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आधी तज सारी को धावे। आधी मिले न सारी पावे। या धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का.

वेद विज्ञान
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आधी तज सारी को धावे। आधी मिले न सारी पावे।
या
धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का.
=====अपनी समृद्ध साहित्यिक ज्ञान सम्पदा के अध्ययन में श्रम से घबराकर यवन मतों का अनुकरण करने वाले तांत्रिक एवं मांत्रिक ढोंग, पाखण्ड रचाने वाले यदि अपनी परम्परा के जानकार नहीं हो सके तो गैर साहित्य या ज्ञान में उनकी निपुणता कहाँ संभव है?
====क्या नहीं है हमारे वेद-पुराण में? विश्व का ऐसा कौन सा ज्ञान या साहित्य है जो हमारी ज्ञान सम्पदा की नक़ल से आगे न बढ़ा हो?
====ऐसी अवस्था में यदि कोई अपनी परम्परा में विश्वास न कर के दूसरे आधे अधूरे ज्ञान का अनुकरण या संपोषण करता है तो उस पर कौन भरोसा कर सकता है?
””””झूठ मूठ के तांत्रिक प्रयोग एवं आधे अधूरे औषधि प्रयोग का क्रम हम भारतीयों के गौरव एवं महत्ता का मूलोत्खनन कर हमें उपहास एवं दासता के ही योग्य बना सकता है. इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं।
श्री विनय भास्कर जी देखें—
ॐ यज्ञास्तु नः प्रोवाग् तृस्नुः स अलौचर्याद्विमर्ध्वाग्वंग समुद्वायतम्। मयोपर्वीमद्वारात एकश्चद्वयोत्रिरादीक्षां समाहस्तु।।
===प्रस्तुत मन्त्र यजुर्वेद का है. सामान्य रूप में इसका अर्थ इस प्रकार किया गया है.
+++यज्ञ के विग्रह प्रतीक, शरीर के सहचारी मन एवं इन्द्रियों से युक्त प्रकृति के त्रिगुणात्मक एक-ईश्वर, दो आत्मा-परमात्मा विभेद एवं तीन जन्म-जीवन एवं अवसान के अंतर एवं वास्तविकता को प्रकाशित कर हमें नश्वरता से बचायें।
+++किन्तु चमत्कारिक एवं गूढ़ उच्च ज्ञान से भरे वैदिक मन्त्र का भला ऐसा साधारण तात्पर्य कैसे हो सकता है?
प्रोवाग- सामान्य चर्या नहीं बल्कि विशेष कर्म
त्रिस्नुः –प्राकृतिक, कृत्रिम एवं अनुपलब्ध
मर्ध्वाग्वँग् – धरती एवं जल से उत्पन्न
मयोपर्वी – रश्मि वाले द्रव
एक- सूर्य (आत्मा)
द्वि– सूर्य एवं चन्द्र (आत्मा एवं मन)
त्रि--सूर्य, चन्द्र एवं पृथ्वी
आलौचर्याद्वि– प्रत्यक्ष मूर्तित्व का कठिन संयोग या विलयन
======ईश्वर वाणी स्वरुप वेद की व्याख्या सिवाय ईश्वर के कोई नहीं कर सकता किन्तु संकेत तो समझना ही पड़ता है.
देखें-
द्रवीभूत शरीर के अवयव यथा रक्त जल आदि तथा वसा मांस्यादि की विकृति से नित्य बाधित होने वाले कर्म निष्कंटंक पूरे किये जा सकते है यदि परावनस्पति (अवस्था एवं ग्रह के अनुरूप) एवं सामुद्रिक या धरती के सतह से नीचे पाये जाने वाले पदार्थ (खनिज लवण एवं प्रकाशित-अप्रकाशित प्रस्तर खण्ड या रत्न आदि) वनस्पतियो के यथाक्रम प्रयुक्त होकर तत्संबंधित विकृति को दूर कर सकते है.
====इसे तीन तरह से सूर्य (पूजा हवन आदि यज्ञ), चन्द्रमा (औषधि) एवं पृथ्वी (रत्न यंत्रादि) उपयोग में लाया जा सकता है.
——मयोपर्वी अर्थात रश्मि या विकिरण वाले वानस्पतिक या कृत्रिम द्रव नक्षत्रादि ग्रहो के अनुरूप निर्धारित कर पूजन विहित है.
इनका रासायनिक विश्लेषण, महत्व, स्थिति एवं उपादेयता के अलावा इनके परस्पर आनुपातिक विलेयता या यौगिक निर्माण का विशद वर्णन आयुर्वेद में उपलब्ध है.
गृह निर्माण योजना या आवासीय व्यवस्था में भी विशेषज्ञ लोग कह देते है कि घर के सामने बेल का पेड़ न लगायें। क्यों नहीं लगायें, यह कोई नहीं बताता जब कि “वास्तुप्रकाश” में आचार्य मयंक भूति लिखते है कि —-
“अप्रतिहते दोषो वास्तु देवस्य नैव स्यात्।
द्वारे योजनास्तु वृक्ष विल्मुदारयेत्।
संक्षव्यं तत्क्षण दोषो ब्रह्मह्त्या परिदृतः।।
निर्दोषो नरो जातः सद्यः सुखमवाप्नयात्।।
अर्थात घर के ईशान एवं नैऋत्य कोण में क्षैतिज रेखा से लग्न रेखा का वेधन, मूर्ती या  इस घर के सापेक्ष न्यून कोण बनाते हों तो इस दोष का मार्जन घर के आगे बेल का पेड़ लगाकर उस पर पार्थिव यंत्र टाँग कर किया जा सकता है. किन्तु यदि यह दोष घर में न हो तो घर या मंदिर के सामने बेल का पेड़ न लगायें।
आखीर आचार्य मयंक भूति ने बेल के पेड़ के सम्बन्ध में ऐसा क्यों लिखा? इसके लिये आयुर्वेद का वनस्पति रसायन (Botanical Chemistry) पढने से स्पष्ट हो जायेगा। किन्तु वर्तमान आचार्य लोग तो सपाट रूप से मना कर देते है कि घर के ठीक सामने बेल का पेड़ न लगायें चाहे कोई दोष हो या न हो. इसके विपरीत कुछ अन्य यवन या पाश्चात्य अनुपयुक्त निराधार टोटके बता देते है. यही कारण है कि आज यजमान से ज्यादा आचार्य हो गये है. क्योकि प्रमाण कौन पूछता है, कुछ भी टोटका या उपाय बता दो प्रमाण या आधार कौन पूछता है? किसी भी ऋषि मुनि का नाम बता देना है.
====आप स्वयं सोचें जिसका कोई प्रमाण नहीं, तर्क नहीं, आधार नहीं उस विधान या यंत्र-तंत्र पर क्यों विश्वास करना?
इस प्रकार लबादा ओढ़े हिन्दू आचार्य का और धंधा इतर हिन्दू मतावलम्बी का. वेद पुराण की आड़ में ठगी एवं छलना।
किन्तु क्या करेगें?
कलौ नश्यते बुद्धिम क्षयो जातो सुविवेकताम्।
हारीतो कला विद्या ज्ञान धर्म शुचिता अलम..
पण्डित आर के राय

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