यद्यपि मुनि माधवाचार्य कृत “नखत वीथिका निस्तारणम्” में उपर्युक्त दोनों वनस्पतियो की विषयोग निवारण में भूरि भूरि प्रशंसा की गई है. किन्तु उनके कथन का द्वयर्थक बोध होने से भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो जाती है. यथा यदि भटकटैया की जड़ को गुमारे के रस में पकाकर व्रजनीर, अलसी एवं केसर के सामान भाग में मिलाकर शुक्ल पक्ष की दशमी से शुरू कर नित्य 27 दिनों तक स्नान किया जाय सम्भवतः तथा हाथ की हथेली एवं पाँव के तलवे में त्रिवल्ली का अर्क लगाया जाय तो विषयोग दोष पूर्णतया शांत हो जाता है.
किन्तु मूल कथन “शारङ्गपर्व” का दो अर्थ होता है- प्रथम भटकटैया एवं दूसरा भटकुवाँ। भटकुवाँ एक तरह का गोल छोटा फल का पौधा होता है जो पकने पर काले रंग का हो जाता है तथा लडके बड़े प्रेम से इसे खाते है. किन्तु भटकुवाँ में अजकंध (बोरोसिलिक मेटाडिन फास्फाइड) पाया जाता है जिसके लिये आचार्य सह्याद्रि ने “रवि-कुज पाश योग” की शान्ति के लिये प्रशस्त किया है. जब कि भटकटैया में सम्भवतः गृधरंजक (कार्बोलीथिनाइड) की तरह का कोई यौगिक पाया जाता है.
इसीलिये मैं संदेह के कारण इस योग को किसी को नहीं बताता हूँ.
यद्यपि मैंने इसके निराकरण के लिये अपने एक घनिष्ठ मित्र S L M Stuart जो कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में पहले पैथोलोजी के विभागाध्यक्ष रह चुके है, उनसे अनुरोध किया है कि थोड़ा इसका परिक्षण विवरण के साथ उपलब्ध करायें। चूंकि यह एक जटिल प्रक्रिया है तथा इसमें खतरा भी रहता है, अतः हो सकता है थोड़ा विलम्ब हो, किन्तु यदि विवरण मिल जाता है तो मैं इसे निरापद रूप से सबको बता सकता हूँ.
इसका विशेष विवरण मेरे फेसबुक के विविध लेखो में पढ़ा जा सकता है. देखें-
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