विवाह में लत्ता, पात, क्रांतिसाम्य, खार्जूर, एकार्गल, अर्द्धयाम, कुलिक, जामित्र एवं पञ्चवाण आदि दोष तथा नक्षत्र, मुहूर्त तथा गणना आदि दोष का ध्यान न देने या असावधानी या किसी हठ वश इनकी उपेक्षा करने से भविष्य में दाम्पत्य जीवन नरक से भी ज्यादा दुखदायी हो जाता है.
“अनाश्रमी न तिष्ठेत् क्षणमेकमपि द्विजः।
आश्रमादाश्रमं गच्छेदेष धर्म सनातनः।।
तदेतत् दोषापक्रम्य पाणिग्रहणं कुर्यान्नरः।
शास्त्रोक्त विधिना खलु व्यतिक्रमश्च दुखी खलु..
पाराशर, गर्ग, वशिष्ठ, नारद, देवल, वृहस्पति आदि प्रमुख त्रिकालदर्शी दैवज्ञों ने कलिकाल की भीषणता का अनुमान कर के पहले ही यह व्यवस्था दे दी है–
“करालकलिकाल प्रेरितः कुर्यान्नर पशुवद्वृत्तिः।
न शास्त्रस्मृतिश्रुति धर्मानुकरणं लभते हि तत..
तदेव कालांतर भुक्तानि अतिदुःखानि समावृत्तः।
तावत्करिष्ये विधिना स्थूणामख निर्विघ्नतो नरः.. “
अर्थात कलिकाल के भीषण प्रकोप से अंधे एवं हठी बने लोग शास्त्र, स्मृति, श्रुति, धर्म एवं देवाज्ञा का उल्लंघन करते हुए पशुओं की तरह वासना पूर्ती के लक्ष्य से प्रेरित हो विवाह करेगें। कालान्तर में जब इससे उत्पन्न दुःख से पीड़ित हो त्राहि त्राहि करने लगेगें तो उससे निवृत्ति का हर संभव प्रयास करेगें। उसमें भी जो हठ छोड़कर शास्त्र के निर्दिष्ट विधान–प्रकृति अनुगमन, देवानुकर्षण एवं पितृपादपतन का पालन करेगें उन्हें तो इस पीड़ा से मुक्ति मिल सकती है. और जो फिर भी हठ पर तुले रहेगें उन्होंने इस जन्म में तो नरक का दुःख भोगा ही है, पितृदोष, देवदोष एवं कुलदोष के कारण अगले जन्म में भी दुःख भोगना पड़ता है —-
“लोकांतरम सुखं पुण्यं तपोदान समुद्भवम्।
सन्ततिः शुद्ध वंश्या हि परत्रेह च शर्मणे।।”
प्रकृति अनुगमन में भैषज्याभिषेकानुपालन अर्थात विविध वानस्पतिक औषधियों का अनुप्रयोग, देवानकर्षण में तीर्थ में पूजन एवं उसका संकल्प पूर्वक उद्यापन तथा पितृपादपतन में शापविमोचन पाठ एवं यंत्रादि धारण है.
अतः ऐसी अवस्था में जब कि विवाहोपरांत स्थिति भयावह, पीड़ादायिनी एवं असह्य हो गयी हो तो यत्न पूर्वक इस विधि का पालन करना चाहिये।
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