बहुत पश्चात्ताप के साथ कहना पड़ रहा है कि नाद, प्रयत्न, यति, व्यति, अनु, कल्प, अंशु, उपांशु, प्रांशु, प्रगल्भ, आयाम, वर्णविधान एवं निर्बंध का ज्ञान जिसे स्वयं नहीं है वे ही वैदिक मंत्रो का जाप करने का निर्देश लोगो को दे रहे है.
थोड़े से विचलन से मन्त्र बहुत अशुभ परिणाम देने वाला हो जाता है. क्या गाली या शाप के लिये वर्णावली अलग होती है और आशीर्वाद आदि के लिये वर्णावली अलग होती है? इन्हीं वर्णो में से कुछ को मिलाने से गाली का शब्द बन जाता है. तथा कुछ वर्णो को परस्पर मिलाने से आशीर्वाद का शब्द बन जाता है. व्याकरण का सर्वसामान्य सिद्धांत है-++
उपसर्गेण धात्वर्थो बलादन्यत्र नीयते।
संहाराहार विहार परिहार प्रहारवत।।”
अर्थात उपसर्ग के सँयोग से धातुओ का अर्थ तत्काल बदल जाता है. जैसे एक ही धातु “हृ” में आङ् नामक प्रत्यय लगने से यह आहार-भोजन बन जाता है, उसी में सम् प्रत्यय लगने से वह सँहार – विनाश बन जाता है, उसी में “वि” प्रत्यय लग जाने से वह विहार-मनोरंजन बन जाता है तथा उसी में प्र नामक प्रत्यय लगने से वह प्रहार-चोट पहुँचाना बन जाता है.
====तो जब यह स्थिति मोटे रूप में शब्द बनाने में उत्पन्न हो रही है तो छोटे रूप में मन्त्र बनाने तथा उसके उच्चारण में क्या स्थिति उत्पन्न हो सकती है?
=======माता जी का एक मन्त्र लेते है-
“ॐ नमश्चण्डिकायै”
इसमें अकेले ॐकार में 9 वर्ण मिले हुए है -अ, ई, ऊ, ं, ँ. ऋ, लृ, ॣ एवं ित् संज्ञक मकार।
========मैं अपने पूर्व के लेखो/पोस्ट में इसका विशद विवरण दे चुका हूँ, कि इनमें प्रत्येक के उच्चारण का विधान अलग अलग है. इसे जागरण जंक्शन पर प्रकाशित मेरे ब्लॉग में भी देखा जा सकता है. अ का उच्चारण कण्ठ से- “अकुः विसर्जनीयानाम कण्ठः”, ई का उच्चारण तालु “ईचुयशानां तालुः“, आदि से इन नवो वर्णो का उच्चारण होता है.
====ये नवो वर्ण नवो ग्रहो को उद्दिष्ट करते है. और इस तरह-
“अच्छृंगतत्वादौ ब्रह्मरन्ध्रं समागताः।
नाभिचक्रमुपादानौ रवातिनादं निनादयेत्।।”
=========अर्थात इस प्रणव (ॐकार को प्रणव कहते है) के उच्चारण से क्रमशः ब्रह्मरंध्र से नाभिकमल तक नवो भचक्रो तक पञ्चवायु का प्रवहण सुनिश्चित होना चाहिये।
==इसके लिये सबसे पहले आधार चक्र, भचक्र, कुण्डलिनी, नाभिकमल, ब्रह्मरंध्र तथा क्रोड का ज्ञान होना चाहिये। तत्पश्चात उनके सञ्चालन, नियमन एवं नियंत्रण का प्रायोगिक अनुभव होना चाहिये। उसके बाद यति, व्यति आदि वर्णो का उत्पाद स्थान जानना चाहिये। तब जाकर अंत में किसी मन्त्र के उच्चारण का ज्ञान होगा।
=====प्रणव तीन वर्णो से बना है-
(१)- प्र— अर्थात प्रकृष्ट जिसका अर्थ होता है सबसे श्रेष्ठ
(२)- न– “नयति असौ नेता” अर्थात जो नेतृत्व करते हुए आगे बढ़ाये
(३)- व –“नः, नौ, वः ” यह नः (We- We , Our, Us) शब्द का बहुवचन (Plural Number) है.
अब आप स्वयं सोच सकते है कि अभी केवल ॐकार के उच्चारण में इतनी कठनाई एवं जटिल श्रम है तो माता जी के नवार्ण मन्त्र के शेष भाग के उच्चारण में क्या हाल होगा?
आज कल न तो यजमान इसका परीक्षण करते है और न ही पुरोहित इसे बताते है. या हो सकता है पुरोहित को स्वयं इस सूक्ष्मता का ज्ञान न हो.
========फिर रात दिन इन मंत्रो के उच्चारण से क्या लाभ?
यही कारण है कि अनेक विध पूजा पाठ एवं मन्त्र जाप के बाद भी फल नहीं मिलता है तो लोगो का विश्वास इन सबसे उठने लगता है और लोग कहते है कि सब कुछ कर के देख लिया, कोई लाभ नहीं हुआ.
एक महाशय ने बड़े ही व्यंग्यात्मक रूप में मुझसे प्रश्न किया कि रत्नाकर नामक डकैत जिसका बाद में नाम बाल्मीकि पड़ा, उसने तो पूरा नाम का मन्त्र ही उलटा पाठ किया। फिर भी वह सिद्ध महर्षि बन गये? ऐसा क्यों?
मैं उनके इस प्रश्न का उत्तर अपनी फौज़ी भाषा में दे सकता था. किन्तु ब्राह्मणत्व के थोड़े अंश के कारण सम्हाल कर उत्तर दिया-
“महाशय बाल्मीकि को जाप से सिद्धि नहीं बल्कि हार्दिक चोट पर लेप लगाने की मनोवैज्ञानिक औषधि मात्र मिली। सिद्धि उन्हें तपस्या एवं योग से मिली। यह तपस्या का ही रूप था कि उनके शरीर के माँस, चमड़ी, रक्त आदि सबकुछ दीमक (White Ant) खा गये. और उन्हें पता तक न चला. इन दीमको के द्वारा जो मिटटी का घर बनाया जाता है उसे बाल्मीकि कहते है. इसीलिये उनका भी नाम बाल्मीकि पड़ गया.
तात्पर्य यह कि मन्त्र जाप एवं पूजा पाठ का फल नहीं मिलता है तो उसका प्रधान कारण यही है कि मन्त्र का शुद्ध पाठ नहीं होता है.
अतः कृपा कर के जब तक मन्त्र के विविध भेद-प्रभेद से परिचित न हो तब तक कोई मन्त्र पाठ न करें।
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