चाहे कोई विज्ञान हो वह ज्योतिष महाविज्ञान का दास ही बन कर रहेगा
वेद विज्ञान
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चाहे कोई विज्ञान हो वह ज्योतिष महाविज्ञान का दास ही बन कर रहेगा
यह अलग बात है कि आज के धूर्त, पाखण्डी, छली-कपटी, अनपढ़, उदर भरण पोषण हेतु इसे “ज्योतिष” के नाम की बिकाऊ वस्तु बनाकर अपनी अपनी दुकानो में इसका तरह तरह के विषैले रंग रोगन से “मेकअप” कर आकर्षक एवं भड़कदार बनाकर बेच रहे है. जिससे उनके पीढ़ी में आने वाली उन्ही की संतान अब उनके इस छद्म रूप को पहचान कर ज्योतिष छोड़ अन्य तुच्छ ज्ञान विज्ञान का अध्ययन कर रहे है. कही दस हजार ज्योतिषियों में कोई एक ज्योतिषी मिलेगा जिसका बेटा या बेटी ज्योतिष के अध्ययन में रूचि रखता होगा। अन्यथा सब अब वकील, डाक्टर या इंजिनियर की पढ़ाई में लगे है. बहुत मजबूरी या किसी विपन्नता के कारण ही कोई ज्योतिषी कि संतान अब ज्योतिष या कर्मकाण्ड के काम में लगा होगा।
भगवान माहेश्वर एवं भार्गव शुक्राचार्य का यह कथोपकथन एवं औषधिपति चन्द्रमा को अमृत भरे गङ्गा के साथ अपने सिर पर धारण करने वाले कालतंत्र प्रवर्तक भगवान रूद्र के द्वारा यह बताये जाने पर भी कि अंतरिक्ष में संचरित प्रकाश पिण्डो के आलोक में तत्सम्बन्धित सजीव निर्जीव प्रकरण विश्वकल्याण के लिये प्रचारित प्रसारित होवे, यदि कोई कहता है कि ज्योतिष का सम्बन्ध चिकित्सा शास्त्र से नहीं है तो इसे दुर्भाग्य नहीं तो और क्या कहा जायेगा?
ज्योतिष को इसीलिये तीन भागो में बाँट कर अध्ययन करने का प्रावधान है-संहिता, गणित एवं फलित।
संहिता के तीन भाग है- न्याय, पिण्ड एवं कल्प।
पिण्ड के तीन भाग है- दैर्ध्य, अनुदैर्ध्य एवं प्रलम्ब। ध्यान रहे शव साधना दैर्ध्य एवं अनुदैर्ध्य का ही विकृत रूप है. जिसे कालान्तर में विलक्षण बुद्धि वाले शरीर शास्त्री (Anamorphousist) जिसे शरीर रचना का सूक्ष्म ज्ञान हो गया था अपनी मानसिक विकृति के कारण अपने ज्ञान का दिशाहीन एवं दुरुपयोग करते हुए इसे एक ऐसा रूप दिया जिसे कुछ अल्पज्ञ साधको ने “शवसाधना” के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया।
====यह सामान्य बुद्धि का विषय है कि शरीर विज्ञान के ज्ञान के बिना चिकित्सा विज्ञानी कहलाना एक दरिद्र पूँजीपति के सामान निरर्थक शब्द ही कहलायेगा।
आज वर्त्तमान चिकित्सा विज्ञान आधुनिक चिकित्सा को पूर्णतया विकिरणात्मक रूप प्रदान कर दिया, यहाँ तक कि शल्यचिकित्सा भी किरण प्रायोजित हो गई, इतने पर भी ज्योति विज्ञान या विकिरण विज्ञान (Radiology) को ग्रह प्रायोजित विविध प्रभाव, निर्माण एवं ध्वंसात्मक क्रिया न मानकर अपनी अल्पज्ञता का ही परिचय ज्योतिषाचार्य लोग दे रहे है.
क्या ऋषियो मुनियो ने विविध ग्रहो के विकिरण के प्रभाव स्वरुप उत्पन्न विकृति के शमनार्थ, निवारणार्थ या चिकित्सा हेतु जो पदार्थ या वनस्पति बताये है वह सब आज के ऐसे ही तथा कथित ज्योतिषाचार्यो द्वारा दारु शराब पीकर नशे में कहा गया है?
क्या ग्रहो की समिधाओं का निर्धारण बिना सोचे समझे निराधार ही थोप दिया गया है?
क्या ग्रहो के लिये द्रव्य निर्धारण आज के चुने गये भ्रष्ट राजनीतिज्ञो के द्वारा संसद में बहुमत से पारित कराकर किया गया है?
===क्या ज्योतिष पितामह महर्षि पाराशर आज के तथाकथित ज्योतिषाचार्यो की तरह दुकान खोल कर बैठे थे जिन्हें सामान बेचने से मतलब होता है जितना ज्यादा से ज्यादा सामान बिक जाय चाहे वह सामान सही हो या न हो?===
“प्रीतये तु नभोगाना-मोदनं गुड मिश्रितम्।
पायसं च हविष्यान्नं क्षीरषाष्टिक मेव च.।
भक्तं सदधि सार्ज्यम सचूर्णम् सामिषम तथा.
चित्रान्नमिति विप्रेभ्यो अशनं देवं ससत्कृतिः।।
(बृहत्पाराशर होराशास्त्र अध्याय 85 श्लोक 24 एवं 25)
ग्रहो के प्रीत्यर्थ गुड युक्त भात, पायस, हविष्यान्न, दूध से बना हुआ साठी चावल का भात, सदधि भात, सघृत भात, सचूर्ण भात (तिलचूर्ण युक्त भात), मांसभात, तथा चित्राक्ष (खिचड़ी) अर्पण एवं दान हेतु प्रशस्त है.
इसमें पूड़ी, मालपुवा, रोटी आदि का उल्लेख नहीं हुआ है. क्या ऋषि मुनि केवल चावल दाल ही खाते थे या देखे थे? क्या उन्होंने गेहू या आटा नहीं देखा था? क्या रोटी या पूड़ी उन्हें खाने को नहीं मिलता था?
इनमें से प्रत्येक पदार्थ विशेष यौगिक रस रसायन से युक्त है जो स्थिति विशेष, ग्रहविशेष या व्यक्ति विशेष पर प्रयुक्त होता है और जिसे त्रिकालदर्शी ऋषि मुनि एक ठोस परीक्षण, अनुभव एवं अन्वेषण-विश्लेषण के बाद निर्धारित निश्चित एवं निर्देशित किया।
इनमें से अनेक का रासायनिक विश्लेषण एवं चिकित्सकीय गुण-क्रिया-प्रभाव आदि का विस्तृत विवरण जागरण जंक्शन पर प्रकाशित अपने लेखो में दे चुका हूँ.
ज्योतिष की सूक्ष्म दृष्टि से कुछ भी छिपा या अदृश्य नहीं है सिवाय अद्वैत के. सृष्टि क्रम को निश्चित कर अपने द्वैत रूप आत्मा को निःस्पृह साक्षी के रूप में नियुक्त कर जिन सिद्धांतो एवं नीतियो के प्रतिबन्ध से इस लोकालोक को सृष्टि नियामक अद्वैत पारब्रह्म परमेश्वर ने मर्यादित-परिसीमित किया उसे आलोकित करने के लिये एक निश्चित कालकर्म में अंतरिक्ष में विविध ज्योतिपिण्डो को स्थिर किया उसके आंकलन-परिगणना एवं समाहार का नाम “ज्योतिष विज्ञान” दिया गया.
इस त्रिगुणात्मक सृष्टि के अभिनव भूमिका के तदनुरूप माध्यमो को त्रिनाड़ी के रूप में जाना जाता है. जिसे आदि, मध्य और अन्त्य के नाम से जाना जाता है. कुण्डली मिलान में नाड़ी के मिलान को सन्तान सुख के रूप में देखा जाता है.
आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में संतानोत्पादक सूत्रो को गुणसूत्र (Chromosome) के नाम से जाना जाता है. ये तीन तरह के होते है. XX , YY एवं XY. यदि पुरुष एवं स्त्री दोनों के गुणसूत्र समान हुए तो निषेचन नहीं हो पाता है. और सन्तान हीनता झेलनी पड़ती है. जब एक का दूसरे से भिन्न गुणसूत्र होगा तभी सन्तान उत्पन्न हो सकती है.
अब यदि इसे अंग्रेजी में X और Y आदि न कह कर हिन्दी में आदि, मध्य आदि कह दिया गया तो क्या अंग्रेजी या हिंदी भाषा से इसका रूप, प्रभाव आदि भी बदल जायेगा?
तो क्या आयुर्वेद इतना अशक्त हो गया है कि रोग के निदान एवं लक्षण निर्धारण के उपरांत भी उसका उपचार नहीं कर सकता है?
जी नहीं, लाचार आयुर्वेद नहीं बल्कि हमारी बौद्धिक दरिद्रता,
पाप से लबालब भरा मन मस्तिष्क,
झूठी हठवादिता, अपनी मूर्खता को छिपाने का प्रयास या घोर लबार एवं पाखण्डिता का प्रदर्शन है. जिससे महान विज्ञान ज्योतिष कलंकित होवे।
कुण्डली मिलान में नाड़ी ही नहीं सबके मिलान का प्रतिबन्ध है. तथा दोष उत्पन्न होने पर उसका इलाज़ भी है. चाहे वह नाड़ी हो या ताराबल, भकूट हो या वश्य-वर्ण आदि.
नाड़ी के सम्बन्ध में एक उदाहरण-
यदि वर का जन्म नक्षत्र अश्विनी हो तथा कन्या का आर्द्रा नक्षत्र हो तो नाड़ी दोष होगा। और संतान हीनता का सामना करना पडेगा। किन्तु इसका निदान शत प्रतिशत है. विविध प्रामाणिक ग्रंथो में इसका परिहार दिया गया है. अब यदि किसी ने मुहूर्त मार्तण्ड या मुहूर्त चिंतामणि आदि ग्रन्थ का नाम ही नहीं सूना हो तो उसे क्या पता कि
“अश्वत्थामा मरो नरो वा कुञ्जरो।”
अस्तु मैं इसके चिकित्सकीय प्रारूप को दिखाऊंगा-
समस्त कुण्डली में उपरोक्त उदाहरण के परिप्रेक्ष्य में यदि वर की कुण्डली में अश्विनी नक्षत्र अपने मित्र आदि ग्रहो की दृष्टि युति आदि से बलवान हो तो कन्या के आर्द्रा नक्षत्र के स्वामी का विधि पूर्वक पूजन आदि करे तथा तत्सम्बन्धी पदार्थ, वनस्पति आदि का भैषज्य यंत्रादि के रूप में सेवन/प्रयोग आदि करे. संतानहीनता समाप्त हो जायेगी। इसके विपरीत यदि लड़की का जन्म नक्षत्र आर्द्रा बलवान हो तो लडके के जन्म नक्षत्र अश्विनी के दोष शमनार्थ प्रयत्न करे. निश्चित सफलता मिलेगी।
मृत्यु नामक रोग को छोड़ अन्य समस्त दैहिक, दैविक एवं भौतिक रोग दोष का कोई भी ऐसा पहलू नहीं है जो आयुर्वेद की दृष्टि से परे हो. हमारी दृष्टि से भले परे हो सकता है. क्योकि हमारे क्षुद्र ज्ञान की सीमा हमारे थोथे घमंड तक सीमित है जहां से आगे देखने में हम अपनी हेठी समझते है.
किन्तु बड़े पश्चात्ताप का विषय है कि आधे अधूरे ज्ञान के बल पर ज्योतिषीय प्रारूप को ही चुनौती दे दी जाती है तथा ऐसे ही अधकचरे ज्योतिषाचार्य ज्योतिष को बदनाम करने के लिये ज्योतिष अध्ययन संस्थान आदि भी खोल लेते है. जहाँ से शिक्षा प्राप्त कर ऐसे ही विषैले ज्योतिषाचार्यो का उद्भव होता है.
मेरा ज्योतिषाचार्यो से अनुरोध है कि यदि ज्ञान नहीं है तो सीखने का प्रयत्न करने में कोई लज्जा की बात नहीं है. किन्तु थोथी हठवादिता एवं दिखावे की विद्वत्ता से विज्ञान बदनाम होता है. और इससे हानि ज्योतिष को नहीं बल्कि ज्योतिषाचार्यो को ही है कि उनकी अगली पीढ़ी भीख माँगने योग्य भी नहीं रह जाती। क्योकि उस पीढ़ी के पूर्वजो ने तो इसका बंटाधार कर दिया। अब पीढ़ी कौन राह जावे?
इसी तरह कालसर्प योग को भी कुछ विपन्न बुद्धि ज्योतिषाचार्यो ने प्रामाणिक मानने से इंकार किया और सबको भ्रम में दाल दिया। जिसके लिये मुझे विविध आर्ष मत एवं ग्रंथो से उसे उद्धरण के साथ प्रमाणित करना पड़ा.
किन्तु विविध धूर्त एवं पाखण्डी अपने नाम के प्रचार प्रसार के लिये महान व्यक्तित्व या विद्या पर लाँछन लगाने का काम करते है ताकि लोगो की निगाहें सहज ही उसकी तरफ आकर्षित हो जाय. और उसकी दुकान या संस्था में ग्राहको की संख्या में इज़ाफ़ा हो सके.
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