यद्यपि आज के पाश्चात्य रँग में रँगे रँगीले सियार जो किसी दुर्योग वश “हिन्दू” परिवार में जन्म प्राप्त कर लिये है, समाज सुधार एवं अन्धविश्वास की फूटी डफली पर अपनी क्षुद्र लोकप्रियता का डंडा पीट कर कानफाड़ू आवाज में श्राद्ध कर्म का विरोध करते हुए इसे भ्रम, पाखण्ड एवं “हिंदुआगादह” का नाम दे रहे है, भले उनकी दृष्टि में “वैलेंटाइन डे’ सबसे उत्तम त्यौहार हो ========आदि.
कारण यह है कि ऐसे लोगो के परिवार में लडके लड़कियाँ स्वच्छन्द, निरंकुश एवं मनमाने आचरण वाले एवं व्यभिचार इनका “स्वस्थ एवं ज्ञानवर्द्धक मनोरंजन होता है. वहाँ पर श्राद्ध दान आदि तो पाखण्ड लगेगा ही.
अस्तु;
“न तत्र वीरा जायन्ते नीरोगी न शतायुषः।
न च श्रेयो अधिगच्छन्ति यत्र श्राद्धं विवर्जितम्।।”
(हारीत स्मृति)
अर्थात जहाँ श्राद्ध कर्म नहीं होता है वहाँ न तो वीर पुरुष जन्म ले सकते है, न परिवार नीरोगी रह सकता है, न तो किसी को दीर्घ आयु मिल सकती है और न तो ख़ुशी प्राप्त हो सकती है.
श्राद्ध एक ऐसा कर्म है जो हर व्याधि की अंतिम दवा हो सकती है. क्योकि श्राद्ध मृत व्यक्तियों का होता है जिनका रक्त सम्बन्ध से लगाव होता है और जो देवलोक में प्रतिष्ठित होते है. चूंकि इनका हमसे पारिवारिक लगाव होता है. और ये पितृदेव हमारे प्रत्येक आवश्यकता, चर्या, स्वभाव आदि से सम्बंधित होते है अतः इनकी तुष्टि पुष्टि समस्या का समाधान हो सकती है. शेष देवी देवता प्रसन्न एवं तुष्ट होने में समय एवं शर्त लगा सकते है. किन्तु जो हमारे रहे है उन्हें तो अपने संतति के बारे में सोचना ही पडेगा।
श्राद्ध कर्म-पिंडदान, तर्पण, तिलांजलि एवं अर्थ दान देवदोष, पितृदोष एवं सर्पदोष का सशक्त समाधान है.
देवकार्यादपि सदा पितृकार्य विशिष्यते।
देवताभ्यो हि पूर्वं पितृणामाप्यायनं वरम.
(हेमाद्रि में वायु तथा ब्रह्मवैवर्त का वचन)
अर्थात देवकार्य की अपेक्षा पितृकार्य की विशेषता मानी गयी है. अतः देवकार्य से पूर्व पितरो को तृप्त करना चाहिये।
श्राद्धस्य पूजितो देशो गया गङ्गा सरस्वती।
कुरुक्षेत्रम प्रयागश्च नैमिषं पुष्कराणि च..
नदीतटेषु तीर्थेषु शैलेषु पुलिनेषु च.
विविक्तेष्वेव तुष्यन्ति दत्तेनेह पितामहाः।।”
(वीरमित्रोदय में श्राद्धप्रकल्प में देवल का वचन)
अर्थात प्रयत्न पूर्वक तीर्थ स्थान में ही श्राद्ध कर्म करना चाहिये।
पितरो की स्थिति नितांत शुचिता पूर्ण होने के कारण तीर्थो में ही उनका आवाहन आदि सिद्ध है. पौराणिक मान्यता के अनुसार भगवान राम के अक्षयवट के नीचे पिंडदान के समय सशरीर पधारकर पिंड ग्रहण किये थे.
दक्षिणाप्रवणे देशे तीर्थादौ वा गृहे अथवा।
भूसंस्कारादिसंयुक्ते श्राद्धं कुर्यात प्रयत्नतः।
गोमयेनोपलिप्तेषु विविक्तेषु गृहेषु च.
कुर्याच्छ्राद्धमथैतेषु नित्यमेव यथाविधिः।।”
(वीरमित्रोदय में श्राद्धप्रकाश में विष्णुधर्मोत्तर का वचन)
इस प्रकार तीर्थ श्राद्धकर्म के लिये एकमात्र अनुशंसित स्थान है.
जैसा कि ऊपर मैं बता चुका हूँ, यदि प्रत्येक पूजा, अनुष्ठान्न, यज्ञ और यंत्र से निराश हो गये हो तो निश्चित ही श्राद्धकर्म जनित पुण्य ऐसी स्थिति में अमोघ उपाय प्रमाणित होगा—-
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