जब मेड ही खेत को खाने लगे तो फिर फसलो की रक्षा का क्या होगा? कौन करेगा रक्षा?======
बहुत पहले जब बौद्धिक क्षमता का शनैः शनैः ह्रास होना शुरू हुआ. पण्डित एवं ज्योतिषाचार्यो के व्यवहार, आचरण एवं काम-लोभ आदि प्रेरित सोच विचार के कारण उनके प्रति लोगो की विश्वसनीयता समाप्त होने लगी तो धीरे धीरे पण्डित एवं ज्योतिष के अध्ययनार्थी या व्यावसायिक ज्योतिषी भी इस महाविद्या के जटिल एवं श्रम साध्य मूलभूत सिद्धांतो के अभ्यास से विमुख होने लगे. कठिन गणित एवं संहिता अध्यायों के अध्ययन एवं उनकी व्याख्या से कतराने लगे. आधे अधूरे एवं सर्व सामान्य सिद्धांतो को प्रत्येक जगह इस्तेमाल करने लगे. विशेष नियम सिद्धांत को उपेक्षित करने लगे. और आज स्थिति यह हो गई है कि उन सिद्धांतो को ही गलत बता कर लोगो को तो गुमराह कर ही रहे है, साथ में इस महाविद्या के प्रणेताओं को भी “सठियाई बुद्धि” वाला बताने लगे है.
++++++सभी जानते है कि फल या भाग्य दो तरह का होता है–एक तो दृष्ट जो प्रत्यक्ष दिखाई दे जैसे सूर्य ग्रहण, चन्द्र ग्रहण, वर्षा, भूकम्प, बाढ़, महामारी आदि जिससे एक विशाल भूखंड प्रभावित हो तथा दूसरा अप्रत्यक्ष जिसे अदृष्ट कहते है, जैसे संतान प्राप्ति, रोग, विवाह, व्यापार, सुख आदि. इसके लिये कुण्डली निर्धारण हेतु प्राचीन मनीषियों, आचार्यो तथा ज्योतिर्विदों ने दो तरह के लग्न की व्यवस्था की है. प्रथम तो जो क्रान्तिवृत्ति, पलभा तथा चरपल आदि के आधार पर लंकोदय तथा स्वोदय मान से निकालते है. तथा दूसरा सूर्य के भुक्त राशि के चक्र के द्वारा।
लंकोदय तथा स्वोदय मान भूखंडो या Mass Community के लिये प्रयुक्त होता है क्योकि इससे अंतरिक्ष के राशि खण्डो के परिप्रेक्ष्य में लग्न का निर्धारण होता है. किन्तु जब यह धरती के जीवा-अर्द्धचाप या राशि खंड के आधार पर निर्धारित हो तो वह प्राणी विशेष के लिये हो जाता है. ऋषि-मुनि आदि प्राचीन ज्योतिर्विदों ने इस महाविज्ञान के परिकल्पना की सीमा निर्धारण किसी व्यक्ति के लिये नहीं बल्कि समस्त सृष्टि के लिये की थी. क्योकि उनकी सोच या परिकल्पना संकीर्ण या पक्षपात पूर्ण या स्वार्थ लोभ आदि से दूषित नहीं थी. इसीलिये उन्होंने इस महाविद्या को मात्र प्राणियो तक सीमित नहीं रखा. और समष्टि के कल्याणार्थ एक नियम प्रति पादित कर उसकी शाखाएँ, अध्ययन तथा अनुभव की सुविधा को ध्यान में रखते हुए निष्पादित की. और इस तरह प्राणी विशेष के हितार्थ काल्पनिक लग्न की व्यवस्था कर दी. इसका स्पष्ट विवरण ज्योतिष पितामह महर्षि पाराशर ने अपनी जातक संहिता एवं होराशास्त्र में कर दी है—
“अथ वक्ष्यामि ते भावलग्नादीनि द्विजोत्तम।
यज्ज्ञानतः फलादेशे क्षमा होराविदो जनाः।।
सूर्योदयात पञ्चबाणदलैकघटिकामिताः।
भावहोराघटीलग्नमितयः क्रमशो द्विज।।”
(वृहतपाराशर होरा शास्त्र अध्याय 4 श्लोक 38 एवं 39)
अर्थात सूर्योदय से भाव लग्न पाँच, होरालग्न ढाई एवं घटी लग्न 1 घटी प्रमाण होते है. तात्पर्य यह कि सूर्योदय के समय जो राशि हो वह प्रथम लग्न तथा उसके बाद प्रत्येक 5 घटी अर्थात दो घण्टे पर अगली लग्न होती है. अब यह देख लें कि सूर्योदय के कितने घण्टे बाद जन्म हुआ है उतने घंटे पर जो राशि होगी वह जन्म लग्न होगी।
किन्तु हाय रे पापकर्मा ज्योतिषाचार्य!!!!!!!!
पाराशर के मत को भी न मानते हुए अपनी मूर्खता, पापलिप्तता एवं विधर्मिता का परिचय देते हुए समष्टि लग्न साधन को व्यक्तिगत लग्न साधन के लिये प्रयोग कर समस्त श्रद्धालु एवं धर्मभीरु लोगो को धोखा देते हुए उन्हें भी पथभ्रष्ट, धर्मभ्रष्ट एवं धनभ्रष्ट कर रहे है.
========और आज कल तो कम्प्युटर में ऐसे ही आधार हीन झूठे एवं दूषित गलत विवरण भर कर उसके आधार पर कुण्डली बनाने की बाढ़ आ गई है. और जोर शोर से ज्योतिष को उखाड़ फेंकने का काम सरकार तो कर ही रही है, साथ में उसके “एजेंट” बने थोथे, पाखंडी एवं ठग ज्योतिषाचार्य बरसाती कुकुरमुत्तो की तरह चारो तरफ फ़ैल कर तरह तरह के भड़कदार शीर्षक वाली दुकान खोलकर इसी विधा का प्रयोग करते हुए लोगो की ज्योतिष से विश्वसनीयता समाप्त कर रहे है.
======एक महाशय ने मुझे कहा कि शूलदशा, संध्यादशा, पाचकदशा तथा छायादशा आदि दक्षिण भारतीयो के लिये प्रभावी है. मैंने उनसे पूछा कि किस ज्योतिष प्रणेता ने यह बात बताई है या किस प्रामाणिक मूल ग्रन्थ में लिखा है या गणितीय रूप से इसे सिद्ध करें तो बोले कि अपना काम करो और जाओ तनख्वाह पाने के लिये अपने अफसरो के तलवे चाटो। यह सब तुम्हारे वश का रोग नहीं है.
यद्यपि इसका जबाब मेरे पास था किन्तु ऐसे एक अत्याचारी को जबाब देकर मैं क्या कर पाउँगा?
“हर शाख पे उल्लू बैठे हो, अंजामे गुलिश्तां क्या होगा?”
और ये धर्म भ्रष्ट, जाति भ्रष्ट एवं ज्ञान भ्रष्ट कठमुल्ले पण्डित,+++ जब गणित करने नहीं आया, या उसका ज्ञान नहीं है, या उसकी उपोगिता नहीं जानते तो यह कह कर लोगो को गुमराह कर देते है कि यह विधा उत्तर भारतीयों के लिये लागू नहीं है. इसका प्रयोग केवल दक्षिण भारत में होता है.
जैसे षोडशोत्तरी, अष्टोत्तरी आदि दशाओं का ज्ञान या उनकी उपयोगिता नहीं ज्ञात है तो कह देते है कि यह केवल दक्षिण भारत में लागू है. जब कि महर्षि पाराशर ने ऐसा कोई प्रतिबन्ध न लगाते हुए कहा है कि—–
“कृष्णे दले दिने जन्म सिते नक्तं भवेद्यदि।
अष्टोत्तरी दशा तत्र फलादेशार्थमीरिता।।”
(वृहत्पाराशर होराशास्त्र अध्याय 47 श्लोक 21)
अर्थात कृष्ण पक्ष में यदि दिन का जन्म हो तथा शुक्ल पक्ष रात में यदि जन्म हो तो दोनों स्थिति में फलादेश के लिये अष्टोत्तरी दशा ग्रहण करनी चाहिये।
किन्तु इस अष्टोत्तरी दशा को निकालने के लिये नक्षत्रो में अभिजित नक्षत्र की भी गणना करनी पड़ेगी। जब कि विंशोत्तरी दशा में केवल 27 नक्षत्रो को ही ग्रहण किया जाता है.
====और इस गणना से बचने के लिये या अपनी अज्ञानता वश इसे दक्षिण भारत का विषय मान कर ये पाखण्डी पण्डित ज्योतिष के फलादेश की इतिश्री कर देते है.
========आप देखें======
शूल दशा से पता चलता है कि उक्त वर्ष, माह, तिथि आदि से कष्ट का दिन शुरू होगा।
पाचक दशा यह बताती है कि उपरोक्त शूल किस भाव से सम्बंधित होगा।
विंशोत्तरी, अष्टोत्तरी आदि दशाएं बताती है कि उपरोक्त भाव से सम्बंधित शूल (कष्ट) किस ग्रह के कारण होगा।
इसी तरह तारा दशा, दृग्दशा, चरदशा, योगार्द्ध दशा, कारक दशा, त्रिकोण दशा, छाया दशा आदि का अपना महत्त्व होता है. जो कुण्डली के अभिन्न अँग हैं. और इनके बिना फल कहने का कोई औचित्य या यथार्थ है ही नहीं।
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