===मंगल कुण्डली में दशवें भाव में बलवान होता है. लेकिन क्यों? आखिर ऋषि मुनियो ने क्या ऐसे ही जो कुछ उटपटांग मन में आया कह दिया?
दशवें भाव में उच्चस्थ शनि सबसे बलवान होता है. क्योकि इस तरह शनि एक तो लग्नेश होकर उच्चस्थ हुआ. दूसरे पञ्चमहापुरुष योग बनाया। तीसरे चूँकि शनि स्वभावतः पापी है. तथा पापी ग्रह का केंद्रपति होना शुभ होता है. इस प्रकार शनि तो परम शक्तिशाली हुआ.
===किन्तु इस प्रकार शनि या कोई अन्य ग्रह किसी विशेष अवस्था में बलवान होता है. किन्तु मंगल चाहे नीच का ही क्यों न हो वह सदा बलवान होता है. यह कितना बलवान होगा इसे गणित से निकाला जा सकता है. पर थोड़ा हो या ज्यादा, होगा बलवान ही.
क्या कारण है?
आप ने सुना होगा, मंगल का एक नाम “वक्र” भी है. कारण यह कि इसका एक हिस्सा पूर्णतया चपटा है. गोल यह केवल अपने वलय के कारण दिखाई देता है. वलय भी गहरे लाल रँग के होने के कारण इसका चपटा सतह बिलकुल नजर नहीं आता है. और वलय भी इसका इतना सघन होता है कि इसका वेधन सिर्फ धारा नामक गामा किरण (टर्बोक्लिफ्ट गामा किरण) ही कर सकती है. इसके अलावा चाहे कोई अन्य किरण कितनी भी शक्तिशाली क्यों न हो इसका वेधन नहीं कर सकती है. इसी प्रयोग के आधार पर वर्त्तमान अंतरिक्ष विज्ञानी मंगल ग्रह के इस वलय को पार कर मंगल ग्रह पर पहुँचे है. किन्तु अभी आज तक उन्हें इसके चपटे सतह पर जाने का अवसर नहीं मिला। क्योकि चपटी सतह का कर्षण बल सौर मण्डल के अन्य ग्रहो की तुलना में एक हजार गुना ज्यादा है. और यह कर्षण केवल धातुओं पर ही नहीं बल्कि ऊष्मा के नितांत कुचालक (Bad Conductor) तत्वो पर भी सक्रीय होता है.
अस्तु, प्रसंग विचलन हो जाएगा,
मंगल का यह सतह चपटा पृथ्वी के अंदर वर्षो के रासायनिक एवं भौतिक अभिक्रिया के पश्चात टूट कर अलग होने का परिणाम है. चूंकि यह भूमि से टूट कर अलग हुआ है इसीलिए इसका एक नाम “भौम” भी है. सौर मण्डल के प्रत्येक ग्रह परस्पर के लगातार वर्षो के कर्षण-विकर्षण से टूटते पिचकते लुढ़कते गोल हो गये. किन्तु मंगल का यह सतह भयंकर ज्वाला ग्रस्त लावा युक्त ठोस सतह के कारण प्रचण्ड किरण जाल के वलय से घिर गया. और इसके इस सतह का अन्य ग्रहो का कर्षण-विकर्षण प्रभावित नहीं कर पाया। इसलिये इसका यह भाग आज भी चपटा ही है.
प्रलय के बाद या भविष्य में इसके भी रूप का परिवर्तन हो सकता है. इसके बारे में भविष्य वाणी असम्भव है. क्योकि प्रलय के बाद इनका अस्तित्व क्या होगा यह पारा प्रकृति ही जाने।
मंगल का उभरा गोल भाग फूला हुआ है. इसीलिये संचरण मार्ग में इसका यह भाग धरती (या जिसकी कुण्डली है) से उभरे भाग की तरफ से नजदीक पड़ता है. किन्तु जब चपटा भाग आता है तब स्वभावतः दूर हो जायेगा। और इस प्रकार यह जब धरती या जिसकी कुण्डली है उसके जन्म लग्न से 270 से लेकर 299 अंशो तक होता है तब बहुत दूर होता है. ध्यान रहे 300 अंशो के बाद कोई भी ग्रह (धरती या लग्न) से नजदीक होना शुरू हो जाता है. इस प्रकार दूर होते ही इसकी आग्नेयता बहुत दूर हो जाती है तथा कुण्डली के शेष समस्त शुभ भावो देदीप्यमान हो जाते है तथा अपने स्वाभाविक फलो को भलीभाँति देना शुरू कर देते है. ध्यान रहे , लग्न से लेकर सातवें भाव तक समस्त शुभ भाव होते है, केवल नवें एवं दशम भाव को छोड़ कर. उसमें भी दशम भाव तो स्वयं मंगल से आच्छादित ही रहता है. और आरोही नवाष्टम होने से नवाँ भाव भी केवल स्थिति के अनुसार ही शुभ होता है. इसीलिए शास्त्रो में मंगल को अग्निकारक ग्रह कहा गया है.
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