अर्थात इतर वर्ण सायुज्य रहित पूर्ण अर्थाभाष कराने वाले स्वतंत्र अर्द्ध मात्रिक वर्ण सम्बन्ध को बीज कहते है.
इसके पूर्व मैं यह स्पष्ट कर देना चाहूँगा कि प्रत्येक वर्ण का अपना एक स्वतंत्र अर्थ होता है. यथा—
क–पक्षी
ख–आकाश
ग–जल
घ–वाणी (अंतिम)
——————
न–हम (मैं का बहुवचन) आदि
इस प्रकार इन वर्णो के साथ शरीर की विशेष अंतर्ग्रंथियों को प्रेरित कर जो अन्तःस्थ, ऊष्मवर्ण आदि का उच्चारण किया जाता है उसे बीज कहते है. जैसे
ह- (अन्तःस्थल या ह्रदय) शरीर का ऊर्जा संग्रह केंद्र। यही से पट्ट नाड़िका (Gracio Trabula ) का समायोजन होता है.
र- रम्भ (कशेरुका का प्रथम आभाष) या Procellua Micora अनुकारी तरंगो को आनुपातिक गति प्रदान करता है.
देखें — योगी माहेश्वर कृत “पिण्ड कल्पाश्रय” का नाद विधान
प्राचीन ऋषि महर्षि एवं मुनि आदि साधक समुदाय ने दीर्घकालिक तपश्चर्या एवं प्राप्त परिणाम एवं अनुभव से यह ज्ञात किया कि इन दोनों अर्द्धमात्रिको का समुच्चय प्रचण्ड एवं तीव्र तरंग प्रक्षेपित करता है. इस प्रकार शक्ति साधना का बीज कण्ठ से बोला जाने वाला “ह” तथा “र” एवं तीसरा अनुस्वार “म” मिलकर परमाणविक शक्ति उत्पन्न करते है जैसे +++ह्रीं
प्रत्येक बीज मन्त्र में दैहिक, दैविक एवं भौतिक प्रकार से सत, रज एवं तम तीनो का जिह्वा, मूर्द्धा एवं तालु (रज के प्रतीक), दन्त, ओष्ठ एवं कण्ठ (सत के प्रतीक) तथा नासिका (तम का प्रतीक) होना अनिवार्य है.
ध्यान रहे , इनके उच्चारण से उद्घोष फल में कोई विकृति या अवरोध न उत्पन्न हो इसलिये यह व्याकरण के प्रतिबन्ध से मुक्त होता है.
“ह्रां, क्लीं, भ्रौं आदि को ही बीज मन्त्र कहा जाता है. इनका अर्थ, उद्देश्य एवं प्रभाव सीमित, एकांगी एवं उग्र प्रभाव वाला होता है. इसमें प्रधानता अभ्यास की होती है. भाव की कोई आवश्यकता नहीं होती है. अभ्यास में विचलन उग्र प्रतिकूल फल देता है. इसकी प्रधानता तंत्र शास्त्र में मानी गयी है.
========वैदिक मन्त्र======
इनका अर्थ असीमित, प्रभाव सौम्य, व्याकरण से एवं स्वर शास्त्र से अनुशासित होता है. शब्द शास्त्र से इसका पूर्ण नियंत्रण होता है. इसमें अनुशासन एवं भाव दोनों समान रूप से आवश्यक है. चारो वेद की ऋचाएं इनका उदाहरण है. वेद मंत्रो की संख्या निश्चित है.
======पौराणिक मन्त्र=====
स्थिति, एवं भाव के अनुसार इनकी रचना समय समय पर भक्तो एवं आचार्यो द्वारा होती रहती है. इसमें भाव की प्रधान ता होती है. व्याकरण का सीमित नियंत्रण होता है. शब्द शास्त्र आदि की योजना आवश्यक नहीं होती।
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