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वास्तु शास्त्र का उद्गम

वेद विज्ञान
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वास्तु शास्त्र का उद्गम
आप स्वयं सोचें और उत्तर दें – वेद प्राचीन है या पुराण? एक ऋषि, मुनि या आचार्य का मत कही कही एक दूसरे के विपरीत क्यों हो जाता है? जबकि त्रिकाल दर्शी, स्वयं सिद्ध एवं तथ्यवेत्ता ऋषि-मुनि के कथन में भेद हमारी बौद्धिक हीनता या ज्ञानकलुषता ही है और कुछ नहीं। वेद एवं पुराण दोनों संस्कृत भाषा में है. फिर एक की भाषा क्लिष्ट एवं दूसरे की सरल क्यों है?
वृहस्पति कहते है–
“पूरा कृतयुगे ह्यासीत् महद्भूतम् समुत्थितम्।
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तमेव वास्तु पुरुषं ब्रह्मा समभिकल्पयत्।।”
अर्थात वास्तु का प्रथम उपदेश ब्रह्माजी ने यह कहा है.
गर्ग कहते है—
“इति प्रोक्तं वास्तुशास्त्रं पूर्व गर्गाय धीमते।
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वासुदेवादिषु पुनर्भूलोक भक्तितो अब्रवीत्।।” (विश्वकर्मा प्रकाश)
अर्थात वास्तु शास्त्र को सर्वप्रथम शिवजी ने बताया था.
नारद कहते है —
“उपास्थेयं विश्वानि सलोकदिग्गरीयताम्।
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लक्ष्मीपतिना यदभिकल्पं वास्तुशास्त्रं हिताय वै।।
अर्थात वास्तु शास्त्र की कथा सबसे पहले लक्ष्मी पति भगवान विष्णु ने बतायी।
इसके सम्बन्ध में और भी अनेक उदाहरण दिये जा सकते है. देखें “किरणाख्य तंत्र”, मत्स्य पुराण का “वास्तूद्भव अध्याय”, वराह पुराण का “वास्तु कल्प” आदि. किन्तु ये सब कथायें पुराणो की है. जिसमें विविध आचार्यो एवं ऋषि मुनि का वेद आधारित विश्लेषण एवं समय, स्थान, देशकाल, मनुष्य एवं उनके स्वभाव को देखते हुए निर्देश उल्लिखित किया गया है. यही कारण है कि इनके कथन में परस्पर विरोधाभास दिखाई पड़ता है. जहाँ बहुविध मतान्तर सहज ही देखा जा सकता है.
अब प्रश्न यह उठता है कि सबने वास्तु शास्त्र का उपदेश अलग अलग क्यों किया? इसका उत्तर है कि प्रश्न पूछने वाले या किसी शिष्य या जिज्ञासु ने जिस स्थिति, पर्यावरण, देशकाल, जलवायु, स्थान एवं चर्या-व्यवहार आदि के परिप्रेक्ष्य में जिस ऋषि, मुनि या आचार्य से प्रश्न पूछा उन्होंने उसे ध्यान में रखते हुए उत्तर दिया। यही कारण है कि किसी एक उपदेष्टा ने वास्तु शास्त्र के समग्र रूप का विश्लेषण एक स्थान पर नहीं किया और इसीलिये परस्पर ऋषि-मुनि के कथन में विचलन दिखाई देता है.
====वास्तु विद्या का उद्गम स्थल अथर्ववेद है. इसी की ऋचाओं का विश्लेषण देशकाल, पर्यावरण, जलवायु, स्थान एवं प्राणी के आचार-विचार, दिनचर्या एवं स्वभाव के आधार पर विविध उपदेशकों एवं देवी देवताओं के द्वारा विविध काल-युगादि में किया गया है. विश्वकर्मा प्रकाश में स्वयं उपदेष्टा विश्वकर्मा ने ही यह कहा है—
“इति प्रोक्तं वास्तुशास्त्रं पूर्व गर्गाय धीमते।
गर्गात्पराशरः प्राप तस्मात्प्राप बृहद्रथः।।
बृहद्रथाद्विश्वकर्मा प्राप्तवान् वास्तुशास्त्रकम्।
स विश्वकर्मा जगतो हितायाकथयत्पुनः।।
वासुदेवादिषु पुनर्भूलोक भक्तितो अब्रवीत्।।
अर्थात इस शास्त्र को प्राचीन काल में (वेदो का अध्ययन कर =धीमते) गर्ग द्वारा बताया गया. गर्ग से पराशर ने प्राप्त किया। पराशर ने बृहद्रथ को बताया। और बृहद्रथ से विश्वकर्मा ने प्राप्त किया। जो देवशिल्पी कहलाये।
ज़रा इस विश्वकर्मा के कथन को ही ध्यान से देखें तो स्वतः स्पष्ट हो जाता है कि इन उपदेशकों ने स्वयं ही पहले वेदो का आवाहन किया और उससे इस शास्त्र को एकत्र कर यत्र तत्र ऋषि-मुनि एवं शिष्यों को बताये। देखें अथर्वेद की यह ऋचा—
“नस्तेक्षितः व्योमो समवशतिर्नवधीमतः कोष्ठः पूर्वमभिकल्पतामवसति परान्तर विधूसरति।।”
अर्थात किसी भी भू भाग पर हे अधिदेव! हमारे निवास की विधि इस प्रकार सुनिश्चित करें कि प्रत्येक कोष्ठ (कार्यशाला) हमारे निहित-विहित कल्पनाओं इच्छाओं की सम्यक पूर्ति करे.
इस प्रकार हम देखते है कि आवास से सम्बंधित व्यवस्था का निर्देश वेदो में पहले ही कर दिया गया है.
+++++और वास्तु कहते किसे है?
“वसति प्राणिनां यत्र तु अनुशासितम् तदेव वास्तुः।”
अर्थात प्राणियों के निवास का अनुशासन ही वास्तु है.
====इसके उपरांत भी यदि किसी को वास्तु के सम्बन्ध में यह शंका रह जाती है कि उपदेष्टाओं ने जो उपदेश किया है वही वास्तु का उद्गम एवं  स्वतंत्र पूर्ण रूप है तो इसे क्या कहा जाय?
पण्डित आर के राय
Email- khojiduniya@gmail.com

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