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मेरे फेसबुक मित्र जी ऊर्फ भगवान के ठेकेदार

वेद विज्ञान
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मेरे फेसबुक मित्र जी ऊर्फ भगवान के ठेकेदार
भाषा मेरी कटु है. अतः कइयों को तीखी लगेगी। किन्तु मैं इसकी चिन्ता नहीं करता। अभी कुछ देर पहले मुझे मेरे एक फेसबुक मित्र ने बताया कि वह भगवान का प्रत्यक्ष दर्शन करा रहे है. वह भगवान को सदा अपने पास रखते है. और उन्हें इच्छा होती है तो दूसरो को बुलाकर दिखाते है.
निरर्थक रूप से उन्होंने मुझे चुनौती दे डाली। मुझे कहे कि तुमको कुछ नहीं मालूम। तुम्हें कुछ भी ज्ञान नहीं है.
मैं तो पहले ही बता चुका हूँ कि मैं ज्ञानी अपने लिये और अपने काम के लिये हूँ. मुझे दूकान नहीं खोलनी है. जहाँ पर ज्ञान का व्यापार करूँ। दूसरी बात यह कि मुझे भगवान को क्यों देखना? क्यों उसे ढूँढना? क्यों उसका घर जानना? क्या वह मेरा हिस्सेदार है? क्या उससे मुझे झगड़ा, हाथापाई करना है? मुझे जब जिस चीज की आवश्यकता होती है वह उसे दे देता है. जब मैं अपनी औकात या आवश्यकता से बढ़कर मांगता हूँ तो नहीं देता है. जरूरत के मुताबिक़ वह मेरी हर व्यवस्था सुनिश्चित एवं सुव्यवस्थित कर देता है, फिर मुझे उसके आवास निवास से क्या लेना देना?
जब भगवान आवश्यकता एवं औचित्य के मुताबिक़ हमारी हर आवश्यकता पूरी कर रहा हो तो हमारा कर्तव्य है कि हम अब उसकी अपेक्षा एवं निर्देश के अनुसार काम करें।
“कौवा कान लेकर भागा इससे मतलब नहीं होना चाहिये।”
भूखे को भोजन से मतलब होना चाहिये। भोजन की शुद्धता, उसकी पौष्टिकता एवं उसकी नैरुज्यता से मतलब होना चाहिये। हमें इससे क्या लेना देना कि भोजन किसने बनाया है?
यद्यपि उन्होंने जिस लहजे में पूछा मैंने उसी लहजे में उनका उत्तर भी दिया।
मैंने पूछा कि आप को कैसे पता कि जिनको आप “पापा” कहते है, वाही आप के जन्म दाता पिता है? क्या प्रमाण आप के पास है?
उन्होंने उत्तर दिया कि वह मेरे साथ पिछले 30 साल से रह रहे है.
अर्थात यदि पिछले तीस साल से घर में कोई जानवर भी उनके साथ रहता होगा तो वह पिता ही होगा? आखिरइसका क्या प्रमाण उनके पास है?
यद्यपि मुझे शास्त्रार्थ में न कोई रूचि है और न ही मैं किसी भी विषय पर निरर्थक वाद विवाद करना चाहता हूँ. जिस चीज से मेरा कोई लेना देना नहीं, जिससे मुझे कोई गीला शिकवा नहीं उसके स्थूणाभिखनन से क्या फ़ायदा?
अस्तु मैं मुख्य विषय पर आता हूँ.
भूगर्भ सर्वेक्षण विभाग (Geological Survey of India) के सदस्य जमीन के अंदर गहराई में दबे हुए सोने का पता कैसे लगाते है? क्या वे पहले जमीन के अंदर घुस जाते है. फिर उस सोने को निकाल कर लाते है. नहीं बल्कि वे जमीन के ऊपर से ही रहते हुए ध्वन्योत्पादक प्रक्षिप्त किरणें ( Ultrasonic Magnified Rays) पहले गहराई में भेजते है. और प्रत्यावर्तित किरणो से उस स्थान पर स्वर्ण भण्डार को सुनिश्चित करते है.
तो क्या जमीन में गढ़ा स्वर्ण भण्डार खुदाई से पहले उन्हें अपनी नँगी आँखों से दिखाई नहीं देता है तो वह नहीं मानेगें?
हाथ को हम नाना विध साफ़ करते है. साबुन आदि से धोते है. खूब रगड़ रगड़ कर साफ़ करते है. हाथ बिलकुल साफ़ नज़र आने लगता है. किन्तु फिर भी जब हम सूक्ष्म दर्शी से देखते है तो हाथ पर विषाणु-कीटाणु रेंगते दिखाई देते है. तो क्या नँगी आँखों से कीटाणु नहीं दिखाई देते तो क्या मान लेते है कि कीटाणु नहीं है? जो चीज जिस विधि या प्रकार से देखीजा सकती हो उसे उसी तरह देखी जानी चाहिये।
यदि भगवान भी आदमी की तरह टहलने, खाने-पीने लगे, घूम घूम कर “फेसबुक फ्रेंड” बनाने लगे, “मेक अप” कर के विविध पार्टी-जनसभा करने लगे, राजनीति करने लगे या दूकान चलाने लगे, सोने, बैठने लगे या फिर प्राणियो की तरह व्यवहार करने लगे तो फिर एक प्राणी एवं भगवान में अंतर क्या रह जायेगा?
जिस तरह से दूर की वस्तु को देखने के लिये चश्मा में अलग तरह का शीशा होता है, नजदीक के लिये अलग, धुप के लिये अलग आदि, उसी तरह भगवान को देखने के लिये अलग आँख होती है. इन आँखों से जिससे संसार की अनिष्टकारी, अहितकारी, अनैतिक, भ्रष्टाचार पूर्ण, ठगी, पाखण्ड, व्यभिचार आदि सब कुछ देखते एवं उसका दुःख सुख अनुभव करते है उसी आँख से भगवान को देखने की इच्छा को मूर्खता नहीं तो और क्या कहा जा सकता है?
भगवान का भी यदि प्राणियो की तरह एक निश्चित रूप, आकार, रँग, आवास, आचार-व्यवहार एवं अनुभूति होती तो उन परमेश्वर को सदा प्रत्येक युग में एक निश्चित योनि में ही अवतार ग्रहण करना पड़ता।
फिर भगवान क्यों कभी मछली के रूप में (मत्स्यावतार), कभी सूअर के रूप में(वराहावतार), कभी कछुए के रूप में (कच्छपावतार), कभी बौना के रूप में (वामनावतार) और जब कोई रूप नहीं मिला तो नृसिंहावतार के रूप में अवतरित हुए?
“ॐ सहस्र शीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्र पात. स भूमिं सर्वतो पृत्वात्यतिष्ठद्दशांगुलम।
उसका न तो कोई एक रूप है, न आकार है, न रँग है, न कोई निश्चित आवास-स्थान है।  क्योकि उसे पता है कि शरीर धारण करने एवं सांसारिकता के निर्वाह में विविध अधिभौतिक एवं आधिदैविक यातनाओं से गुजरना पडेगा।फिर वह क्यों कर एक निश्चित रूप, आकार या स्थान-आवास आदि अपने लिये निर्धारित करे? क्या वह भी हम सांसारिक प्राणियो की भाँति “मैं अरु मोर तोर तै माया” में घिर कर नाना अभिगर्हित क्रियाओं में संलिप्त होवे? फिर उसके सर्वान्तर्यामी एवं सर्वश्रेष्ठ होने का क्या औचित्य?
बड़े पश्चात्ताप का विषय है कि हम अपने आप को ढूँढ नहीं सके, जान नहीं सके, पहचान नहीं सके और जगन्नियन्ता को जानने के लिये बिना किसी अवलम्बन के अंतरिक्ष में छलाँग लगाने।
अब ऐसी अवस्था में यदि कोई कहे कि मैं भगवान को प्रत्यक्ष दिखा सकता हूँ. तो निश्चित रूप से यह घोषणा लोगो को छलने, उन्हें सन्मार्ग से भटकाने या हिंदुत्व के मूल स्वभाव या भावना का मूलोत्खनन ही कहलायेगा। और भ्रम मूलक विचार तथा अन्धविश्वास को बढ़ावा देते हुए पाखण्ड के सहारे “अपनी धर्म एवं विद्वता की दूकान” खोलकर भोली भाली श्रद्धालु जनता को मूर्ख बनाकर उन्हें प्रशोषित करना या सीधे शब्दो में “जोंक की तरह चूसना” ही कहलायेगा।
जैसा कि मैं पहले ही बता चुका हूँ कि मेरे लेखो के कारण कुछ विशेष “पण्डित माफिया गिरोह” में भयंकर हड़बड़ी मची हुई है. बहुतो की दूकान बंद हो गई है. और “खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे” की भाँति मुझे ऊटपटांग सवालो से घेरने की कोशिश की जा रही है.
मैं बता दूँ, मेरे पास न तो कोई दूकान है, न कार्यालय और न ही व्यवसाय। चाहे कोई मेरी बात माने या न माने मेरे वेतन पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। और न ही प्रोमोसन रुकने वाला है.
हाँ, मैं पुनः एक नेक सलाह दे सकता हूँ कि यदि यह व्यवसाय करना है तो जन सामान्य को पूर्ण एवं स्थाई विशवास में लेकर व्यवसाय चलायें। अंध विश्वास में लेकर नहीं।
अब कोई माने या न माने।
‘कोउ नृप होहि मोहि का हानि। चेरी छोडि न होबे रानी।”
मैं फौज़ी हूँ, फौज़ी था, और फौज़ी रहूँगा।
मुझे न तो ऋषि-मुनि बनना है और न ही इस लुच्ची सस्ती ख्याति का लालच है.
पण्डित आर के राय
Email- khojiduniya@gmail.com

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