(प्रस्तुत उद्धरण मेरे द्वारा मेरे फेसबुक मित्र को दिया गया उत्तर है)
वैसे तो व्यर्थ के वाद विवाद से कुछ हासिल होने वाला नहीं है. किन्तु यदि मेरे पास भी सरकारी नौकरी नहीं होती और मेरी भी ज्योतिष की दूकान नहीं चलती तो मुझे भी मन मारकर जबर्दस्ती श्री दवेजी महाराज की तरह खुश रहना ही पड़ता। आज यश, प्रतिष्ठा, सम्मान एवं आदर की बहुत बड़ी गठरी बाँध कर सिर पर रख कर समूचा बाज़ार घूम लीजिये कोई चाय वाला भी अपनी दूकान पर नहीं बैठने देगा। और भले ही कोई भ्रष्टाचारी, लुच्चा, दुष्ट एवं हत्यारा हो उसके पास सारे अपयश भरे हो, कोई सम्मान-प्रतिष्ठा न हो,किन्तु उसके पास यदि पैसा है तो उसकी अगवानी करने वाले हजारो मिल जायेगें। यही जमीनी हकीकत है.वरना नीति शतकं में ही लिखा है–
“सर्वे गुणाः काञ्चन माश्रयन्ति।”
दूसरी बात यह कि केवल गुड गुड कहने से मुँह मीठा नहीं होता है. परिवार के भरण पोषण के लिये थोथे सम्मान एवं प्रतिष्ठा की नहीं बल्कि पर्याप्त वित्त एवं वृत्तिका की आवश्यकता होती है. उसके लिये प्रयास करना पड़ता है. त्रिलोकी नाथ भगवान कृष्ण के मित्र एवं प्रकाण्ड पण्डित ब्राह्मण सुदामा भी अपने छोटे से परिवार का भरण पोषण अपनी विद्वत्ता से नहीं कर पाया। बल्कि उसे भी हाथ फैलाने द्वारका श्रीकृष्ण के दर पर जाना ही पड़ा.आपने ठीक (पता नहीं किस परिप्रेक्ष्य में?) ही कहा है कि (वर्त्तमान समय में) किसी अच्छे पण्डित को हाथ फैलाने की कोई आवश्यकता नहीं है यदि वह परशुराम का वंशज हो. अर्थात हाथ न फैलाये बल्कि गला पकड़ कर अपनी मजदूरी (दक्षिणा) ले लेवे।
बड़े पश्चात्ताप का विषय है कि यदि कोई डाक्टर, पुलिस या वकील पैसा मांगता है तो वह पैसा “फीस” कहलाता है. उसमें कोई कटौती नहीं है. कोई मीन-मेष नहीं निकालता है. किन्तु यदि पण्डित ने माँग दिया तो उससे इतना मोल भाव एवं हेय दृष्टि से व्यवहार किया जाता है जैसे वह जरखरीद गुलाम हो.
एक और मेरे फेसबुक मित्र ने मेरे एक कथन पर टिप्पड़ी की है कि मजदूर तो दूसरे के अधीन अपने मालिक के निर्देश के अनुसार काम करता है. वह तो ईंट जोड़ कर महल तैयार कर देता है. उसकी मजदूरी तो प्रत्यक्षतः सार्थक है. वह पंडितो के समान ठगी या पाखण्ड नहीं करता है. क्योकि यदि वह कम काम करेगा तो उसे पूरी मजदूरी नहीं मिलेगी। इसलिए उसे तो उतनी ईंट ईमानदारी से जोड़नी ही है. मैंने पूछा कि कहाँ मजदूर सच्चाई से काम करता है? कभी कम सीमेन्ट से जुड़ाई करता है तो कभी कम मसाला लगाकर ईंट जोड़ता है. उन्होंने बताया कि वह तो ठेकेदार के कहने पर जैसा वह कहता है. वैसा मजदूर करता है. मैंने कहा कि तभी तो देखिये बड़ी बड़ी बिल्डिंग तास के पत्ते की तरह धरासाई हो जाती है. और कितनो कि जान चली जाती है. वह महाशय बोले कि इसमें ठेकेदार की गलती है न कि मजदूर की. मैंने कहा कि क्या मजदूर के पास कोई नैतिकता नहीं? क्या वह गलत काम करने से इंकार नहीं कर सकता है? क्या वह ठेकेदार से गलत काम करने से मना नहीं कर सकता है? तो महाशय ने उत्तर दिया कि तो फिर उसे काम कौन देगा? उसे भूखो मरने की नौबत आ जायेगी।
तब मैंने कहा कि यही बात पंडितो पर लागू क्यों नहीं होती? उसके बाल बच्चो का भरण पोषण कैसे होगा? क्या सारी नैतिकता का ठेका पंडितो ने ही ले रखा है? या किस पंडित को उसकी नैतिकता की क्षतिपूर्ति दी जाती है?
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