यह सिद्ध तथ्य है कि किसी भी रासायनिक यौगिक का प्रयोग कोमल धातुओ से नहीं करना चाहिये। ताम्बा, पीतल, लोहा, जस्ता, एल्यूमिनियम आदि कम दाब एवं ताप पर पिघलने वाली धातुएँ है. अतः हल्दी, शहद, घी, दही, दूध, चन्दन, सिन्दूर आदि से मिश्रित अर्घ्य या अभिषेक द्रव्य कभी भी धातु के पात्र से नहीं अर्पण करना चाहिये।
यही कारण है कि आज कल रत्न एवं पत्थर-नग आदि भी विभिन्न रासायनिक यौगिकों (Chemical Compounds) के संयोग से परिष्कृत कर औषधि आदि के उद्देश्य से प्रयुक्त हो रहे है. ताकि उन्हें कम परिश्रम-ताप एवं दाब पर भी पिघलाया जा सके या उनका भष्म बनाया जा सके. कठोर या मूल रूप में रत्न, नग, पत्थर आदि नहीं पिघल सकते। और यही कारण है की आजकल मूल रत्न मिलना प्रायः बहुत कठिन हो गया है. जौहरी भी आजकल यही नग-रत्न आदि बेच रहे है. क्योकि उन्हें खुद ही नहीं मिल पा रहा है तो वे बचेगें कहाँ से? आज नीलम प्रायः एल्यूमिनियम के यौगिक रूप में मिल रहा है. एल्यूमिनियम 87 डिग्री सेल्सियस पर ही पिघल जाता है जब कि कजजलाश्म (थोरियम, टिटैनियम, टंगस्टन) आदि बहुत उच्च दाब पर भी नहीं पिघलते।
यदि ऐसे कोमल धातुओं में अर्घ्य एवं अभिषेक द्रव्य अर्पण किये जाते है तो अर्घ्या आदि प्रदूषित हो जाता है. इसे आचार्य वज्रनाभ ने “रस अलंकार” में भली भाँति समझाने का प्रयास किया है.
शँख का निर्माण प्राकृतिक रूप से सुधांशु मूर्द्धा (CaCo12) से होता है. जिस पर अमूमन किसी रासायनिक पदार्थ की प्रतिक्रिया नहीं होती है. और इससे अर्पण किये जाने वाले पदार्थ विद्रूप या प्रदूषित नहीं हो पाते।
मैं यह बता दूँ कि मेरा यह कथन बहुतेरे पण्डितो के गले नहीं उतरेगा। और परस्पर टीका टिप्पड़ी भी करेगें किन्तु जैसा कि संभवतः आप को पता होगा, मैं निहायत ही अक्खड़ किस्म का घमण्डी आदमी हूँ, मुझे इनकी टीका टिप्पड़ी या नाक भौं सिकोड़ने की परवाह नहीं होती है, मैं स्पष्ट, तार्किक एवं प्रामाणिक तथ्य प्रस्तुत कर देता हूँ, चाहे कोई माने या न माने।
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