हम किसी देवी देवता की प्रसन्नता के लिये स्तुति, प्रार्थना या मन्त्र पढते है. तो मन्त्र में कुछ और पढते है, तथा मन्त्र पढने या जपने का कारण कुछ और ही होता है. एक मन्त्र देखें-
“गंगोत्तरी वेग बलातसमुद्धृतः सुवर्ण पात्रेण हिमांशु शीतलः।
सुनिर्मलाम्भो ह्यमृतोपमम जलम गृहाण देव! हे भक्तवत्सल! . “
अर्थात हे देव! हे भक्त वत्सल! गंगा के उत्तम प्रवाह से प्रयत्न पूर्वक समुचित प्रकार से सोने के पात्र में सुन्दर, निर्मल एवं अमृत तुल्य लाया हुआ जल आप ग्रहण करें।
यह विविध देवताओं को जल देने का मन्त्र है.
आप देखें, आप जब घर पर नित्य जल चढ़ाते है तो क्या आप गंगा जी से ही जल लाकर चढ़ाते है?
क्या आप समुचित प्रकार से गंगा से स्तुति-प्रार्थना कर और उस गंगा माँ से अनुमति लेकर उनसे जल लाते है? भले जल यमुना, गोदावरी, किसी कुऐं या तालाब-मशीन का हो, मन्त्र यही पढ़ेगें।
क्या आप सोने के पात्र से जल चढ़ाते है?
क्या आप साफ़ सुथरा सर्वथा पीने योग्य (अमृत के समान) गँगा के बहते बीच धारा से जल लाकर चढ़ाते है?
स्टील या ताम्बा या पीतल के बर्तन में गंगा के मटमैले जल को हड़बड़ी में लेकर आते है. और उसे चढ़ा देते है. या फिर ऐसा ही जल महीनो पहले घर में लाकर रखे रहते है. और उसे चढ़ाते है. और आप ऊपर देखें मन्त्र क्या पढते है.
मेरे इस कथन पर एक अंधानुयायी सज्जन ने करारा प्रश्न किया –
“मन साफ़ हो तो उस मटमैले जल में भी गँगा का प्रवेश हो जाता है. तथा मिट्टी का भी बर्तन सोने का हो जाता है. सिर्फ श्रद्धा, प्रेम और विश्वास होना चाहिये।”
मैंने पूछा-
“महानुभाव, श्रद्धा, प्रेम एवं विश्वास की इस पराकाष्ठा वाले को फिर इस भौतिक जल को चढाने की क्या आवश्यकता हो गई? फिर वह ऊर्ध्वनिष्ठ भक्त तो मन से ही गँगा से जल निकाल लेगा। मन से ही सोने का लोटा बना लेगा। और मन से कैलाश वासी भगवान भूतनाथ का जलाभिषेक कर लेगा। उसे ऐसे मन्त्र पाठ की कि “गंगा के उत्तम प्रवाह से प्रयत्न पूर्वक समुचित प्रकार से सोने के पात्र में सुन्दर, निर्मल एवं अमृत तुल्य लाया हुआ जल आप ग्रहण करें।” क्या आवश्यकता?” क्या सर्वदर्शी भोलेनाथ को कुछ ज्ञान नहीं या क्या उन्हें दिखाई नहीं देता?
सज्जन निरुत्तर तो अवश्य हो गये. किन्तु उनको बहुत दुःख हुआ जो उनके हाव भाव से स्पष्ट हो रहा था.
मुझे भी पश्चात्ताप हुआ कि एक अच्छे खासे श्रद्धालु को दुखी कर दिया। किन्तु मैं अपने अक्खड़ (फौज़ी) स्वभाव से मज़बूर था (हूँ).
मैं चाहता हूँ कि लोग वेद-पुराण की प्रामाणिकता एवं वास्तविकता पर आँख बंद कर के नहीं बल्कि आँख खोल कर विश्वास करें।
लोग कह देते है या सब के मन में “नारद” के प्रति ऐसी भावना बनी हुई है कि नारद का मतलब “चुगला, झगड़ा लगाने वाला, बरगलाने वाला”.
किन्तु ऐसा नहीं है. देखें-
नारम ददाति यः सः नारदः
अर्थात नार (ज्ञान) को जो देता है वह नारद है.
नार का अर्थ ज्ञान होता है. यथा ‘नार” (ज्ञान) में “अयन” अर्थात घर हो जिसका वह “नार अयन” या नारायन है.
नारी-“नार एव ई यस्याः सा नारी”
“नार” (ज्ञान) ही “ई” (शक्ति) है जिसकी वही नारी है.
पुरुष कभी नारी नहीं होता है. पुरुष नारी का विपरीत लिंगी (या स्वभाव भी) होता है. इसीलिये वह “नारी” नहीं बल्कि इसका विपरीत (विलोम) अनारी है. अनारी का तात्पर्य अल्प बुद्धि होता है.
तात्पर्य यह कि जो हम बोलते है उसका अर्थ एवं उससे उत्पन्न होने वाले प्रभाव से भली भांति परिचित होना चाहिये।
अन्यथा इसके होने वाले विपरीत प्रभाव से भी सामना करना पड़ सकता है.
देखें-
एक बार वृत्तासुर ने अपने राजज्योतिषियों से अपने मृत्यु के बारे में यह जानकार कि इंद्र के हाथो ही उसका वध होगा, उसने इन्द्र के नाश के लिये यज्ञ करवाया। यज्ञ की पूर्ती पर हवन कुण्ड से एक कृत्या निकली और उसने पूछा-
“मया किं करिष्याम?”
अर्थात मुझे क्या करना है?
पुरोहितवृंद बोले-
“इन्द्र शत्रुर्वधस्व।”
अर्थात इन्द्र जो शत्रु है उसका वध करो.
किन्तु पुरोहितो ने इसे इस प्रकार कह दिया-
“इन्द्रशत्रुर्वधस्व”
अर्थात इन्द्र का जो शत्रु है उसका नाश करो.
अभी उस समय इन्द्र का शत्रु वृत्तासुर से बढ़ कर कौन था? जो इंद्र को ही मरवाने के लिये यज्ञ कर रहा था.
कृत्या ने झट से वृत्तासुर का सिर काट लिया।
इंद्रशत्रु का विभेद दो प्रकार से होगा-
तत्पुरुष समास के अनुसार इन्द्र का शत्रु। जब कि बहुब्रीहि (?) के अनुसार इन्द्र जो शत्रु।
अभी आप शब्दो के प्रभाव, व्यवस्था एवं संतुलन से परिचित हो गये होगें।
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