चाहे गुरु हो या शुक्र, चन्द्रमा हो या बुध, भले ही कुण्डली में शुभ भाव में बैठे हो, और उच्चस्थ ही क्यों न हो, किन्तु फिर भी शुभ फल नहीं देगें यदि उनका वेध हो रहा हो. अर्थात गुरु भले ही केंद्र में तथा अपने उच्च कर्क राशि में ही क्यों न बैठा हो तथा उस पर भले शुक्र, चन्द्र आदि की दृष्टि हो या इनसे युक्त हो, किन्तु यदि इसके वेध स्थान में कोई ग्रह बैठा हो तो गुरु अशुभ फल देने लगता है.—–
अर्थात सूर्य का 6=12, 10=4, 5=11, 3=9 स्थानो में परस्पर वेध होता है. जैसे सूर्य छठे हो और बारहवें कोई दूसरा ग्रह हो सूर्य को ग्रह से परस्पर वेध होता है. इसी तरह आगे भी जानें-
यहाँ पर मैंने गुरु का वेध नहीं बताया है क्योकि गुरु का वामवेध भी होता है. जिसे मुहूर्त मार्तण्ड, मुहूर्त चिंतामणि, पिंडाचार, खखोल्काचारम आदि में बताया गया है. यदि थोड़ा प्रयत्न किया जाय तो इसकी वैज्ञानिक पृष्ठ भूमि भी स्पष्ट हो जाती है.
गुरु- 2=12, 5=4, 11=8, 7=3, 9=10
किन्तु इसके वाम वेध का मतलब यह होता है कि जैसे 2 में गुरु हो तथा 12वें कोई ग्रह हो तो अशुभ होता है. किन्तु इसके विपरीत यदि 12वें गुरु हो तथा 2 में कोई ग्रह हो तो यह वेध बहुत शुभ होता है. जब कि अन्य ग्रहो के साथ ऐसा नहीं होता है.
भौगोलिक तथ्यो से यह स्पष्ट है कि हिमालय एवं विन्ध्याचल के बीच वाले देशो में वेध राशि की गणना उस राशि से करनी चाहिये जिस राशि में ग्रह हो. जैसे सूर्य जन्म काल में जिस राशि में हो उससे छठी राशि में गोचर में हो और सूर्य से बारहवें कोई दूसरा ग्रह हो तो वेध होगा। ऐसा ही सब ग्रहो में समझें। किन्तु दूसरे देशो में जन्म राशि से ही दोनों ग्रहो को देखना चाहिये। जैसे जन्म राशि से छठे सूर्य और बारहवें दूसरा ग्रह हो तो वेध होगा।
कारण यह है कि विन्ध्योत्तर का क्षेत्र शेष भूखंड से 40 से 89 अंश तक उठा हुआ है. जिससे ग्रहो के द्वारा नित्य संचरण में यहाँ की राशियाँ सीधे इनके प्रभाव में आ जाती है. जब कि शेष भूखण्ड में भू परिधि के पश्चिमी जीवा का नजदीकी संपर्क चन्द्रमा से रहता है. ध्यान रहे झुके हुए भाग सदा चन्द्रमा के कर्षण क्षेत्र में होते है जिससे वहाँ पर ज्वार भाटा हमेशा आता रहता है. जब कि सूर्य के स्पष्ट प्रभाव में आने वाले भूखण्ड के निवासी प्रायः काले या साँवले रँग के होते है. इसी तथ्य को ऊपर के श्लोक की अंतिम दो पंक्तियो में बताया गया है.
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