पुण्यसलिला विष्णुपदी सुरसरि की सेवा में (गंगावतरण के अवसर पर विशेष)
वेद विज्ञान
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पुण्यसलिला विष्णुपदी सुरसरि की सेवा में (गंगावतरण के अवसर पर विशेष)
स्वयं भगवान विष्णु ने जब राजा भगीरथ की तपस्या से प्रसन्न होकर गंगा को धरती पर भेजना चाहा तो गंगा जी धरती के पापादि कलुषित एवं कुत्सित बुद्धि विचार, आचार व्यवहार, पर्यावरण, वातावरण एवं मर्यादाहीन स्थिति की कल्पना से ही काँप उठी. उन्होंने जो अपनी शक्ति से आनेवाले कलियुग की भयावह स्थिति देखी तो त्रिलोक जननी सकल संताप हारिणि विश्वविमोहिनी मणीद्वीपवासिनी माता भुवनेश्वरी से रोते हुए विनती करने लगी—
“हे माता! मैंने सुना है, मूर्ख, दुर्बुद्धि, पापी, जानवर, राक्षस, तथा डायन भी अपने बच्चे से बिछड़ना नहीं सह सकती। फिर आप कैसे मुझ निरीह संतान को अपने आप से अलग कर के नरक की धधकती भट्टी में झोंक कर सुखी रहना चाहती है?
माता रानी ने गंगा को अभयदान देते हुए धरती पर जाने से मना कर दिया। अब भला किसकी हिम्मत जो प्रचण्ड मूर्ति एवं दुर्धर्ष शक्ति के प्रत्यक्ष विग्रह के सम्मुख ठहरे? फिर सब देवी देवताओं ने मिलकर गंगा की प्रार्थना शुरू किये।==
“हे शक्ति से अलग अस्तित्व रखते हुए भी शक्ति की अंशभूता पूर्णदेवी गंगा! माता भुवनेश्वरी को तो आप ने अपना शरण बना लिया। किन्तु आप कैसी माँ है जो अपनी सन्तान को तड़पते हुए देखकर भी विचलित नहीं होती है? माता दुर्गा ने तो गंगा रुपी अपनी संतान को अपनी पुत्रवत्सलता दिखाते हुए आप को शरण दे दिया। किन्तु अब आपके पुत्र किसकी शरण में जाएँ? क्या रोते बिलखते अपने प्यारे बच्चो को तड़पते देख आप का ह्रदय विचलित नहीं होता? कैसी माँ है आप? कहाँ गयी मलयागिरि के चन्दन सुवासित वायु से भी ज्यादा शीतल एवं सुगन्धित पवन बहाने वाली ममतामयी माँ के आँचल की पवित्र शीतल छाया? हे माँ! प्रसन्न हो. और अपनी संतान के दुःख निवारण हेतु तत्पर होकर अपनी ममता बरसाओ।
माता गंगा का ह्रदय पिघल उठा. उन्होंने अश्रु भरी आँखों से माता दुर्गा की तरफ देखते हुए कहा-
“हे मातेश्वरी! मेरी सन्तान पीड़ा में है. मुझे जाना ही पडेगा।
और कातर नेत्रों से ममतामयी माता दुर्गा की तरफ देखती हुई चली. तभी माता चण्डिका ने गंभीर स्वर में सरस्वती नदी को डांटते हुए कहा—
“हे बहुप्रलाप कारिणी स्वरवती सरस्वती! तुम्हारे शाप के कारण आज जाह्नवी को मृत्यु लोक जाना पड़ रहा है. किन्तु तुम्हें भी पृथ्वी पर जाना पडेगा। इसका तो प्रत्यक्ष प्रवाहमय स्वरुप होगा। किन्तु तुम्हारा कोई रूप नहीं होगा। प्राणी अपनी कलुषता गंगा को देगें जिसे ढोना तुम्हें और सूर्यपुत्री (यमुना) को पडेगा।”
फिर मातारानी ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव समेत समस्त देवताओं को इंगित करते हुए बोली—
” हे देवताओं! जिस दिन से गंगा में पाप धोने के अलावा और कुछ धोने, डालने या कलुषित-विषाक्त करने का काम शुरू होगा, मैं अपनी इस अमृतमयी शक्ति को अपने अंदर समेट लूँगी। तथा यह धीरे धीरे सूखकर पुनः वापस अपने लोक—-गोलोक चली जायेगी।”
तब भगवान विष्णु ने कहा===
“हे सुरसरि! मैं आज तुम्हारी तीन धाराएं करता हूँ. तुम्हारा एक नाम इसीलिये त्रिपथगा भी होगा। एक धारा के रूप में तुम सदा मेरे चरणो में रहा करोगी। दूसरी धारा पाताल लोक तक जायेगी। तथा तीसरी धारा धरती पर जायेगी। जहाँ की धारा मर्यादा विहीन पाप पूर्ण कृत्यों से भरने लगेगी वहाँ की धारा सिमट कर वापस गंगाधाम चली जायेगी। यही नहीं —-
अर्थात हे सुरेश्वरि! तुम सरस्वती के शाप से अभी भारत वर्ष में जाओ. और मेरे आदेशानुसार सगर के सभी पुत्रो का उद्धार करो. हे देवि! तुम्हारे स्पर्श से उठे पवन का स्पर्श पाकर ही वे सब राजकुमार पवित्र होकर मेरे धाम में चले जायेगें। उनका शरीर मेरे जैसा ही हो जाएगा। और वे दिव्य वायुयान पर सवार होकर मेरे पार्षद बन जायेगें। वे सर्वदा निष्पाप, आधि व्याधि रहित तथा मुक्त हो जायेगें। उनके जन्म जन्मान्तर के सब पाप धुल जायेगें। क्योकि भारत में मनुष्यो द्वारा किये गये करोडो जन्मो के पातकपुञ्ज श्रीगंगाजी के स्पर्शमात्र से नष्ट हो जाते है—ऐसा वेद विहित है. गङ्गा के दर्शन एवं स्पर्श मात्र से जो पुण्य प्राप्त होता है उसका दशगुना पुण्य गङ्गा में शांत भाव से स्नान से प्राप्त होता है. यहाँ तक कि सामान्य दिनों में भी स्नान करने से अनेक जन्मो के पाप नष्ट हो जाते है. श्रुति कहती है कि सैकड़ो जन्म के किये गये “ब्रह्महत्यादि’ पातक भी इस मौसल (डुबकी लगाकर स्नान करने) स्नान से नष्ट हो जाते है. हे गङ्गे! पुण्य तिथि (संक्रांति, ग्रहण, अमावश्या, पूर्णिमा आदि) पर तुममें स्नान करने की महिमा वेद तक नहीं कर सकते। तब दूसरे कहाँ तक करेगे? (श्रीमद्भागवत देवी महापुराण, नवम स्कन्ध, श्लोक 20 – 26)
ॐ गङ्गा तव दर्शनात्मुक्तिः।”
पण्डित आर के राय
Email- khojiduniya@gmail.com
NB- The same article is available on face book also. Please visit
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