इसमें कोई संदेह नहीं कि कुष्ठ रोग चाहे गलित हो या ग्रंथि, श्वेतकुष्ठ हो या तप्त कुष्ठ, घोर पापकृत्य के परिणाम स्वरुप ही होते है. जिसमें ग्रन्थिकुष्ठ एवं गलितकुष्ठ तो निश्चित रूप से असाध्य है. आज के अतिउन्नत चिकित्साविज्ञान के पास तो इसका कोई इलाज़ नहीं है. केवल कुछ समय के लिये (MTD से) एक सीमा में रोका रखा जा सकता है. आयुर्वेद में इसका सफल इलाज़ है किन्तु इतना खर्चीला, उबाऊ एवं जटिल है कि रोगी न तो धैर्य रख पाता है और न ही परहेज।
====श्वेतकुष्ठ एवं तप्तकुष्ठ साध्य है. जब शरीर के समस्त छः रस (रक्तमज्जावसामांस्यस्थिमेदानि) आवश्यक आनुपातिक तत्त्व की आपूर्ति नहीं प्राप्त करता तभी यह घृणित व्याधि होती है.
======कुष्ठ संस्कृत के “कुः और “षष्ठ” का संधि शब्द है. कुः का तात्पर्य कुत्सित अर्थात दूषित या विषाक्त तथा षष्ठ का अर्थ छः अर्थात छहो रस या षडरस।
—–ज्योतिष में भी इसे इसी प्रकार बताया गया है. कि जब लग्न से लेकर छठे भाव तक में से लुप्तक्रम संधि होती है यथा प्रथम-तृतीय, तृतीय-पञ्चम, चतुर्थ-षष्ठ, द्वितीय-षष्ठ, प्रथम-षष्ठ एवं तृतीय-षष्ठ, और इसी प्रकार क्रम से राहु-गुरु, राहु-बुध, शनि-चन्द्र, राहु-मंगल, चन्द्र-राहु एवं राहु-शनि परस्पर चतुर्विध में से कोई सम्बन्ध बनाते है तो क्रम से वापी, ह्रस्व, दधीति, उरग, तप्त एवं ग्रंथि कुष्ठ होते है.
—-यदि रोग के प्रत्यक्ष दिखाई देने से पूर्व ही कुंडली को देखकर सम्बंधित ग्रह एवं भाव की शान्ति करा दी जाय तो व्याधि नहीं हो पाती। यदि रोग समस्त लक्षणों के साथ प्रत्यक्ष दिखाई देने लगे तो पूजा-शान्ति एवं रत्न-औषधि दोनों का सहारा लेना ही पडेगा। किन्तु यदि दिखाई देने के बाद भी उपेक्षा पूर्वक कालक्षेप किया गया तो कोई इलाज़ नहीं सिवाय चण्डिकामाता पर भरोसा के साथ आराधना करने के.
—-वैसे यह मेरा प्रत्यक्ष अनुभव रहा है कि गलित कुष्ठ को छोड़ कर शेष सारे कुष्ठ पूजा, औषधि एवं यंत्रात्मक रत्न धारण करने से निर्मूल हो जाते है किन्तु धैर्य एवं संयम रखा गया तो.
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