मैं अपनी पिछली छुट्टी में अपनी लड़की की शादी के लिये एक लड़का देखने गया. लडके के पिताजी से पता चला था, उन्हें कोई दहेज़ नहीं चाहिए था. अंधे को और क्या चाहिये। एक छोटी निश्चित रकम के वेतन पर काम करने वाले कर्मचारी को अपनी बेटी की शादी बिना दहेज़ के करने को मिल जाय इससे बड़ी बात और क्या चाहिये? मैं उनके घर पहुँचा। बहुत आव भगत हुई. अव्वल दर्जे का स्वागत सम्मान हुआ. जो सब्जी उस घर में खाई नहीं बल्कि सुनकर ही उसके स्वाद का अहसास किया जाता था, वह सब्जी बाजार से मँगाई गई थी. जमाने से सहेज कर रखा गया तोशक एवं बेडशीट हमारे लिये बिछाया गया था. बिना पानी डाले दूध में कड़क चाय पेश की गई. बाजार की सबसे मँहगी मिठाई मँगाई गई थी. यानी कि बकरे को हलाल करने के पहले फूलमाला और सुन्दर भोजन घास आदि चुन चुन कर डाला गया था. यद्यपि इन सबसे ही मैं पहले ही अनुमान लगा लिया था कि परिवार में दिखावापन बहुत ज्यादा है. मैं ही क्या कोई भी सहज ही अनुमान लगा सकता था. मैं तो बल्कि देर में अनुमान लगाया। खैर, जब भोजन पानी हो गया तो वार्ता मुख्य विषय की तरफ मुड़ी। बड़े ही सरल भाव में “राय साहब” ने कहना शुरू किया ——————–
“मैं दहेज़ का सख्त विरोधी हूँ. यदि मुझे अपने बलबूते पर अपनी कमाई का धन नहीं मिलेगा तो दूसरे के दिये धन से कितना धन इकट्ठा हो सकता है. और मैंने लडके को पढ़ाया है तो लड़की वाले ने भी तो अपनी लड़की को शहर में रख कर इतनी मँहगी उच्च शिक्षा दी है.”
फिर थोड़ा रुक कर कहना शुरू किये————–
” अब रही बात परम्परा की, तो उसमें मैं कुछ नहीं कह सकता। आप को जो अच्छा लगे वह कीजियेगा। अब शादी में कुछ न कुछ तो खर्च हो ही जाता है. जिसे परम्परा के अनुसार लड़की वाला ख़ुशी ख़ुशी सहन करता है. जैसे कि आने जाने के साधन का खर्च, तिलक के दिन दरवाजे पर खिलाने पिलाने का खर्च, लाइट, टेन्ट, बाजा, जेनेरेटर और आर्केष्ट्रा आदि. एक ही बात थोड़ी सी मेरे परिवार में आज तक परम्परागत रूप से चली आ रही है. मेरी पाँच बहनें, तीन बूआ, तीन लड़कियाँ और भाभी भवय मिलाकर 12 औरतें है. उन्हें लड़की वाला डेढ़ डेढ़ तोला सोना देता है. बाकी लड़की को बिदाउ गहना तो सभी लड़की वाले अपने शौक से ख़ुशी ख़ुशी देते ही है. लेकिन हमें कुछ नहीं चाहिये।”
उनकी निश्छल निष्कपट निःस्वार्थ बात से मेरे मष्तिष्क में साँय साँय हो रहा था. मैंने अनुमान लगाया कि अट्ठारह टोला अर्थात 210 ग्राम सोना इनके घर के लिये, आने जाने का खर्च लाइट, टेंट आदि लिये दिये सब बारह लाख पड़ रहे थे. मेरे साथ एक और मेरे मित्र थे. उनकी भौंहें फड़क रही थीं. किन्तु इशारो से मैं उन्हें दबा कर रखा था. किन्तु आखिर उनसे नहीं रहा गया और कह ही दिये—
” राय साहब यह सब तो ठीक है. किन्तु उसके साथ आटा, चावल, दाल, नमक, हल्दी आदि कितना भेजना पडेगा। क्योकि अभी उसकी उम्र 22 साल की है तो औसत रूप से चालीस साल तो उसे जीना ही पडेगा। फिर लड़का भी खायेगा पियेगा।”
इतना कह कर मेरे साथी उठ खड़े हुए. मुझे भी उठना पड़ा. और हम चलते हुए “बाढ़ बरहिया” रेलवे स्टेशन पर वापसी के लिये गाडी पकड़ने पहुँच गये.
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