाती है. और इनमें अनेक बहुमूल्य यौगिको – डीकोफ्लेविन, नियासिटासिन, पेन्टोथिसिन हाईड्रोब्रोमाइड, साईना कोबाल्मिन की मात्रा बहुत अधिक होती है. किन्तु इनके संयोजन में आरोही संश्लेषण का अभाव होता है. इसलिये इनका सीधा प्रयोग नहीं किया जा सकता। इसीलिये औषधि निर्माता कम्पनियाँ इसका भष्म, चूर्ण एवं पर्पटी आदि बनाकर व्यवहार करती है. यही कारण है कि दक्षिणावर्ती तथा पाञ्चजन्य आदि शंखो की महत्ता बहुत ज्यादा है.
इसके अलावा इन शंखो के जल से बाहर आने पर इनका सीधा संपर्क सूर्य के अनुवर्ती, विषमवर्ती, अनुषांगिक एवं परावैगनी (Ultraviolet) आदि से हो जाता है. जिससे जिस शँख के बाहरी सतह पर ट्रिनेटीलेक्सिन का लेप ज्यादा होता है उससे एक अद्वीतीय शक्तिशाली किरण निकलती है. अभी आधुनिक विज्ञान इसकी सतह या रहस्य तक नहीं जा सका है. किन्तु इतना अवश्य कहता है की कोई अदृष्य विकिरण इससे होता है. और यह जहाँ रहता है वहाँ अनेक रोग, विषमताएँ आदि उत्पन्न करने वाले विषाणुओं का विनाश कर देता है. आधुनिक विज्ञान इसके और भी अनेक रहस्यों से चमत्कृत है. और इस पर खोज जारी है.
किन्तु प्रकृति के इस अलौकिक रहस्य तक पहुँचना लगभग असंभव है. कारण यह है कि इसके लिए मात्र धन या एकाँगी या स्वार्थ परता से प्रभावित प्रयत्न ही पर्याप्त नहीं है. बल्कि संयम, नियम, सदिश लक्ष्य एवं चतुर्दिक स्वस्थ मष्तिस्क की भी आवश्यकता है. जो आज के इस “मैटिरीयालिस्टिक” युग में छल, कपट, व्यभिचार एवं अधार्मिक दिनचर्या में सर्वथा असंभव है. इन सबकी खोज प्राचीन मनीषियों, महर्षियों, ऋषि-मुनि एवं तपस्वियों ने बहुत साधना एवं तपश्चर्या के उपरांत की थी. जिनका अनुकरण आज का विज्ञान कर रहा है. अपनी तरफ से विज्ञान नया कुछ नहीं कर रहा है.
ये शँख धन धान्य वृद्धि कारक, रोग, शोक, भय, चिंता, अपयश एवं लौकिक पारलौकिक दोष निवारक पार ब्रह्म परमेश्वर की संसार को अनमोल देन है. शँख चाहे कोई भी हो उसे घर में रखना सदा ही लाभ प्रद है. उसमें भी ऊपर बताये पाँचो शँख तो अभूतपूर्व चमत्कारिक परिणाम देने वाले है. ध्यान यह रहे कि यह जहाँ पर रखा हो वहाँ कोई अनुलोमवर्ती या विषम गति गामी प्रतिरोधक क्षमता वाला अन्य कोई अवरोधक उपस्थित न हो. यदि संदेह हो कि घर में या दूकान, व्यवसाय स्थलपर ऐसी कोई वस्तु हो सकती है तो इसके साथ में पारद शिवलिंग या शालिग्राम की बटिया रख देवे।
पण्डित आर के राय
Email- khojiduniya@gmail.com

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