++++++++योग, उसका वर्त्तमान स्वरुप एवं रहस्य++++++++
योग की पूर्णता लक्ष्य की सफल उपलब्धि का प्रमाण है. योग का तात्पर्य विघटन, विच्छेद या अलगाव या दूरी को मिटाकर एकीकृत, संलग्न या एक दूसरे से मिलन है. संसार के नियमन हेतु अपने आप को प्रकृति-पुरुष, उसके बाद त्रिगुण-सत, रज और तम, उसके बाद पञ्च महाभूत-आकाश, पृथ्वी, वायु, अग्नि एवं जल तथा अंत में ग्यारह अभिकर्ताओं-पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय और एक मन, में बाँट कर परम सत्ता स्वरुप परमेश्वर नियति चक्र निर्धारित कर देता है. तथा प्रकृति के सहयोग से विकृति एवं सुकृति का सम्यक निरूपण हो जाने के बाद (प्रलय के आरम्भ से लेकर अंत तक) पुनः इन सबको अपने अंदर समाहित कर लेता है.
इसी प्रकार प्रत्येक प्राणी अपने निर्धारित उत्तरदायित्व के पूर्ण हो जाने के बाद अपनी धुरी, जिससे अपने काम को करने के लिये अलग हुआ था, के पास जाकर उससे मिलकर एक रूप हो जाता है. उसका उस धुरी या मूल रूप में योग हो जाता है. उसकी इस सफलता को “मोक्ष (Disenthrallment) कहते है. और इस प्रकार प्राणी का प्राण (सत) चिरस्थाई आयाम प्राप्त कर लेता है. उसे संसार की विविध विषमताओं से मुक्ति मिल जाती है.
यह आयाम दो तरह का होता है===
प्रथम व्यायाम
दूसरा प्राणायाम
व्यायाम= शरीर के माँस, मज्जा, अस्थि, चर्म, वसा एवं रक्त आदि से निर्मित समस्त आभ्यन्तर एवं बाह्य अँगो का मार्जन व्यायाम कहलाता है. जैसे रेचक, पूरक, विष्कंभक, नेती-धोती, कपाल भारती आदि. इनकी साधना के लिये 84 मुद्राओं या आसान (Posture) यथा वज्रासन, शीर्षासन, गर्भासन, शवासन आदि का प्रवर्तन किया गया है. इन्ही में से एक दक्षासन भी आता है. इस दक्षासन में जो प्रतिमा स्थित होती है उसे “दक्षिणामूर्ति” के नाम से जाना जाता है. किन्तु लोगो में यह भ्रम फैला हुआ है कि जिस मूर्ति का मुँह दक्षिण दिशा की तरफ हो उसे दक्षिणामूर्ति कहते है. किन्तु देखें गुजरात प्रान्त के वडोदरा स्थित ईएमई स्कूल के प्रांगण में निर्मित तथा विदेशी यात्री पर्यटन मानचित्र पर अंकित अति प्राचीन एवं प्रसिद्द दक्षिणामूर्ति महादेव का मंदिर जिसका मुँह पश्चिम की तरफ है. इसके विशेष विवरण के साथ मेरा लेख जागरण जंक्शन पर पिछले साल ही प्रकाशित हो चुका है.
प्राणायाम= पराभौतिक संवेदनाओं एवं विकिरणात्मक प्रभावो से प्रेरित, संदर्भित एवं निर्देशित अदृष्य वलायात्मक ग्रंथियाँ जो पञ्च महावायु =प्राण, अपान, व्यान, सामान एवं उदान से लिपटी रहती है, के नियंत्रण, संतुलन, संचालन एवं नियमन एवं पञ्च ज्ञानेन्द्रियो से प्राप्त संवेदनाओं को बुद्धि, विवेक, ज्ञान, अनुभव एवं अभ्यास के सहारे छन्नीकृत (Filtered) कर ग्रहणीय बनाने हेतु जो प्रयोग होता है उसे प्राणायाम कहा जाता है यथा ध्यान, चित्तवृत्ति निरोध एवं शिक्षा आदि.
बाह्य शुद्धि या व्यायाम जिसे वर्त्तमान समय में “योग” की संज्ञा दी गई है, उससे शरीर को निर्मल एवं नीरोग बनाकर उसके बाद प्राणायाम किया जाता है.
किन्तु बहुत पश्चाताप का विषय है कि हम लोग किसी भी चमत्कार को देखकर उसे भगवान मान लेते है. जैसे कोई शरीर के विविध अंगो को मन चाही दिशा एवं स्थिति में मोड़ कर एवं संतुलन बनाकर जब हमें दिखाने लगता है और यदि वह गरीब हुआ जैसे रेलगाड़ी आदि में या सार्वजनिक स्थलो पर अपनी इस कला का प्रदर्शन करता है तो “मदारी” या “नट” कहलाता है, यदि उसे खेल के मैदान में कोई दिखाता है तो उसे “जिम्नास्ट” कहा जाता है. और यदि यही कला कोई गेरुआ वस्त्र धारण कर प्रदर्शित करता है तो “योगिराज” कहलाता है.
वर्त्तमान समय में यत्र तत्र प्रदर्शित “योग शिविर” के आयोजनो में दिखाए जाने वाले इस योग कला में न तो कोई क्रम है न कोई समन्वय, न तो कोई अनुबन्ध है और न कोई प्रतिबन्ध। बस जिसे देखिये पेट की अंतड़ियों को हिलाते हुए कपाल भारती करते नजर आयेगा।
ध्यान रहे जिस किसी के भी वृहदांत्र (Large Intestine) की लम्बाई क्षुद्रांत्र (Small Intestine) से ज्यादा है और वह कपाल भारती का निरंतर अभ्यास करता है तो उसे श्वासावरोध (Respiratory Failure) के आघात से असामयिक मृत्यु का सामना करना पड़ सकता है.
This website uses cookie or similar technologies, to enhance your browsing experience and provide personalised recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy. OK
Read Comments