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देवी-देवता, प्रकार, प्रकृति एवं पूजन विधान

वेद विज्ञान
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मान्यताओं के अनुसार हमारे देवी देवताओं की संख्या 330000000 (तैतीस करोड़) है. प्रत्येक देवी-देवताओं की प्रकृति, स्वभाव, रूप-रँग, कार्यशैली एवं स्थिति के कारण ही इन्हें तैतीस करोड़ वर्गों में बाँटा गया है. और इन्हे चौरासी लाख योनियो में विभक्त किया गया है. ध्यान रहे प्रत्येक प्राणी में “ईश्वर अंश जीव अविनाशी” के कारण देवत्व स्थाई रूप से निवास करता है. इसलिये प्रत्येक प्राणी देवता है. और इसीलिये संत शिरोमणि गोस्वामी तुलसी दास ने लिखा है कि-
“सीयराम मय सब जग जानी। करौं प्रणाम जोरि युग पानी।”
यही नहीं। आप्त वाक्य भी देखें-
“ऊर्ध्वानिष्ठयो जहाति प्रत्ययं प्रगल्भोभिप्रायते।
चर्त्याचार विभङ्ग सृजति युगे चतुर्दश भुवनेषु यद्.”
वेदो में इन समस्त देवी देवताओं एवं विविध विभूतियों की संतुष्टि या प्रसन्नता हेतु या इनका सम्यक लाभ या अनुकूलता पाने के लिये पृथक पृथक स्तुति, विधान एवं साधन-संसाधन बताये गये है. किन्तु बड़े ही पश्चात्ताप का विषय है कि इस समस्त सैद्धांतिक विधान को दूषित, लाञ्छित एवं भ्रमात्मक करते हुए प्रमाद, अज्ञान या किसी पूर्वाग्रह की अशुभ प्रेरणा से स्वार्थ की येन केन प्रकारेण पूर्ति हेतु इसे कुछ एक मन्त्र-विधान या यंत्र-तंत्र तक सीमित कर इस पर अविश्वास का आवरण पड़ने को बढ़ावा दिया जा रहा है.
उदाहरण स्वरुप शनि का यंत्र शनि की प्रत्येक अशुभ अवस्था के निराकरण या निवारण में समर्थ नहीं हो हो सकता। कुंडली, गोचर एवं कूर्म (भौगोलिक स्थिति) को ध्यान में रखते हुए उसके अनुरूप शनि के यंत्र का निर्माण कर धारण करने से लाभ प्राप्त हो सकता है. जैसे चतुर्थ भाव में शनि की पिङ्गल स्थिति के अशुभ प्रभाव के निवारण हेतु पीतल पट्टिका को जटामांसी एवं भृंगराज के प्रश्रुत रस से अभिषिक्त करने का विधान है. जब कि पाँचवें भाव में शनि की निरभिजात अवस्था के निवारण हेतु धारण किये जाने वाले यंत्र को भोजपत्र पर लिखकर नागफनी, गिलोय एवं अश्वगंधा से जागृत करने का विधान है. इस प्रकार एक ही शनि की बाधा शान्ति हेतु इसके यंत्र के विविध प्रकार निर्धारित हुए है. ध्यान रहे पाँचवें, सातवें एवं नवम भाव के शनि की अशुभता निवारण के लिये ताम्र पत्र पर निर्मित यंत्र धारण करना घातक भी हो जाता है, कारण यह है कि इन तीनो घरो में शनि की अशुभ स्थिति प्राणी के शरीर में डिक्लो मेटाबोलिक सिनीग्रोन को उग्र गति से बढ़ाती है. तथा ऐसी स्थिति में ताम्रपत्र पर निर्मित यंत्र की अभिरेचक किरणे (क्यूप्रस सल्फोसिनिक रेज) सांद्र जैवविप्रतिका (कन्सन्ट्रेटेड एंटीबायोसाइट्रस) श्रृंखलाबद्ध रूप से बढ़ाती जाती है. और व्यक्ति जटिल श्वास या क्षय रोग से पीड़ित हो जाता है. क्योकि बायोसाइटरस शरीर के लैरिंगटिस फैरिंगटिस सिस्टम को डैमेज कर देता है.
इसलिये बहुत सूक्ष्म परिक्षण-निरिक्षण एवं सैद्धांतिक निराकरण के अनुरूप ही किसी भी यंत्र का निर्माण करना एवं उसे धारण करना चाहिये।
Pt. R. K. Rai
Email- khojiduniya@gmail.com

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