सौर मण्डल में प्रत्येक ग्रह-उपग्रह जो बिना किसी सहारे के हवा में लटके जैसे हमें नज़र आते है उनके ऊपर अन्य ग्रहो उपग्रहो का अति उग्र एवं शक्तिशाली प्रत्याकर्षण शक्ति कार्यरत होता है. और उसी घनघोर आकर्षण प्रत्याकर्षण के कारण प्रत्येक ग्रह एक नियमित गति से एक निश्चित कक्ष्या में चक्कर लगाते रहते है. सौर मण्डल का कोई भी ग्रह किसी दूसरे ग्रह के कर्षणबल से मुक्त या च्युत नहीं है. प्रत्येक का कर्षणबल हर अन्य ग्रह पर प्रभावी है. इसीलिये इनमें कभी गत्यात्मक या कक्ष्यात्मक (Orbital) विचलन (Deviation or Diversion) नहीं होता है.
कश्यप का यह आर्ष वचन आज का उन्नत विज्ञान भी शिरोधार्य कर चुका है.
++++फिर आज के वर्तमान ज्योतिषी इस सच्चाई से क्यों मुँह मोड़ रहे है? क्यों किसी एक भाव पर किसी एक ग्रह या किसी एक ग्रह पर दूसरे ग्रह के प्रभाव को नज़र अंदाज़ कर रहे है?
आप देखते है कि कुण्डली के आधार पर किसी एक ग्रह को अशुभ करार देते हुए उसके प्रतिनिधि रत्न को धारण करने का आदेश करते है. जैसे कह देते है कि कुण्डली में आठवें भाव में गुरु नीच का हो गया है. तथा महादशा भी गुरु की चल रही है. अतः पुखराज धारण कर लेवें। ऐसा कभी नहीं हो सकता है. और यदि ऐसी अवस्था में पुखराज धारण किया गया तो गुरु के प्रकोप से हो सकता है शान्ति मिल जाय किन्तु उसे देखने वाली राशि, उसे देखने वाले ग्रह, उसकी अधिष्ठित राशि आदि का उत्कट प्रभाव अवश्यम्भावी रूप से भुगतना पडेगा। यह प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों तरह से सिद्ध है.
+++++इसे आप प्रत्यक्ष या प्रायोगिक रूप में इस प्रकार देखें—–
यदि प्रवाल भष्म बनाना होगा तो उसमें सुहागा, तूतिया, नौसादर, रससिदूर, पारद या समुद्रफेन डालकर ही उसे भष्म का रूप दिया जाता है. ऐसा नहीं है की अकेले प्रवाल को जलाया नहीं जा सकता। इसका उच्चतम गलनांक 97 डिग्री सेंटीग्रेड है. और इसे इस ताप पर आसानी से जलाया गलाया जा सकता है. फिर इसमें उपरोक्त रासायनिक यौगिकों के सम्मिश्रण का क्या औचित्य? कुछ भैषज्य लोग कहते है कि इसमें उपरोक्त पदार्थ इसलिये मिलाये जाते है ताकि इसे ज्यादा दिन तक स्टोर किया जा सके. चलिये, मैं इन्ही की बाते मान लेता हूँ. तो भी आखिर किसी न किसी कारण से इनमें मिलाया तो जाता है. फिर प्रवाल को अकेले धारण करने को क्यों कहा जाता है? उसके साथ भी उपरोक्त पदार्थो को संलग्न कर देना चाहिए ताकि प्रवाल ज्यादा दिन तक प्रभाव दिखाता रहे?
दूसरा उदाहरण देखें, कथा होती है सत्यनारायण भगवान की फिर कलश क्यों रखना? उसमें सारे तीर्थो का क्यों आवाहन करना? गौरी-गणेश की क्यों स्थापना? सीधे सत्यनारायण की कथा कहकर आरती कर देना चाहिये? ये अन्य देवी देवता आदि की पूजा इसके साथ क्यों करना? उत्तर मिलता है कि यह परम्परा चली आ रही है. तो फिर रत्न धारण करने में परम्परा का हनन क्यों? जब कि यह सिद्ध है कि कोई भी राशि या ग्रह स्वतंत्र नहीं है? फिर उसके साथ अन्य रत्न क्यों नहीं धारण किये जाते? उसे अकेले क्यों धारण करना?
यह परम्परा नहीं अपितु अज्ञानमूलक दुर्बुद्धि एवं सम्यक अध्ययन न हो पाने के कारण पापपूर्ण कृत्य है. जिसे परम्परा का जामा पहनाकर अपने उत्तरदायित्व से पल्ला झाड़ लिया जाता है.
आयुर्वेद में भी देखें, मूल रूप में पन्ना की ही जहाँ आवश्यकता होती है वहाँ कही पर पन्ना भष्म तो कही पन्ना पिष्टी का प्रयोग किया जाता है. दोनों तो पन्ना ही है. फिर दोनों जगह पिष्टी या दोनों जगह भष्म ही क्यों नहीं प्रयुक्त होता है? कारण यह है कि एक जगह पर पृष्ठदर्प (शखजराव) एवं पिप्पलिका के माध्यम से जलाकर इसे भष्म बनाया जाता है तो दूसरी जगह गेरू एवं राँगा के सहयोग से इसकी पिष्टी बनाई जाती है. जबकि दोनों जगह मूल द्रव्य पन्ना ही होता है.
——– तात्पर्य यह कि कोई भी रत्न अकेले न पहने। और यदि पहनते है तो उसके साथ उपरोक्त प्रकार से विश्लेषण कर सहजीवी रत्न भी धारण करें। यदि ऐसा नहीं करते है तो निकट भविष्य में स्थाई दुष्प्रभाव भी झेलने को तैयार रहें।
=====यही कारण है कि एक ही रत्न के अनेक प्रकार निर्धारित किये गये है जो विविध ग्रहो एवं राशियों के प्रभाव के हिसाब से धारण किये जाते है.
====जैसे सुपर्णा- यह मूल रूप में नीलम है. किन्तु जब कुण्डली में शनि-बुध-केतु एवं राहु नैसर्गिक रूप में अनिष्ट-कष्ट आदि देते है तो इसे धारण किया जाता है.
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