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है. बड़े उल्लास के साथ सब एक दूसरे का सामान पसंद कर एवं चुन छाँट कर खरीदने के लिये कह रहे हैं.
मैं चुप चाप अपने चारो तरफ की सफ़ेद बर्फ से ढकी पहाड़ी चोटियों की उस श्रृंखला को देख रहा हूँ जिसके बीच कुछ पक्षी चहकते हुए परस्पर किलोल करते हुए या मेरी तरफ देख कर मानो मुँह चिढ़ाते हुए कह रहे है कि——–“ऐ फौज़ी!! कई मंज़िला घर भले बनवा लोगे। धन दौलत भले इकट्ठा कर लोगे। किन्तु इन सबके साथ गाँव, घर, परिवार और बीबी बच्चो के साथ रहने का सुख आनन्द नहीं उठा पाओगे। देखो हम अपने गाँव जा रहे है.”——
और फिर मानस पटल पर गाँव की छबि धीरे धीरे उभरनी शुरू होती है.————-
मैं भी घर जा रहा हूँ. गाडी यद्यपि पूरी गति से भाग रही है. खिड़की से देखता हूँ तो बाहर पेड़ पौधे भी उतनी ही गति से पीछे भागते चले जा रहे है. किन्तु मुझे लगता है कि गाडी बहुत धीरे चल रही है. यह क्यों नहीं जल्दी घर पहुँचा रही है. दरवाजे पर गाँव के लडके इकट्ठा होगें। किसी के हाथ में गन्ना होगा। कोई गुड लिया होगा। सब लोग रास्ते की तरफ भाग भाग कर देख रहे होगें। कोई कहता होगा काका “ड्रेस” पहन कर आयेगें, कोई कहता होगा बन्दूक लेकर आयेगें। दरवाजे पर जामुन के पेड़ के नीचे अलाव जल रहा होगा। आस पड़ोस के कुछ जवान एवं बुज़ुर्ग लोग बैठे हाथ सेंक रहे होगें। पास के खेत में गेहूं की सिंचाई हो रही होगी। खेत में पानी घुसने पर मिटटी में से कीड़े पतंगे निकल रहे होगें। उन्हें पकड़ने के लिये बगुलों का झुण्ड मँडरा रहा होगा।
————-और बाहर वाली कोठरी के खिड़की से झाँकते हुए मेरी बुढ़िया पण्डितानी बड़े ही विलाप भरे कातर स्वर में गुन गुना रही होगी————-“रेलिया ना बैरी मोटरवा ना बैरी , बलु पईसावा बैरी ना. पीया के भेजलसि दूर देशावा ई पईसावा बैरी ना–—————–
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