वेद न तो कोई धर्म है, न अपने आप में कोई मार्ग। यह आदर्श, संतुलित, सुव्यवस्थित एवं पूर्ण जीवन के प्रत्येक पहलू का शब्द समुच्चय के रूप में प्रत्यक्ष विग्रह है. यह स्वयं में कोई मार्ग नहीं बल्कि इसके अनुगामी इसके द्वारा मार्ग निर्देशन एवं निर्धारण ग्रहण करते है. यह कभी प्रतिबंधित नहीं है किन्तु उत्तम, पूर्ण एवं प्रशंसित जीवन के विकाश में अवरोध को अवश्य प्रतिबंधित करता है. यह किसी को कोई प्रतिबन्ध मानने के लिये विवश नहीं करता बल्कि यह स्वयं विवश है निन्दित, अनुचित, अनार्ष एवं प्रकृति के सशक्त मायाजाल को न मानने के लिये। इसके कथन —-ऋचा या मन्त्र को सिद्ध करने (प्रमाणित करने) की आवश्यकता नहीं है. बल्कि यह तथ्यगत नित्य परिवर्तन को प्रमाणित करने के लिये सदा अनिवार्य रूप से अपेक्षित है.
अतः यदि कोई चीज भ्रामक, रूढिपूर्ण या एकांगी प्रतीत होती हो तो निश्चित रूप से यह वेद कथन नहीं है.
समस्त पुराण विविध कथाओं एवं दृष्टांतो के माध्यम से इसका===वेदिक ऋचाओं का विश्लेषण करते है. किन्तु पुराणो के ये उद्धरण किसी एक विशेष काल या युग के लिये होते है. इसके विपरीत वेदकथन सार्वकालिक होता है. बल्कि यह काल से ऊपर प्राग्गमन का नीति निर्देश तत्व (Directive Principle of Immortal Philosophy) है. इसलिये किसी एक पौराणिक उल्लेख एवं तत्संलग्न उपनिर्देशिकाओं को वेदकथन का स्थाई मानक या प्रतिरूप मानना नितांत त्रुटिपूर्ण है. समस्त पौराणिक, दार्शनिक, तात्विक एवं परामनोवैज्ञानिक के आद्योपांत आख्यान में इसकी ऋचाओं की शाखाओं का अल्पांश है. अतः कही एक निश्चित स्थान पर इसे निरूपित करना निंदनीय एवं अग्राह्य है.
तीनो अग्नि (बडवाग्नि, दावाग्नि एवं जठराग्नि) जिह्वावसु (भौतिक एवं तन्निसर्जित रासायनिक उपादानो) के संसर्ग से गृहीत तीनो पदार्थो (ठोस, द्रव एवं वायुरूप) को हमारे त्रेधा (अधिदैहिक, अधिभौतिक एवं अधिदैविक) पोषण को पुष्ट एवं संतुष्ट करे.
आप बतायें, इसमें क्या संदेह, रहस्य या भ्रामक है? इस मन्त्र में अग्नि से प्रार्थना की जा रही है कि हे अग्नि देव! आप के तीन रूप है. आप हमारे भोजन को उचित मात्रा में जठराग्नि से, हमारे शरीर के अंदर उपस्थित इस अग्नि को दावाग्नि एवं दावाग्नि को बडवाग्नि से पचाकर हमारे विवर्द्धन, पोषण एवं सञ्चलन के अनुरूप बनायें।
किन्तु इस मन्त्र में यह स्पष्ट निर्देश है कि बडवाग्नि केवल जंगल, दावाग्नि केवल प्रचुर जलराशि एवं जठाराग्नि केवल स्वतंत्र रूप से शरीर के अंदर ही नहीं है. बल्कि स्थिति के अनुरूप इनके क्रियान्वित होने एवं एक दूसरे को उस क्रम में ऊर्ज़ा एवं प्रत्यक्ष स्वरुप देने में तीनो का अनिवार्य योग है. अर्थात आवश्यकता या स्थिति के अनुसार बिना बडवाग्नि के दावानल एवं बिना दावानल के जठरानल का कोई रूप, आकार या अस्तित्व नहीं है.====
“सहस्र गुणमुत्सृष्टे हि रसं रविः।“
अर्थात सूर्य पृथ्वी के नदी नाले, समुद्र या वनस्पतियो से जल अवशोषित करता है और उसका हजार गुना कर पृथ्वी पर पुनः (बरसात के जल के रूप में) प्रदान करता है. ध्यान दें, थोड़ा कठिन होगा—–
बडवाग्नि से ध्वस्त वनस्पतियां दावाग्नि (जल की अग्नि को दावाग्नि कहते है) से ऊर्ज़ा प्राप्त करती है. दावाग्नि की ऊर्ज़ा त्वरण, उसके विविध खाद्यपदार्थ आदि है. उससे पुनः वनस्पति तैयार होती है. उसके रस को सूर्य अपने प्रकाशसंश्लेषण (Photosynthesis) की क्रिया से अवशोषित कर बरसात के रूप में नीचे पृथ्वी पर गिरा देता है. इस दावाग्नि एवं बडवाग्नि के संयोग से बनी या उगी हुई बनस्पतियाँ हमारे शरीर में या आमाशय (Abdomen) में जठराग्नि का निर्माण करती है. और जीवन को गति मिलती है.
वेद की इस ऋचा से स्पष्ट है कि वनस्पतियाँ हमारे आतंरिक एवं बाह्य वृद्धि एवं पोषण के लिये अनिवार्य है.
पुराण अब इसे विविध कथाओं एवं प्रमाणो से स्पष्ट करता है. यथा व्रतोपवास में अभिगर्हित (लहसुन, प्याज, नमक, मिर्च) आदि खाने से वायु (प्राण, अपान, व्यान, समान एवं उदान) सञ्चालन में व्यतिरेक या विचलन उत्पन्न होता है. जिससे पारलौकिक या पराभौतिक सम्वेदनाओं के आदानप्रदान से सम्बंधित ग्रंथिया एवं वाहिकायें (Ducts) अपने समुचित कार्य करने में शिथिल एवं असफल हो जाती है. तथा हमारा व्रत भँग हो जाता है.
===पुनश्च====
ऐसी स्थिति में जब वायु प्रतिलोमन हो जाय तो सर्पगन्धा नामक वनस्पति इस अवरोध का निवारण करती है. जिसे ग्रहण करना चाहिये।
इस प्रकार वेद की ऋचायें पुराणो द्वारा विश्लेषित की गई है. किन्तु पश्चात्ताप का विषय है कि कालप्रदूषण से अपने पापकर्म के कारण लिप्त कुछ राक्षस प्रवृत्ति के लोग इसे भ्रामक एवं जटिल बना दे रहे है. यथा सर्प यंत्र धारण करने से पञ्चम भाव के दोष दूर होते है. जब कि यह तब के लिये केवल उचित है जब वायुमार्ग विचलित हो गया हो अर्थात केतु-चन्द्र की स्थिति कष्टप्रद अवस्था में हो. अन्यथा यह सर्प यंत्र व्यक्ति को नपुंसक बना देगा।
ध्यान रहे, यह लग्न के ऊपर निर्भर है कि प्रथम भाव से लेकर पाँचवें एवं आठवें से लेकर बारहवें भाव तक वायु सञ्चार किस दिशा में होगा। यथा यदि लग्न की राशि शीर्षोदयी होगी तो पांचवें भाव तक वायु ऊर्ध्वगामिनी होगी तथा आठवें से बारहवें भाव तक अधोगामिनी। इसी प्रकार यदि लग्न में पृष्टोदयी राशि होगी तो प्रथम से पाँचवे भाव तक वायु सञ्चार अधोगामिनी तथा आठवें से बारहवें तक ऊर्ध्वगामिनी होगी। यदि लग्न में उभयोदयी राशि होगी तो वायु का प्रवाह क्षैतिज होगा। सर्पगंधा केवल उपरिगामिनी वायु को नियंत्रित करती है. जब कि अधोगामिनी वायु का नियंत्रण सर्पदर्भा जिसे नीलकुश कहते है, नियंत्रित करती है और इसके लिये सर्प यंत्र के समान मारुयंत्र बनता है जिसे लोग सामान्यतया सर्पयंत्र ही समझते है.
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