वर्त्तमान समय में विज्ञान इसे कुछ हद तक मानने लगा है. किन्तु जो न तो पूरा पढ़े लिखे है और न तो उनका कोई धर्म ईमान है, और जो समाज सुधार और अंध विश्वास उन्मूलन की फटी बाँसुरी को बिना लय ताल के बेसुरा श्रवणतन्त्र विध्वंसक आवाज में बजाते हुए यत्र तत्र मदारियों की तरह भीड़ इकट्ठा कर अपने छल कपट से भरे विषाक्त टूटे फूटे कटोरे में सस्ती लोकप्रियता की भीख माँगते फिर रहे है, ऐसे लोग समाज तो दूर धरती के कोढ़ स्वरुप मानव शरीर धारी राक्षस इस पर अवश्य विश्वास नहीं करते है.
भूत, प्रेत अवश्य होते है. किन्तु उस रूप, स्वभाव या गुण-प्रकृति वाले नहीं जैसा इसे वर्त्तमान रूप में तांत्रिक लुटेरे इसे प्रस्तुत करते है.
क्या आप ने कभी सोचा है कि आप जापान तो कभी गये नहीं और सपने में उसकी सैर कैसे कर लेते है?
प्रत्येक प्राणी की जैव कोशिका में स्थित माइटोकाण्ड्रिया को ऊर्ज़ा उत्पादक केंद्र कहा जाता है. यहाँ से तीन तरह की विद्युत् तरंगें उत्पन्न होती है. इन्हें प्लव, नीरव एवं अग्वक कहा जाता है. इन तरंगो से कोशिका के अंदर प्रत्येक नाभिक (Nucleus) अपने भीतर स्थित तथा निरंतर भ्रमण शील इलेक्ट्रान, प्रोटान एवं न्यूट्रान को आवेश (Charge) प्राप्त होता है. सम्भवतः नीरव, प्लव एवं अग्वक को ही विज्ञान की भाषा में अल्फा, बीटा एवं गामा कहा गया है. प्रोटान पर धनावेश होता है. इसके इस धनावेश को शरीर के विविध सूक्ष्म ग्रंथि, तंतु एवं समवाय को पहुंचाने वाली नलिका को पिङ्गला (अर्बयूस्टेटेनिकल डक्ट) कहते है. प्रत्यक्ष रूप से शरीर को लाभ पहुंचाने वाली संवेदनाओं को ये प्रोटान पदार्थ रूप में परिवर्तित कर भेजते है. ऋणावेश को ले आने एवं ले जाने वाली नलिका को इङ्गला (प्रोट्लैंगटिक डक्ट) कहते है. यह शरीर को प्रत्यक्ष रूप से हानि पहुंचाने वाली संवेदनाओं को ढोती है. भ्रमात्मक जिसका निर्धारण न हो सके ऐसी संवेदनाओं को इधर उधर करने वाली नलिका को सुषुम्ना (साइक्लोन्डयूला) कहते है. यह वह सुषुम्ना नहीं है जिसे रीढ़रज्जु कहा जाता है. प्रत्यक्ष रूप से लाभ पहुंचाने वाली संवेदना से तात्पर्य जैसे सर्दी के मौसम में धुप देख कर बताना कि इससे राहत मिल सकती है. प्रत्यक्ष रूप से हानि पहुंचाने वाली संवेदना जैसे ऊपर से पत्थर गिरते देख कर बताना कि इससे चोट लग सकती है. भ्रमात्मक संवेदना से तात्पर्य कि सामने से आने वाला व्यक्ति मेरा शत्रु है या मित्र।
हम को सपने में सैर कराने वाली यही सुषुम्ना है. क्योकि इसके विषय वस्तु का निर्धारण नहीं हो पाता है. जैसे खाना खाने गये तथा आप को चटनी नहीं मिल पायी। तत्काल सोच आयी कि चटनी क्यों नहीं? किन्तु तत्काल तो खाना को खाना ही है. अतः भोजन कर लिया और अगली कार्यवाही में व्यस्त हो गया. जब इङ्गला एवं पिङ्गला नलिकाओं का उत्तरदायित्व समाप्त हो जाता है. तब सुषुम्ना काम करने लगती है. और विचार आता है कि चटनी क्यों नहीं मिली? शायद मिर्च घर पर नहीं था. अब सोच आगे बढ़ेगी, पडोसी के खेत में मिर्च देखा था. तत्काल संवेदनात्मक उदर्ध्वु किरण (लोमोडोटीव रेज) खेत में पहुँच जायेगी। चूँकि इस किरण की तत्व धारिता (एसिलरेटिंग मोड़) अपरिपक्व एवं अदिश (Infructuously Deictic) होता है. अतः यदि पडोसी का खेत पहले से देखा हुआ है तब तो किरणे ठीक उसी खेत में पहुंचेगी। अन्यथा किसी ऐसे खेत में पहुँचेगी जहाँ खूब मिर्च लगी हो. चूंकि उदर्ध्वु किरणें मिर्च को वायवीय रूप (गैस मोड़) में परिवर्तित नहीं कर सकती है. अतः पुनः वापस लौट आती है.
जिस प्राणी की ये किरणे थोड़ी सघन धारिता (डिडयूलेकटिक मोड़) में होती है वे उस मिर्च के पेड़ से मिर्च को अलग भी कर देती है. किन्तु कारिता द्रव (स्टेमेल्युटिकल फ्ल्यूड) का नाभिकीय अम्ल (न्यूक्लिक एसिड) से संयोग होते ही किरणे प्रभाव शून्य हो जाती है. किरण वलय से आच्छादित होने के कारण मिर्च को पुनः टहनी से जुड़ने में विलम्ब नहीं होता। क्योकि उसका सन्धानक कोशिकीय मंड (सेल्युलेलीक स्टार्च) विघटित (डैमेज्ड) नहीं हो पाता है. और पुनः टहनी से जुड़ जाता है.
अभी ऐसी स्थिति में कल्पना कीजिये कि कोई व्यक्ति उस समय खेत में मिर्च के उसी पौधे के पास हो जिससे मिर्च टूटने एवं जुड़ने सम्बन्धी क्रिया चल रही हो. वह पहले तो इसे आश्चर्य से घूर घूर कर देखेगा। और बाद में घबराकर भाग लेगा। तथा पूछने पर वह और क्या बतायेगा? यही कि कोई भूत मिर्च तोड़ रहा है.
इसका गलत सलत तरीके से प्रयोग कुछ घुटे हुए अभ्यासी तांत्रिक करते है. किन्तु उनको इसके शास्त्रीय अथर्वविधान या वर्त्तमान भौतिकीय रसायन (फिजियोकेमिस्ट्री) का पूर्ण ज्ञान नहीं होता अतः बहुधा ये प्राणघातक काम कर बैठते है. और अपनी टूटपूँजीही चमत्कारिक बुद्धि के सहारे लोगो को ठगते एवं शोषण करते है. और अस्सी प्रतिशत लोग स्थाई रूप से मस्तिष्क विकृति (मेन्टल डिफॉर्मिटी या ब्रेन हैमरेज) का शिकार हो जाते है.
चूँकि इसका प्रयोगात्मक प्रस्तुतिकरण निरंतर अभ्यास करने वाला व्यक्ति दे सकता है. अतः इसको प्रत्यक्षतः या प्रयोगात्मक रूप से मैं प्रस्तुत नहीं कर सकता। किन्तु यह मेरा अपना प्रयोग एवं अनुभव है. जो विविध आयुर्वेद, दन्तकथाओं, प्राकृतिक पदार्थो के गुण दोष का विश्लेषण एवं अपनी जैवरसायन की उच्च शैक्षिक विद्यार्जन के बल पर मैंने एकत्र किया है.
तार्किक रूप से इसके आधार भूत ठोस क्रियात्मक रूप को आधुनिक विज्ञान झुठला नहीं सकता। यह अलग बात है कि अभी इतनी उच्च क्षमता वाली प्रयोगशाला या अत्युत्कृष्ट तकनीकी दक्षता आज के आधुनिक विज्ञान के पास अभी सुलभ नहीं है.
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