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वेद में गोत्र का महत्त्व एवं पूजा अनुष्ठान्न आदि
“ॐ इदा हि त उषो अद्रिसानो गोत्रा गवामङ्गिरसो गृणन्ति।
व्य१र्केण विभिदुर्ब्रह्मणा च सत्या नृणामभवद देवहूतिः।।”
(ऋग्वेद 6ठा मण्डल 65वाँ सूक्त 5वाँ मन्त्र)
—-हे अविचल विश्वास की ऊँची चट्टान पर खड़ी हुई-उदयाचल के शिखर पर विराजमान उषा के सामान स्त्री जाति! (=अद्रिसानो), यह समय है जब प्रभुप्रेमरस (विलक्षण एवं विचक्षण शक्ति) जिनके अँग अँग में व्याप गया है वे पृथ्वी के समस्त विद्वान (=अङ्गिरस) जिस प्रकार युद्ध में योद्धा गोत्रोच्चारण पूर्वक आगे बढ़ते है,
“चौ हान की चोट सम्हालो बना फल राय.”
इसी प्रकार अब शक्तिसमन्वित (स्त्री रूपिणी शक्ति-ऊषा) प्रभु के भक्त भी एक से एक बढ़कर गोत्रोच्चार कर रहे है कि–
“मैं एकता स्थापन कर के रहूँगा।”
“अब भारद्वाज के कारनामे देखो।”
“अब मौद्गल्य किसी से पीछे रहने वाला नहीं।”
“अब इस एकतास्थापन-रूप महायज्ञ में संसार के मनुष्यो का प्रभुभजन तथा वैज्ञानिक विवेचन (=अर्केण ब्रह्मणा च) और देवसमागम (देवहूतिः= Call for rally addressed to well learned men) सच्चा हो गया जानो।”
+++++क्या आप को इस वेद मन्त्र का उपहास एवं इसकी आवश्यकता परिलक्षित हो रही है?
+++क्या आप को लग रहा है कि प्रत्येक धनदाता मन्त्र या पूजा या अनुष्ठान्न प्रत्येक व्यक्ति के लिये समान फलदायक हो सकता है?
यदि उत्तर “हाँ” में है तो रूद्र, पुरुष, शिव एवं अग्नि आदि सूक्तों को भी धन देने वाले मंत्रो से भरपूर क्यों बताया गया है?
===यदि उत्तर “ना” में है तो बिना सोचे समझे प्रत्येक अनुष्ठान्न या हवन यज्ञादि का क्या औचित्य?
====और भी ढेर सारे अनुत्तरित प्रश्न के उत्तर इस मन्त्र के गर्भ में है —-केवल सुख-सच्चा सुख चाहने वाले के लिये।
पण्डित आर के राय
Email- khojiduniya@gmail.com
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