Menu
blogid : 6000 postid : 753031

शूद्र द्विजन्ह उपदेशहि ज्ञाना (कर्म और भाग्य)

वेद विज्ञान
वेद विज्ञान
  • 497 Posts
  • 662 Comments

शूद्र द्विजन्ह उपदेशहि ज्ञाना
(कर्म और भाग्य)
वास्तव में आज से अर्द्ध सहस्राब्दि पूर्व संतशिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास ने कलियुग के जो मुख्य लक्षण बताये है वह शत प्रतिशत सत्य आज दिखाई दे रहा है. उपरोक्त चौपाई श्रीरामचरित मानस के कलियुग वर्णन से लिया गया है.
” शूद्र द्विजन्ह उपदेशहि ज्ञाना। मेलि जनेऊ लेहि कुदाना।।”
अर्थात क्षुद्र एवं नीच कर्म करने वाले पापाचारी दुष्ट बुद्धि विद्वानो एवं सन्त समान पुरुषो को ऊँचे आसन पर बैठकर उपदेश का पाठ पढायेगें। तथा जबरदस्ती जनेऊ पहन कर दान-दक्षिणा वसूलेगें।
आज इसे पूर्ण रूप में प्रत्यक्ष देखा जा सकता है.
मैं अपने एक फेसबुक मित्र के कुछ पूजा पाठ के लिये कुछ यंत्र लेकर गंगा दशहरा के दिन संगम पर गया था. स्नान ध्यान करने के बाद जब मैं पूजा पाठ समाप्त कर के यंत्र एवं रत्न आदि जागृत कर के वापस चलने को हुआ तभी एक चमकते हुए धवल कान्ति युक्त विविध माला गले में धारण किये एक विद्वान सा दिखाई देने वाले महापुरुष सदृश महानुभाव पधारे। उनके साथ उनकी शिष्य मंडली भी थी. उन शिष्यों में से कुछ मुझे अच्छी तरह जानते थे. संभवतः वह महापुरुष भी मुझे जानते थे, ऐसा मुझे लग रहा था. उनके वहाँ पहुँचते ही तत्काल एक पण्डा से चौकी खाली करा ली गई. इधर मैं अपनी सं 82 मॉडल मोपेड को स्टैंड से उतारा तभी उनका एक शिष्य तेजी से लपकते हुए मेरे पास आया और बोला कि गुरुदेव आप को बुला रहे है. मै भी अपनी स्वाभाविक फौजी उद्दण्डता एवं घमण्ड से प्रेरित होकर बोला कि अपने गुरूजी से बोलो शाम को मेरे मंदिर आ जाएँ। तब तक उनके आठ देश मुस्टण्डे शिष्य आकर मुझे घेर लिये। और बोले कि आप शायद जानते नहीं है. गुरुदेव कितने महान पुरुष है. हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस रिबेलो इनका पैर छूते है. चलिये जल्दी, वह बुला रहे है. इतना कह कर एक ने मेरा मोपेड जबरदस्ती फिर स्टैंड पर खड़ा कर दिया। एक डिब्बे में गंगा जल भरा था. वह गिर गया. कपडे भी रेत में गिर गये.
मुझे तुलसी बाबा का कथन याद आ गया ====
“कान मूँदि न त चलहु पराई।”
यद्यपि मैं उनसे उलझ सकता था. परिणाम यही होता कि मैं भी दो चार के सिर फोड़ता और मेरा भी सिर फूटता। किन्तु माथे पर तिलक, तरंगित शिखाबंध, श्वेत शुभ्र गणवेश वाला मैं यदि यह सब करता तो अच्छा नहीं लगता। यदि अपने सैनिक वस्त्र धारण किये रहता तो कोई चिंता नहीं होती।
मैं वापस उस तथाकथित महापुरुष गुरुदेव के निकट पहुंचा। उन्होंने बहुत गंभीर दिखाई देने वाले शब्दों में पूछा,”मुझे पहचानते हो?” मैंने इंकार में उत्तर दिया। फिर वह बोले ,”क्या साधारण शिष्टाचार भी तुमको नहीं आता? प्रणाम, नमस्कार, चरण स्पर्श कुछ भी नहीं?” मै बोला कि महाशय परिचय तो दीजिये” उन्होंने अपने एक शिष्य की तरफ इशारा किया। उसने एक बहुत सुन्दर कीमती “विजिटिंग कार्ड” मेरे हाथ में रख दिया। मैंने देखा उस पर इतनी लम्बी चौड़ी उपाधि लिखी हुई थी कि उनका मूल नाम उसमें पता ही नहीं चल पा रहा था. खैर, उन्होंने पूछा,”तुम वही फ़ौज़ वाले पंडित हो जो समाचार पत्र और जागरण पर लिखते हो?” मैंने हाँ में सिर हिलाया। उन्होंने पूछा कि तुम मेरे कुछ प्रश्नो के उत्तर दोगे?” मै बोला कोशिश करूंगा।
गंगादशहरा का पर्व, गंगा तट, लाखो श्रद्धालुओं का ताँता। लोग इर्द गिर्द इकट्ठा हो गये. उन्होंने गंभीर लगने वाले कुछ मंद मुस्कान के साथ पूछा,”तुम हिन्दू धर्म के बारे में क्या जानते हो? मैंने उत्तर दिया कि मैंने हिन्दू नाम का धर्म सुना ही नहीं है. उन्होंने अचकचा कर पूछा,”तुम हिन्दू नहीं हो?” मैंने उत्तर दिया कि मैं शतप्रतिशत हिन्दू हूँ. लगभग डाँटते हुए उन्होंने बोला कि यदि हिन्दू नाम का धर्म नहीं है तो तुम हिन्दू कैसे हो?” मैंने उत्तर दिया कि हिन्दू मेरी दिनचर्या है। उन्होंने पूछा,”फिर तुम्हारा धर्म क्या है?” मैंने उत्तर दिया कि मैं सनातन धर्मी हूँ. उन्होंने पूछा कि क्या हिंदू सनातनी नहीं होता?” मैंने उत्तर दिया कि हिन्दू भी सनातनी होता है. किन्तु सनातन का तात्पर्य केवल हिन्दू नहीं होता है. मै आगे भी कहना शुरू किया—
“सनातन धर्म में कुछ अलग परम्परा एवं रीति रिवाज के साथ जो किसी मूर्ति विशेष की पूजा न कर निराकार ब्रह्म के उपासक हुए उन्हें म्लेच्छ और यवन आदि की संज्ञा दी गयी. जो किसी एक प्रतीक को ब्रह्म का स्वरुप मानकर चलने चलने लगे उन्हें स्पर्शायतन जो बाद में परसियन या पारसी कहलाने लगे. अग्नि का स्पर्श उनकी प्रधान पूजा है. पारसी लोग अग्नि के उपासक है. भारत के गुजरात के सूरत शहर में समुद्र के किनारे पर पारसी समुदाय का बना फायर टेम्पल विश्व प्रसिद्ध है. यहाँ रात दिन अनवरत रूप से अग्नि प्रज्ज्वलित रहती है. जो विविध शक्तियों एवं देवी देवताओं की पूजा अपनाये वे अपने आप को आर्य कहने लगे. आर्यो और म्लेच्छो में एक और अंतर है कि साधना, पूजा, जप, दान आदि से निश्चित मोक्ष मिलता है और उनका पुनर्जन्म नहीं होता यह मानने वाले म्लेच्छ कहलाये और पुनर्जन्म में विशवास करने वाले आर्य कहलाये। कालान्तर में अपनी अपनी सुविधा के अनुसार देशकाल एवं पर्यावरण-वातावरण तथा जलवायु को ध्यान में रखते हुए कुछ मान्यताओं एवं परम्पराओं का समावेश अपनी अपनी दिनचर्या में सम्मिलित करने के कारण सब एक दूसरे से दूर होते चले गये. सिंघु सभ्यता जो सिन्धु नदी के दक्षिण तटवर्ती वासियो के द्वारा अनुकृत हुई वे सब सिंध या हिन्द या अंग्रेजो के Indus Valley Civilization के आधार पर इंडियंस कहलाये। अन्यथा क़ुरआन-ए-शरीफ़ की आयत देखें उसमें स्पष्ट लिखा है —“अल हम्द लिल्लाह रब उल आलमीन।” अर्थात मालिक सबका एक है और वह सबका निगहवान है.” आर्य ग्रन्थ और मान्यताएं===”एको सद्विप्राः बहुधा वदन्ति।” अर्थात सत्य रूप ईश्वर एक है विद्वान उसकी आराधना विविध प्रकार से करते है. इसके अलावा प्रत्येक धर्म के अनुयायी अपने ईश्वर को इंगित करने के लिये ऊँगली ऊपर ही उठाते है. कोई भी नहीं कहता कि उसका ईश्वर नीचे, पूरब या पश्चिम है. इस प्रकार धर्म एक ही है जो सनातन के नाम से जाना जाता है. शेष उसकी निकली शाखाएं है जिसे पंडितो, मौलवियो या तथाकथित धर्म विश्लेषण के ठेकेदार अपना एकतंत्र या निरंकुशतंत्र स्थापित करने के लिये उसमें मनमाफिक तोड़ मरोड़ एवं शोधन संशोधन कर के इसके मूल रूप को ही बिगाड़ कर रख दिया है”
मैं अभी और आगे कहता किन्तु उस महापुरुष को मेरा उत्तर नागवार गुजरा। अतः उन्होंने बीच में ही काटकर दूसरा सवाल दाग दिया==” अच्छा यह बताओ, कर्म और भाग्य में पहले कौन बना–कर्म या भाग्य?”
चूंकि उन्होंने मेरी बात बीच में ही काट दी थी. मुझे बहुत बुरा लगा था. इसलिये मैंने भी तपाक से उत्तर दिया ===”महानुभाव आप पहले यह बतायें संसार में पहले माँ आई या पिता?
थोड़ी देर वह अचकचाते रहे तबतक उनके एक शिष्य ने उत्तर दिया कि गुरु पहले आये. मैंने उसे रोकते हुए कहा कि आप से मैंने नहीं पूछा। अपने गुरु को उत्तर देने दीजिये।
अचानक उस तथा कथित गुरूजी ने मेरा उपहास उड़ाने और अपनी महत्ता स्थापित करने की दृष्टि से बोले,”जिसे यह नहीं मालूम कि माँ का दर्ज़ा सर्वोपरि होता है, उससे और किस ज्ञान की अपेक्षा की जा सकती है. स्वाभाविक है माँ पहले आई.”
मैंने पूछा ” यानी कि आप की माँ बिना बाप के ही माँ बन गई थी?”
पूरी भीड़ हँस पडी. उस गुरूजी का बहुत बड़ा अपमान हुआ. शिष्यों समेत तिलमिला कर रह गये. किन्तु भीड़ जो मेरे से सहमत थी, मेरे अनुकूल थी. इसलिए गुरूजी शिष्यों समेत स्थिति की नाजुकता को समझ रहे थे.
मैंने आगे बताया कि जिस तरह से माँ-बाप की उत्पत्ति एक साथ हुई, आगे पीछे नहीं। ठीक उसी तरह कर्म एवं भाग्य दोनों एक साथ उत्पन्न होते है, आगे पीछे नहीं।
भीड़ में से एक पढ़े लिखे आदमी की आवाज आई–
“यह तो कोई तार्किक उत्तर नहीं हुआ. -माँ-बाप और कर्म भाग्य का परस्पर क्या सम्बन्ध?”
मैंने उनसे पूछा कि आपने न्यूटन के गति का तीसरा नियम पढ़ा है?
उन्होंने बताया ,”प्रत्येक क्रिया के बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया होती है?”
मैंने पूछा,” और यदि क्रिया शून्य है तो प्रतिक्रिया कितनी होगी” उत्तर आया शून्य होगी।
अर्थात कार्य नहीं तो भाग्य नहीं या भाग्य नहीं तो कार्य नहीं। भाग्य और कार्य एक साथ शुरू होते है. कोई पहले या बाद में शुरू नहीं होता। न तो कर्म पहले आया और न ही भाग्य।
मेरे तथ्यात्मक विश्लेषण से भीड़ संतुष्ट नज़र आ रही थी. मैं अब भीड़ का “हीरो” बन चुका था। और वह गुरूजी महाराज अब कुछ पूछने या बताने की अवस्था में नहीं थे.
इधर मुझे भी वह यंत्र एवं नग कुरियर करना था. अतः जल्दी जल्दी मैंने पुनः गंगाजल भरा, कपड़ा उठाया, मोपेड स्टार्ट किया और चलता बना.
Pandit R. K. Rai

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply