ज्योति स्रोत सूर्य तत गुण अग्नि दिन रात तेज वृद्धि हेतु हवि प्रस्तुति से ध्यान की हमारी धारणा को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष जीव की रूप धारण वृत्ति के परिणाम स्वरुप परिवर्तित स्थिति से समृद्ध बनाये।
यह मन्त्र अपने आप में एक बहुत बड़ा ग्रन्थ है. इसकी रहस्यमयी अवधारणा जीवन एवं निर्जीव की द्वैतावस्था के मध्य कड़ी के रूप में अग्नि की परिकल्पना के साथ अवस्थित है. अपरापर विपर्यय के स्वानुपातिक अवलम्बन के द्वारा ये तीनो (शिव, सूर्य एवं अग्नि) प्रत्यक्ष रूप में एक दूसरे से अवबद्ध है. इसीलिये इनका अपना कर्षण क्षेत्र बन जाता है. और इनसे संलग्न होने या सम्बद्ध होने पर प्रकृति या अपर स्थाणुओ को भी प्रतिवर्तन का सहभागी बनना पड़ता है.
आज आधुनिक विज्ञान भी इसे सिद्ध कर चुका है. प्रकाश विन्दु या ऊर्ज़ा केंद्र के चतुर्दिक एक आकर्षण क्षेत्र (Magnetic Orbit) स्वाभाविक रूप से बन जाता है. और उसके क्षेत्र में प्रवेश करते ही सजीव या निर्जीव आलोकित या तप्त हो जाता है. अब यह उस जीव या निर्जीव की आधार कोशिका के अंदर स्थित विविध पदार्थ एवं जीवद्रव्य की प्रवृत्ति-प्रकृति की क्षमता के ऊपर निर्भर है कि किस अनुपात में ये पदार्थ उत्तप्त या आलोकित होते है.
सूर्य वलय तो प्रत्यक्ष है. जिसके अंदर प्रतिक्षण हजारो परमाणु विष्फोट होते रहते है. जिनसे निकलने वाली ऊर्ज़ा एवं प्रकाश से समस्त चराचर जगत प्रभावित होता है.
अब शिवलिंग को देखते है. पत्थर या धातु निर्मित या प्रायः सर्वत्र प्राप्य शिवलिंग संगमरमर या सुधांशु का यौगिक (Compound of Calcium) होता है. इस पर पड़ने वाले दूध, दही, घी, शहद, हल्दी (टरमरिक, टार्टरिक, एसिटिक, साइट्रिक एसिड) आदि अम्लीय एवं क्षारीय पदार्थो के संयोग से उत्सर्जित त्रिविध (ठोस, द्रव एवं गैस) रूप में विविध यौगिक प्राप्त होते है. यथा क्लोराइड, फलोराइड, ब्रोमाइड, हाइड्राइड आदि. ये समस्त यौगिक तभी बनते है जब इनसे उत्प्रेरक (ऊर्ज़ा) निकल जाती है. अर्थात हाइड्रोजन या इसका आक्साइड तीव्र गति से निकलता है.
यह सबको मालूम है कि हाइड्रोजन एक अति ज्वलनशील एवं अदृष्य (Highly inflammable & Invisible) गैस है. और जब यह निकलती है तो ऊर्ज़ा प्रधान होने के कारण इसका वलय बनाना स्वाभाविक ही है.
इस प्रकार जो भी भक्त इस प्रकार के शिवलिंग के (सम्मुख भाग को छोड़) पास बैठता है, वह इस वलय से घिर जाता है. और जिस तरह के पदार्थ से अभिषेक किया जाता है उसके अनुरूप बनने वाले वलय का प्रभाव उस भक्त पर पड़ता है.
इसीलिये किसी भी भक्त को शिव अभिषेक करने के पूर्व अपने ग्रहो की स्थिति को सुनिश्चित करने के बाद ही अभिषेक द्रव्य का निर्धारण करना चाहिये। तब उसके अनुरूप वलय बनेगा एवं उसका अनुकूल प्रभाव प्राप्त होगा।
यही स्थिति सूर्य के साथ भी है. सूर्य नमस्कार के पूर्व शरीर के अंश मेखला, श्रोणिमेखला आदि की संरचना का सम्यक अध्ययन करने के बाद ही अवस्था या प्रकार सुनिश्चित करना चाहिये।
अन्यथा लाभ के बजाय भयंकर उपद्रव का सामना करना पड़ सकता है.
किन्तु बहुत पश्चात्ताप का विषय है कि सूर्य नमस्कार की एक ही विधि हर व्यक्ति को करने की सलाह दी जा रही है. तथा एक ही अभिषेक सामग्री से प्रत्येक व्यक्ति को रुद्राभिषेक करने को कहा जा रहा है.
“वर मरे चाहे कन्या, दक्षिणा से मतलब”. धन्य हो आधुनिक भूदेव!!!!!!!!!!!!
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