किसी भी रोग का इलाज मात्र औषधियों से संभव नहीं है. तात्कालिक राहत मिल सकती है. क्योकि औषधि बलपूर्वक “रक्तमज्जावसामांस्यस्थिमेदांसि” अर्थात रक्त, वसा आदि को उनकी नियमित क्रिया से पृथक कर जबरदस्ती उस रोग से लड़ने के लिये निरंतर उकसाती है. परिणाम स्वरुप उस तात्कालिक रोग का शमन तो हो जाता है. किन्तु इसके अनेक भयावह विपरीत एवं हानिकारक प्रभाव प्रकट होते है जो पुराने रोग से भी उग्र एवं कष्टकारी होते है. जैसे कोशिकाओं को उकसाकर उन्हें उनकी नियमित कार्य से अलगकर रोग के प्रतिरोध में लगाया गया. अब कोशिकाओं का मूलकार्य ऊतक संवर्द्धन एवं अस्थि परिपोषण तथा नियमित प्रतिरोधी क्षमता उत्पादन का काम रुक जाता है. ज्योही यह काम रुकता है, दूसरे अनचाहे विकार उस लापरवाही या कमजोरी का फ़ायदा उठाकर आक्रमण कर एक नई विकृति उत्पन्न कर देते है.
“ता हि श्रेष्ठा देवताता तुजा शूराणां शविष्ठा ता हि भूतम्।
—-“वे इन्द्र तथा वरुण वृत्र से तो लड़ते ही है, पर दोनों में एक भेद है. जब कोई बल से हमें हराता है (रुग्ण करता है) तो इन्द्र (इन्द्रियों) बल से उनका सामना करता है. पर जब कोई प्रजा के अंदर (शरीर के अंदर के अंगो अवयवों) पर आक्रमण करता है तो वरुण (औषधियाँ —तोयं प्रधानौषधिम् इति) बुद्धिबल से उसका पीछाकर किसी न किसी प्रकार उससे जा चिपटता है.
====बहुत ही अच्छी तरह इस मन्त्र में इस तथ्य को निरूपित किया गया है.
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