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भूमि, विवाह एवं संतान

वेद विज्ञान
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भूमि, विवाह एवं संतान
(विशेष रूप से ज्योतिष का काम करने वालो के लिये)
कुण्डली में प्रथम अर्थात लग्न, छठा एवं अष्टम ये तीनो भाव स्थाई होते है. प्रचलित विधि से लग्न से शरीर, छठे से रोग एवं आठवें से दुर्घटना की गणना की जाती है.
यदि थोड़ा सा श्रम करते हुए बुद्धि को सूक्षमता पूर्वक प्रयुक्त किया जाय तो ज्योतिष की वास्तविक उपादेयता प्रकट हो सकती है.
भवोत्तंक ऋद्धयस्वनिर्गघ्नः विपोर्पार्जन्ये खल्वीथिकामवधातु।
नस्वान्यविचः जर्पकार्श्वमस्वपोहनुवर्यामि नैकैके अनुपर्ह्यते तद्वत्।।”
वैसे किसी ऋषि वचन को सादृश्य उपमा से प्रस्तुत करना शास्त्रीय मान्यता के अनुसार अपराध है. किन्तु पृष्ठपेषण दोष से बचने एवं ऋषि वचन को सर्व एवं समादृत बनाने से विमुख होना उससे भी बड़ा अपराध है. यही विचारकर इसे सदृश उपमा से प्रस्तुत करना पड़ रहा है.
पिण्ड (शरीर या भूखण्ड) चर से स्थिर, स्थिर से द्विस्वभाव, द्विस्वभाव से चर और पुनः चर से स्थिर के क्रम में परिवर्तित होता रहता है. यही प्रकृति का नियम है. अर्थात दो या कई चर- सदा चलायमान या विचरण करते रहने वाले कण-अणु मिलकर स्थिर कण-अणु बनाते है. पुनः यौगिक विखण्डन धीरे धीरे शुरू होता है और यौगिक विखण्डन होते होते (जीवन में विविध क्रिया कलाप होते होते) द्विस्वभाव एवं फिर वे कण अलग अलग होकर चर या स्वतंत्र हो जाते है. यही जन्म, जीवन एवं मृत्यु का क्रम नियम है.
“पुनरपतति प्रकृतिर्विकृतिर्गुणः स्यात्”
इसीलिये प्रकृति (या विधाता) जन्म-मृत्यु को नियमित एवं नियंत्रित करती है-अर्थात जन्म, जीवन एवं मृत्यु। क्रम निम्न प्रकार होता है-
“त्रिगुणात्मकमुपेतो भूतं पञ्चावतुरवसाद्विचक्रुः”
अर्थात त्रिगुण (सत, रज एवं तम) जो तीन रूप (ठोस, द्रव एवं वायु) में त्रि राशिक (स्त्रीलिंग, पुल्लिंग एवं नपुंसकलिंग) अस्तित्व प्रदान करने के लिये पञ्चमहाभूतो (क्षिति, जल, पावक, गगन एवं समीर) के स्थाई पाँच गुण- शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवं गन्ध का योग स्थिर (मृत्योर्ध्रुवः) मृत्यु,  द्विस्वभाव (आत्मा परमात्मा भावेण द्वैतं इति) जीव या जन्म तथा चर (चराचरात्मक वृत्तिं जीवनम्) रूप जीवन होता है.
इस प्रकार स्थिर मृत्यु (आठवाँ भाव), द्विस्वभाव जन्म (लग्न भाव) तथा चर (छठा भाव) जीवन सिद्ध होता है.
ध्यान रहे,
“ज़रा व्याधि विकृतिर्गुणः तज्जीवनम”
अर्थात बुढ़ापा आदि रोग जिसे ग्रसित करते है उसे जीवन कहते है.
अब मुख्य विषय पर आते है.
लग्न अर्थात जन्म द्विस्वभाव होता है जो ऊपर सिद्ध किया जा चुका है. यद्यपि गणित की सुविधा के लिये लग्न को स्थिर मानकर गणना की जाती है. जब कि यह केवल सुविधा के लिये है, सिद्धांत नहीं।
जैसे सूर्य को स्थिर मानकर शेष ग्रहो को उसकी परिक्रमा करते दिखाया जाता है. जब कि सूर्य भी गतिमान है स्थिर नहीं।
अब आप पिण्ड (शरीर) या कुण्डली में देखिये,
  1. लग्न—————-द्विस्वभाव
  2. दूसरा भाव———- चर
  3. तीसरा भाव———- स्थिर
  4. चौथा भाव ———– द्विस्वभाव
  5. पाँचवाँ भाव- ———चर
  6. छठा भाव- ————स्थिर

यह पृथ्वी, शरीर या कुण्डली के एक तरफ का हिस्सा हो गया. अब दूसरे भाग को देखते है.

  1. लग्न————-द्विस्वभाव
  2. बारहवाँ भाव—–चर
  3. ग्यारहवाँ भाव—-स्थिर
  4. दशवाँ भाव ——-द्विस्वभाव
  5. नवाँ भाव ———चर
  6. आठवाँ भाव——-स्थिर

अब बात आती है सातवें भाव की.

“सप्तमोमुक्तिर्स्याद्वा च्युतिः भवाम्भोः नद्दृत्याम्।”
अर्थात सातवाँ भाव सदा निष्फल होता है. न तो इसका शुभ फल होता है न ही अशुभ। कारण यह है कि पृथ्वी की वक्र शंकु अर्थात अण्डाकार आकृति यही से ऊर्ध्व अर्थात नीचे और ऊर्ध्व अर्थात ऊपर या आगे पीछे दोनों का रूप या प्रभाव ग्रहण करती है. यह संधि स्थल है. आप को ज्ञात होगा कि संधि भाव (अश्विनी-रेवती, अश्लेषा-मघा, ज्येष्ठा-मूल) में जन्म परम्परा के अनुसार अशुभ रूप में प्रचलित है. यद्यपि यह मोटा मोटा फल है. यह सदा अशुभ नहीं होता है.
ठीक इसी प्रकार सातवाँ भाव (संधि भाव) का फल न तो शुभ होता है न ही अशुभ। और इसी लिये न तो इसकी चर, स्थिर या द्विस्वभाव संज्ञा ही है.
किन्तु बहुत पश्चात्ताप का विषय है कि वर्त्तमान समय में लकीर के फ़क़ीर बने आलसी एवं अपंग सोच तथा कुण्ठाग्रस्त बुद्धि वाले ज्योतिषाचार्य ज्योतिष के मूल सिद्धांतो की अवहेलना हठ या अज्ञानता वश करते हुए सातवें भाव से ही विवाह एवं दाम्पत्य जीवन का फलादेश करते हुए चले जाते है. और तर्क देते है कि—-
“तनुर्धनं भ्रातृ सुहृत पुत्र शत्रु स्त्रियः क्रमात्। मरणं धर्म कर्म आय व्यय द्वादश राशयः।”
अर्थात सातवें भाव से “स्त्रियः” अर्थात पत्नी या विवाह का फल कहना चाहिये।
किन्तु जिस किसी मुनि ने कहा है उसका स्खलन देखें-
  1. (किसी भी) स्त्री को पत्नी कैसे कह सकते है?
  2. यदि सातवाँ भाव स्त्री का है तो पुरुष का भाव कौन सा है?
  3. तो क्या कुण्डली मात्र स्त्रियों के लिये ही है?
  4. रोग एवं मृत्यु के मध्य पत्नी की भूमिका तो ग्राह्य है. क्योकि “ब्रह्मचर्यात च्युतिः मृत्युः” अर्थात ब्रह्मचर्य को छोड़ना ही मृत्यु की तरफ अग्रसर होना है. तो क्या ब्रह्मचर्य किसी भी स्त्री का कौमार्य भंग कर गृहस्थ आश्रम में प्रवेश है या अपनी विवाहिता पत्नी के साथ?
  5. इसके अलावा श्लोक का छन्दविधान भी गणपूर्ति (भगण, तगण यगण, गुरु-गुरु एवं लघु का पालन) भी नहीं हो रहा है.

अतः निश्चित रूप से यह कोई क्षेपक या जबर्दस्ती घुसेङा हुआ श्लोक है.

विवाह एक स्थिर प्रक्रिया है. जो दो विपरीत आकृति-रूप वाले प्राणियो को एकरूप करती है. इसे जब भी देखा जायेगा तो स्थिर भाव से ही देखा जायेगा। क्योकि यह रोज बदलने वाला काम नहीं है. या यह कोई वस्त्र नहीं है जिसे पुराना हो जाने पर छोड़ कर या त्याग कर नया धारण कर लिया जाय. यही कारण है कि द्वितीय भाव को इसके लिये निर्धारित करते हुए द्वितीय भाव को “कुटुम्ब” का भाव बताया गया है. अतः विवाह आदि के लिये सर्वप्रथम द्वितीय भाव को प्राथमिकता दी जानी चाहिये। इसका निर्देश भी गर्ग ने किया है—
विलग्नादुभयतरो व्युत्क्रमेण सञ्जातं कुटुम्बकम।
नैव दधातु प्रगल्भत्वात विचारणीयम निदाग्रभूः।।”
विशेष– कृपया कोई प्रतिक्रया न व्यक्त करें। यदि उचित और उपयोगी लगे तो ग्रहण करें अन्यथा मत पढ़ें।
पण्डित आर के राय

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