यंत्र निर्माण एवं धारण में बहुत भयंकर हानि भी हो सकती है
वेद विज्ञान
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यंत्र निर्माण एवं धारण में बहुत भयंकर हानि भी हो सकती है
आप को आश्चर्य चकित होने की आवश्यकता नहीं है. यह सतही तौर पर हकीकत है. यंत्र-तंत्र आदि का ज्ञान देने वाले मूल ग्रंथो का अध्ययन करें और उनकी रचना-शैली पर ध्यान दें तो आप चौंक जायेगें।
उदाहरण स्वरुप शाक्त यंत्रो के आदि प्रवर्तक ऋषि रुद्रायण, बादरायण द्वितीय, नेतिधन्वा एवं जाम्भृवह्नि की कृतियों को देखें तो पता चलता है कि उनकी कृतियों में कितना हेरफेर (Adulteration) हुआ है. रूद्र यंत्र को देखें-
ऋतेनोर्धवाहः क्रमेण वृद्धिं न यातु तल्योपरि सन्धि सार्द्धः।।”
प्रथम तो इस छंद रचना का अन्य दूसरा उदाहरण पूरे ग्रन्थ में नहीं है. दूसरी बात यह कि इतनी अदूरदर्शितापूर्ण एवं अविवेकी की भाँति रचना नेतिधन्वा सदृश एक मूर्द्धन्य नव्य व्याकरणाचार्य कदापि नहीं कर सकता। भगण, तगण एवं यगण के बाद बहुत मज़बूरी में गुरु एवं लघु का ह्रास होने से पुनः तगण एवं यगण की पुनरावृत्ति, यह एक छन्द दोष है. तीसरा,- रूद्र यंत्र में चार दल को लिख कर उसके मूल रूप में ही परिवर्तन कर दिया गया है. क्योकि अग्नि उपाख्यान के अनुसार इसी ग्रन्थ की आठवी आवृत्ति में रूद्र का वृद्धि क्रम पञ्चपराक्रम के रूप में व्यक्त किया गया है. अतः दलों की संख्या इसी के सवाये गुणक में 9, 11, 13, 15, 17 आदि तो हो सकते है, चतुरस्तुदलमध्य का कोई औचित्य नहीं मिलता है. चौथी बात,- पार्श्वविग्रह का सन्धि पर्व में होना यंत्र की ऊर्ध्वगति का बाधक होता है, जिसका उल्लेख स्वयं नेतिधन्वा ने अपने प्रथम सोपान में ही कर दिया है. फिर यहाँ पर बिना किसी कारक तथ्य, पूर्व सूचना या आवश्यक निर्देश के अपने ही कथन का उल्लङ्घन क्यों?
इसके अलावा बादरायण द्वितीय के शापानुग्रह में शाक्त अध्याय के अंतर्गत जिस वैतालभूमि नामक यंत्र जिसे अन्य स्थानो पर गन्धर्व यंत्र कहा गया है, इसके विवरण में “खण्डो अधिजातः” बताया गया है. जब कि प्रत्येक सर्ग में बादरायण ने प्रारम्भ में ही प्रस्तावना में ही निषेध आदि का भेद उल्लिखित करते हुए बताया है कि “न शैल तृषार्द्ध सचलो व्याप्नुयात” अर्थात इस क्रम के किसी भी यंत्र में शिलाप्रस्राव का अनुबंध नहीं होगा। वैसे भी “भंगो जातः संलिप्ततो वा पाषाण जितादि न्यूनाधिक चार्द्ध किञ्चित।” के अनुसार इसका प्रयोग वर्जित है.
सबसे ज्यादा “यंत्रालयम”, शक्तिसंगम तंत्र”, चण्डी रहस्यम्, ज्योति गाणपत्यम”, रुद्रयामल मूल, विताल वैतानिकम आदि बहुत ज्यादा दूषित है.
वास्तव में नवीं सदी के पूर्वार्द्ध में जब चोरी छिपे अक्षयवर मार्ग (वर्त्तमान खैबर दर्रा) एवं जोजिला दर्रा से यवन एवं मंगोल आततायियों का लूटमार सीमा पार से होने लगा. पर्वतो, कंदराओं एवं उनकी तलहटी आदि में अपना आश्रम बनाकर रहने वाले सिद्ध तपस्वीयों एवं पडोसी ग्राम नगर आदि को ये आततायी सतानें एवं बंधक बनाने लगे. तभी से साधको एवं सिद्धो का पलायन शुरू हुआ. किसी शासक या राजा को इनकी रक्षा सुरक्षा की चिंता नहीं थी. परिणाम स्वरुप इस समृद्ध तपोभूमि से सिद्ध तपस्वी एवं साधक अन्यत्र चले गये. ये आततायी इनके संग्रह स्वरुप मूल ग्रंथो को भी लूट ले गये. आप को यह जानकर आश्चर्य होगा कि “पैटन टैंक” हमारे धनुर्वेद की उपज है. जिसका अनुमोदन जापान एवं ब्रिटेन दोनों कर चुके है. किन्तु अफसोस है हमारे प्रदूषित बुद्धि एवं विदेशी लुटेरो से भी ज्यादा आततायी वर्त्तमान युग के राक्षस शासनाधीशो पर जिन्हे इसकी नहीं बल्कि येन केन प्रकारेण लूटने की चिंता दिन रात है.
उसके बाद भारत के रीढ़ स्वरुप इसकी तपस्या शक्ति का हनन कर इसे कमजोर बनाने का और कोई रास्ता मंगोलो एवं यवनो को नहीं दिखाई दिया। तथा लगभग ईस्वी सन 1060 से लेकर अर्थात उमरशेख मिर्ज़ा के भारत आगमन के पश्चात से हमारे मूलभूत ग्रंथो में जीतोड़ हेरफेर किया गया. ताकि भारतीयो की शक्ति स्वरुप तपस्या, ज्ञान एवं बुद्धि का क्षरण एवं हनन हो सके.
परिणाम स्वरुप आज यदि ध्यान से छन्दरचना, विषय वस्तु की निरंतरता, वर्णन क्रम का अग्रसारण, पिछले वर्णन से वर्त्तमान वर्णन का सम्बन्ध एवं अन्योन्य प्रसंग का सर्वथा पृथक होना आदि को देखा जाय तो इन क्षेपकों, अलग से जोड़े गये विषय एवं सामग्री, तथा टूटता क्रम सहज ही दिखाई दे जायेगा।
किन्तु आज बिना इसका ध्यान रखे यंत्रो का निर्माण एवं उनका प्रचार प्रसार ऋषि मुनियो एवं देवी देवताओं के नाम पर चल रहा है. और भोली भाली मज़बूर श्रद्धालु जनता इसे ग्रहण कर अपना और ज्यादा समय तथा धन बर्बाद करती चली जा रही है. पण्डित आर के राय
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