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गृह निर्माण योजना===शास्त्र की दृष्टि में

वेद विज्ञान
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गृह निर्माण योजना===शास्त्र की दृष्टि में
घर बनवाते समय नींव का खात (गड्ढा) खोदते समय ही प्राञ्जलिक कर्मकार वहाँ उपस्थित हो जाते है. और प्रतीक्षा करते है कि उचित रूप से उनका वरण किया जायेगा। प्राञ्जलिक कर्मकार भूमि पुत्र मङ्गल के सेवक माने गये है. इनकी सँख्या 49 मानी गई है. अपनी नित्य अस्थिरता को ध्यान में रखते हुए धरती ने अपनी छाती पर पल रहे जीवो के आश्रय की सुरक्षा संरक्षा के लिये अपने सातो पुत्रो को उनका विविध विभाग प्रभार उत्तरदायित्व वितरित कर दिया। चूँकि पृथ्वी ग्रहो के परस्पर संकर्षण-विकर्षण आदि से चक्रवात, बाढ़, ज्वार-भाटा तथा भूकम्प आदि बाह्य तथा अपने आतंरिक दाह-प्रदाह-प्रतिदाह आदि से ज्वालामुखी आदि से निरंतर अस्थिर रहती है. इससे रक्षा के लिये अपने सातो पुत्रों को इसका भार दिया।
मंगलाक्षौणिभृप्रोष्टारौरार्द्रयमभिनन्दनः।
यामाक्ष्य धृति रक्षनैनृत्यां सप्तैतानि वसुधांशगाः।।
मंगल, अक्षौणी, भृप्रोष्ट, रौरार्द्र्य, अभिनन्दन, याम एवं अक्षि ये सात धरती के पुत्र कहे गये है. इनमें से प्रत्येक की उत्पत्ति धरती के विविध भागो से हुई जिसके आधार पर इनका नाम पड़ा. जैसे मेदा (मांस का लोथड़ा) से भरी धरती से जिसका जन्म हुआ वह मेदिनी सुत कहलाया जिसे मंगल कहते है. इसी प्रकार पृथ्वी का उद्दालक राक्षस के द्वारा अपहरण करते समय उसकी धुरी टूट गई. भगवान विष्णु ने तत्काल धरती के उस धुरी को जोड़ा। धुरी को “अक्ष” कहा जाता है. और फिर धरती का उद्धार किया। उस उद्धारक धुरी का धरती से जन्म हुआ जिसे अक्षौणी कहा गया है.
=====अस्तु, मंगल के सेवक प्राञ्जलिक नामक कर्मकार जब जब उस धरती के ऊपर एवं चारो तरफ दिशा एवं दशा के अनुसार विधिवत नियुक्त स्थापित कर दिये जाते है तो दीवार एवं छत की रक्षा का भार उनके जिम्मे हो जाता है. यदि इनकी उपेक्षा की गई तो उस घर में सदा आपात स्थिति बनी रहेगी।
———उसके उपरांत प्रथम शिला रोपण के पूर्व रक्षाशङ्कु (मन्त्र से पूजित रक्षाध्वज) की स्थापना की जाती है. इसका रक्षक भूमिपुत्र याम होते है. किसी भी प्रपञ्चात्मक (भूत-प्रेत, जादू-टोना, नज़र-डाकिनी आदि का प्रकोप) आक्षेप से निवारण इनके द्वारा किया जाता है. इसे निर्धारित लकड़ी में ही बनवाना चाहिये। किन्तु आजकल इसकी सर्वथा उपेक्षा हो रही है. जिसके चलते घर में अभद्रता, चारित्रिक शिथिलता, कलंक, अपमान, राजदण्ड, झगड़ा आदि सदा होते रहते है. और बिल्डर के द्वारा अनियमित रूप से बनाकर दिये गये ऐसे भवन में लोग रह रहे है. और इस ध्वज को निर्धारित लकड़ी के स्थान पर एक लम्बे बाँस में पुराना टूटा सूप या फटा पुराना जूता टाँग देते है.
——तब फिर प्रथम शिला का पूजन होता है. आज बस ईंट को तत्काल फूल आदि चढ़ाकर छुट्टी कर दी जाती है. इस शिला में धरती के पुत्र “भृप्रोष्ट” को स्थापित किया जाता है. विषैले जंतुओं एवं कीट पतंगों से रक्षा का भार भृप्रोष्ट के जिम्मे होता है. इस शिला को नींव में रखने से पहले सात दिन तक गोलक्ष एवं प्राणिवात से पूजन कर सक्रीय या जागृत किया जाता है. इसकी उपेक्षा से घर अवाञ्चित विषैले जीव जंतुओं का प्रश्रय स्थल बन जाता है.
====और फिर शिलाओं या ईंटो की चिनाई शुरू होती है. प्रथमदिन चिनाई से पूर्व एवं शिला पूजन के बाद वास्तु पुरुष को स्थापित किया जाता है. पता नहीं इस सम्बन्ध में कितने भेद विभेद एवं परम्पराओं का अनुकरण किया जाता है. किन्तु पौराणिक मान्यता के अनुसार प्रथम शिला पर ही वास्तु पुरुष को स्थापित किया जाता है. वास्तु पुरुष के साथ चौरासी लाख योनियों के प्रतिनिधि स्वरुप स्तनधारी (Mammalian) तथा सरीसृप (Reptilian) आदि विविध वर्गों के प्राणियों को जैसे कछुवा, बिच्छू, सर्प, गन्धर्व आदि को सम्मानित कर उन्हें रक्षा सुरक्षा का भार सौंपा जाता है. इसके लिये धरती पुत्र “अभिनन्दन” का आवाहन किया जाता है. यदि इसकी उपेक्षा हुई तो रोग, शोक, भय, वंशहानि, अकालमृत्यु, दरिद्रता आदि से घर परिवार संतप्त हो जाता है.
===और फिर जब चिनाई का प्रथम दिन सूर्यास्त पर बंद होता है तो संध्या काल में भूमिपुत्र “रौरार्द्रय” को स्थापित किया जाता है. इसकी स्थापना वास्तव में एक बंध पूरा होने पर की जाती है. अर्थात निर्धारित बाहरी चारो तरफ की नींव की एक पंक्ति पूरी होने पर यह पूजा स्थापना की जाती है. पीले सरसों, लालमिर्च, लोहे की कील तथा भ्राणक (हाथी दाँत का चाकू) आदि रखा जाता है. तथा दीपक जलाकर एक रक्षादीप की तरह स्थापित किया जाता है. इसकी उपेक्षा से घर की आयु तीन चौथाई घट जाती है. अर्थात 100 वर्ष के स्थान पर यह भवन 10 वर्ष में ही धरासाई हो जाता है.
====उसके बाद छत डालने से पूर्व भूमिपुत्र अक्षौणी की स्थापना की जाती है. और फिर छत एवं दीवार को परस्पर मजबूती से बाँधा जाता है. स्वाभाविक है इसकी उपेक्षा से छत गिरने या असम्भाव्य दुर्घटना की आशंका हो जाती है. ऐसी मान्यता है कि जिस तरह भगवान विष्णु ने उद्दालक के पृथ्वी अपहरण के समय इसके अक्ष या धुरी टूटने पर भूमिपुत्र अक्षोणी से धरती को मजबूती से बाँध कर इसे उठाया था वैसे ही छत भी सदा मजबूती से दीवार पर टिकी रहे.
=====और अंत में आता है अक्षि नामक धरती पुत्र। अक्षि का अर्थ होता है आँख. उस भवन में दिशा एवं कार्य के अनुरूप प्राञ्जलिक कर्मकारो को विविध देवताओं जैसे- इन्द्र, अग्नि, वरुण, सोम, ब्रह्मा एवं अन्नपूर्णा की विधिवत उनकी निर्धारित दिशाओं में इनकी स्थापना कर उनकी सेवा में नियुक्त करना। इन देवताओं की स्थापना से पूर्व इनकी आकृति, रंग, भूमिका तथा गुण के अनुरूप कक्षों का निर्माण आवश्यक होता है. जिसमें दिशा तथा उन्नयन एवं अवनयन आदि को ध्यान में रखा जाता हुआ पाकशाला आदि का निर्माण, उनकी ऊँचाई एवं लम्बाई चौड़ाई आदि निर्धारित की जाती है.
=====सुप्रसिद्ध भारतीय मूल के Architect प्रोफ़ेसर अनुज जे केलिन इस वास्तुविद्या की वैज्ञानिकता के मुरीद है.
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पण्डित आर के राय
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