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स्वयं सड़क पर बैठा पण्डित दूसरो को धन लक्ष्मी यंत्र बाँटता है.

वेद विज्ञान
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आज आप देखते है, ढेर सारे लोग टीवी पर प्रचारित होने वाले धनवर्षा यंत्र अंधाधुंध खरीद रहे है. किन्तु लोग कितने सीधे सादे भोले एवं निर्बल बुद्धि वाले है कि वे यह नहीं समझ पाते कि इसका टीवी पर प्रसारण करने वाले उद्घोषक (Announcer- Anchor) जो बेचारे एक छोटी तनख्वाह पर दिन भर चिल्लाते रहते है, खुद ही क्यों नहीं धारण कर लेते ताकि उन्हें नौकरी की कोई ज़रुरत नहीं पड़ती। या फिर ज्योतिषी-पण्डित अपने ग्रह-नक्षत्रो को क्यों नहीं बलवान बना लेते ताकि उन्हें दुकान खोलकर दिन भर सामने की सड़क पर कसाई की भांति किसी शिकार को फाँसने एवं हलाल करने के लिए टुकुर टुकुर ताकना नहीं पड़ता। या फिर सब लोग यंत्र धारण कर लेते और नौकरी-व्यवसाय आदि की किसी को ज़रुरत नहीं पड़ती। या ज्योतिषी-पण्डित वशीकरण-सम्मोहन विद्या के बल पर देश विदेश के पूँजी पतियों एवं मंत्रियो आदि को वशीभूत कर के उनसे मनमानी सम्पदा-नौकरी आदि ले लेते।

यह छोटी सी बात लोगो की समझ में क्यों नहीं आती?
यन्त्र-तंत्र आदि विशेष ग्रह-नक्षत्र आदि से पीड़ित किसी अवस्था विशेष वाले व्यक्ति के लिए ही प्रभावी हो सकता है. संलग्न चित्र के अंतिम श्लोक में जो “खेटोल्लास” के पर्व 28 के अध्याय 9 से लिया गया है उसमें महर्षि ऋषभ कात्यायन ने इसे स्पष्ट कर दिया है-
“हे जम्भ मुनि! जीव जगत पर ग्रहों के (विकिरण के) प्रभाव से होने वाले (अनुकूल या प्रतिकूल) प्रभावों में विचलन या उन्मूलन के लिये अनुशंसित यंत्रो की रचना यंत्र तंत्र शास्त्र के उदगम स्थल भगवान डमरू धारी (भगवान माहेश्वर) ने अपने भूत-प्रेत-पिशाच-बेताल तथा तन्त्र शक्ति की श्रोत स्वरूपा माता कालिका ने डाकिनी-हाकिनी-चुड़ैल आदि अनुचरियो के सिद्ध्यर्थ स्वयं प्रवर्तित किया था. जिसमें एक ही यंत्र-तंत्र को अपने भक्त की प्रकृति, अवस्था, आयु, दशा एवं कर्म के अनुसार पृथक पृथक किया था.”
शाबर रहस्य, डामर तन्त्र लीला, शक्ति संगम तंत्र, शक्ति रहस्य आदि विविध ग्रंथो में भी इसका स्पष्ट उल्लेख कर दिया गया है. फिर भी लोग अंधा बहरा बन कर इन यंत्रो को खरीदने की होड़ लगाए हुए है. आप स्वयं देखिये, इनमें से क्या सबको इसका लाभ या अनुकूलता प्राप्त हुई है? कदापि नहीं। किसी व्यक्ति ने अपने व्यवसाय को सुचारू रूप से चलाने के लिये कौन कौन सा यंत्र-तंत्र धारण नहीं किया। पूरी दूकान ही विविध यंत्र-तंत्र से भरी पड़ी है. किन्तु फिर भी दशा दिन प्रतिदिन और ज्यादा खराब होती चली जा रही है. और अब वह व्यक्ति यह कहने को मज़बूर है कि उसने सारे यंत्र-तंत्र आदि कर के लिये, कोई फ़ायदा नहीं होने वाला है.
जन्म के समय ग्रहों की दशा, उनकी स्थिति, उनके बलाबल की गणना के उपरांत पहले उसके लिये पूजा-यंत्र-तंत्र आदि का निर्धारण किया जाता है. उसके बाद उसे कौन सा यंत्र धारण करना है? उसकी क्या लम्बाई-चौड़ाई होनी चाहिये? कितना वजन का होना चाहिए? आदि को गणित कर के निकाला जाता है. तब यंत्र का निर्माण किया जाता है. इस प्रकार एक ही यंत्र कई रूप, प्रकृति एवं प्रभाव वाला हो जाता है.
उदाहरण स्वरुप यदि किसी के जन्म के समय मंगल कष्ट कारी है. जन्म के समय मंगल कर्क राशि में १२ अंश भोग रहा है. उस पर शनि की दृष्टि है. शनि वृषभ राशि के 20 अंश पर भोग रहा है. इस प्रकार मंगल 102 अंश पर है. तथा शनि 50 अंश पर है. दोनों का अंतर 62 अंश का हुआ. मंगल का रंग लाल (सुर्ख नहीं) तथा शनि का रंग नीला होता है. अतः यंत्र का सतह (नीला + लाल= काला) काला होगा। या धातु लोहा होगा। अब दोनों के अंतर की संख्या में 4 से भाग देगें। जो शेष आये उतना ही लंबा चौड़ा यंत्र पीठ होगा। यदि शेष शून्य हो तो यंत्र 4 अंगुल ही लम्बा होगा।उस पर शनि-मंगल के काले (कुजार्कि गोधूमकदल्यपत्रमशेषकम) अर्थात गेहूँ की राख के केला एवं अश्वगंधा के रस में मिश्रण से बनी स्याही से यंत्र के अक्षरों को भर कर बनाया गया यंत्र ही उपरोक्त व्यक्ति के लिये लाभ देने वाला होगा।
अभी संभवतः आप को स्पष्ट हो गया होगा कि एक ही यंत्र एक आदमी के लिए लाभकर एवं दूसरो को हानि पहुँचाने वाला क्यों हो जाता है?
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