जब भी कोई कार्य किया जाता है तो कुछ न कुछ किसी न किसी रूप में आंशिक ही सही परिवर्तन या निर्माण या नाश ही होता है. या दूसरे रूप में किसी के मूल या प्रारम्भिक स्वरुप में परिवर्तन थोड़ा या ज्यादा, ही कार्य कहलाता है.हाइडोजन एवं आक्सीजन दोनों अपने मूल रूप में पड़े है. ये दोनों ही गैस अदृष्य होती है. किन्तु जब दो अणु ( Molecule) हाइड्रोजन एवं एक अणु आक्सीजन का मिला दिया जाता है तो वह पानी बनकर दिखाई देने लगता है. इन दोनों अणुओ का मिश्रण करना क्रिया या कार्य या कृति कहलायेगा। यही कार्य जब किसी विशेष सुव्यवस्थित, सुनियोजित, संतुलित एवं क्रमिक रूप में विशाल स्तर पर होता है तो उसे प्र (प्रकृष्ट या बड़ा) कृति या प्रकृति कहते है. इस कृति के कारण ही आकृति बनती है. अन्यथा (जैसे आक्सीजन का कोई रूप, रंग या आकार प्रकार या गंध नहीं होता है) नयी कृति या अस्तित्व का जन्म कैसे हो सकता है. जब कृति (आ + कृति अर्थात कृति से घिरा हुआ जैसे आजीवन आदि) होगी तो विविध द्रव्यों-वस्तुओ का भौतिक एवं रासायनिक संयोग होना शुरू हो जाएगा। और वही जब प्रकृति के द्वारा होगा तो यही कार्य विशाल स्तर पर होगा। जैसे हाइड्रोजन एवं आक्सीजन मिल कर पानी बनायेगें। फिर पानी उबलकर वाष्प के रूप में परिणित होकर वायु मण्डल में (सहस्र गुणं उत्सृष्टम् आदत्ते हि रसम रविः) जायेगा। या शरीर में प्रवेश करेगा। वहाँ पर उपस्थित अन्य विविध भौतिक एवं रासायनिक द्रव्यों एवं पदार्थो से संयोग करेगा। जैसे हाइड्रोजन वहाँ पर उपस्थित नाइट्रोजन, कार्बन आदि अन्य पदार्थो के संयोग से विविध जटिल रासायनिक यौगिकों (Complicated Chemical Compounds) का निर्माण करेगा। जैसे RNA, DNA, Cellular Fluid के अलावा अन्य जटिल प्रोटीन एवं कार्बोहाइड्रेट्स का निर्माण करेगा। इस प्रकार सजीव एवं निर्जीव आदि की सृष्टि होती चली जायेगी। चूंकि मूल भूत द्रव्यों या पदार्थो में विक्षोभ या परिवर्तन या मिश्रण का कार्य किया गया या कृति को प्रकृति के द्वारा किया गया तो एक निश्चित रूप या आकार प्रकार मिलता या बनता चला गया. और जो चीज या कार्य प्रकृति ने नहीं किया उसे कोई रूप या आकार-प्रकार नहीं मिल पाया। अर्थात जो प्रकृति की पहुँच से परे या क्षमता से दूर रहा वह प्रकृति नहीं कहलाया और न ही उसे कोई रूप या आकार मिला। और यही परम शक्ति शाली जगन्नियन्ता कहलाया जिसे महान शक्ति शालिनी प्रकृति तक न स्पर्श कर सकी. इसीलिये परमेश्वर का न तो कोई रूप है न आकार-प्रकार। क्योकि वही मूल है. वास्तविकता है. सत्य है. शेष सब मिश्रण या बनावटी है. कृत्रिम है. अर्थात प्रकृति आदि शक्तिशाली अवयवो की पहुँच से दूर, ज्ञान से परे किन्तु सद्ज्ञान से ज्ञेय और प्रबल एवं सदिश इच्छा शक्ति से अपना सान्निध्य प्रदान करने वाला पुरुष ही परमेश्वर है.
चूंकि इसका कोई एक निश्चित आकार प्रकार नहीं है. वह कई या अनेक रूपो में है. इसीलिये यह ऋषि-मुनि आदि का आप्त वाक्य है-
“एको सद्विप्राः बहुधा वदन्ति।”
अर्थात वह (परमेश्वर) एक ही है. उसे सद्विप्र बहुत प्रकार से कहते (बताते) है.
तुलसी बाबा भी यही कहते हैं-
“हरि अनंत हरि कथा अनंता। कहहि सुनहि बहु विधि सब सन्ता।”
क़ुरान में भी यही कहा है-
“अल्लाह हो अल हक़.”
या-
“अल हम्द लिल्लाह रब उल आलमीन”
यही सब दर्शाने के लिये ईश्वर ने कभी मानव (राम-कृष्ण आदि) के रूप में अवतार लिया तो कभी जन्तु (मत्स्य-सूअर-कच्छप आदि) के रूप में. और स्पष्ट बताया कि मेरा न तो कोई रूप है और न ही कोई रूप विशेष प्रिय है. भगवान को जितना प्रिय कौआ (काकभुशुण्डि) है उतने ही प्यारे वशिष्ठ। अतः यदि कोई भगवान का दर्शन कराने या उसे वशीभूत रखने का दावा करता है, तो सच्चाई परखना आप का काम है.
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